— राजू पाण्डेय —
संविधान दिवस पर आयोजित होनेवाले कार्यक्रमों और संगोष्ठियों का एक उद्देश्य यह भी होता है कि संघ परिवार तथा उसके विचारकों की संविधान के प्रति असहमति को बहुत ‘विद्वत्तापूर्ण’ तरीके से जायज ठहराया जाए। संविधान के विषय में अनेक तथ्यों को नकारात्मक नजरिये से प्रस्तुत करने की रणनीति आजकल खूब प्रयुक्त हो रही है।
हम अब जानते हैं कि जिस तरह दक्षिणपंथी खेमा संविधान के निर्माण की प्रक्रिया का हिस्सा नहीं था उसी प्रकार वामपंथी खेमा भी इससे दूर था। ऐसा नहीं था कि संविधान सभा में केवल वे ही लोग थे जो स्वाधीनता आंदोलन से सीधे-सीधे सम्बद्ध थे। प्रारंभ में इसके 389 सदस्यों में से 93 शाही रियासतों का प्रतिनिधित्व करते थे। प्रान्तों हेतु निर्धारित 296 सदस्यों के लिए जुलाई 1946 में हुए चुनावों में कांग्रेस के 208 जबकि मुस्लिम लीग के 73 सदस्य निर्वाचित हुए। 15 सदस्य अन्य दलों के थे या स्वतंत्र थे। इस प्रकार अब हमें ज्ञात है कि अधिकांश सदस्य कांग्रेस से थे और जब बाद में मुस्लिम लीग ने 9 दिसंबर 1946 को हुई संविधान सभा की पहली बैठक का ही बहिष्कार कर दिया तब तो लगभग कांग्रेस के सदस्य ही शेष रह गये थे।
अब हमें बताया जा रहा है कि समाजवादी रुझान के सदस्यों के तर्क और सुझाव प्रभावशाली होते हुए भी अंतिम ड्राफ्ट में स्थान न पा सके। पाकिस्तान के लिए अलग संविधान सभा के गठन के प्रस्ताव के बाद बहुत से सदस्यों की सदस्यता समाप्त हो गयी। शेष 299 में से सात आदिवासी सदस्यों- जयपाल सिंह मुंडा, रूपनाथ ब्रह्मा, फूलभान शाह, देवेंद्रनाथ सामंत, जेजे एम निकोल्स रॉय, मायंग नोकचा व बोनीफास लकड़ा- ने पुरजोर ढंग से अपनी बात कही लेकिन इसका कोई विशेष असर संविधान पर दिखता हो ऐसा नहीं लगता।
संविधान सभा में महिला सदस्यों की संख्या 15 थी जो आनुपातिक दृष्टि से नगण्य थी। यद्यपि ये विदुषी महिलाएँ स्वाधीनता संग्राम की सक्रिय सहभागी थीं और स्त्रियों की दुर्दशा से भलीभांति अवगत और इसे स्वर देने में सक्षम थीं किंतु संविधान स्त्री-विमर्श को ध्यान में रखता हो ऐसा नहीं लगता।
इन सारे तथ्यों का प्रस्तुतीकरण कुछ इस प्रकार से किया जाता है कि जब दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी संविधान को कांग्रेस की सोच की पैदाइश कहें, जिसमें देश के अधिकांश राजनीतिक दलों और सामाजिक वर्गों का प्रतिनिधित्व नहीं था, तब संविधान को लेकर हमारी दुविधा और बढ़ जाए।
अब हमें बताया जा रहा है कि भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का शीर्ष नेतृत्व इंग्लैंड और अन्य यूरोपीय देशों से उच्चशिक्षा ग्रहण करने के कारण उन देशों की राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था से प्रभावित था और कोई आश्चर्य नहीं कि उसमें अपने तत्कालीन शासकों को प्रशासनिक रोल मॉडल मानने की कोई ऐसी गुप्त इच्छा रही हो जिसका उसे खुद ही बोध नहीं था।
इसीलिए, जैसा कि आजकल हमें समझाया जाता है, भारतीय परंपरा की संविधान में अवहेलना की गयी और यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही हैं जो देश की संपन्न लोकतांत्रिक विरासत को चर्चा में लाये जब उन्होंने भारत को लोकतंत्र का उद्गम स्थल बताया और संकल्प व्यक्त किया कि हम दुनिया को यह कहने पर विवश कर देंगे कि इंडिया इज द मदर ऑफ डेमोक्रेसी। (नये संसद भवन के ‘वैदिक रीति’ से भूमि पूजन के अवसर पर दिया गया भाषण)
इस वर्ष भी संविधान दिवस पर जब मोदी जी यह कहते हैं कि- हमारा संविधान सिर्फ अनेक धाराओं का संग्रह नहीं है, हमारा संविधान सहस्रों वर्ष की महान परंपरा, अखंड धारा उस धारा की आधुनिक अभिव्यक्ति है- तो वे संविधान की प्रेरणाओं और मूल तत्त्वों के स्वदेशी उद्गम की ओर संकेत करते हैं।
क्या मोदी जी संविधान को ऐसी विशेषताओं से संयुक्त कर रहे हैं जो संविधान निर्माताओं का अभीष्ट नहीं थीं। संविधान निर्माताओं के प्रति आदर व्यक्त करते हुए इस संविधान का एक नया पाठ तैयार किया जा रहा है जो लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला के शब्दों में संविधान को “हमारे लिए पवित्र ‘गीता’ महाग्रंथ के आधुनिक संस्करण की तरह” बना देता है। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के अनुसार हर सांसद का यह दायित्व बनता है कि वे संसद रूपी लोकतंत्र के इस मंदिर में उसी श्रद्धा भाव से अपना आचरण करें, जैसा कि वे अपने पूजा स्थलों में करते हैं।
इस बात पर चर्चा होनी चाहिए कि आकर्षक और निर्दोष लगनेवाली ये उपमाएँ कहीं हमारे संविधान को धर्म-सम्मत बनाने की प्रक्रिया का हिस्सा तो नहीं हैं! अब हमें बार-बार स्मरण दिलाया जा रहा है कि 42वें संविधान संशोधन के जरिये संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और एकता तथा अखंडता शब्द जोड़े गये थे, यह मूल संविधान का हिस्सा नहीं थे। हमारे अवचेतन में यह प्रविष्ट कराया जा रहा है कि हमारे संविधान का सेकुलर स्वभाव थोपा हुआ है।
एक पोस्ट इन दिनों बहुत वायरल हो रही है जिसके अनुसार बाबासाहब आंबेडकर इस संविधान को स्वयं जला देना चाहते थे। किंतु आम जनता से बहुत चतुराई से यह छिपा लिया जाता है कि यह बहुसंख्यक वर्चस्व की घातक वृत्ति ही थी जिसने हमारे संविधान की पवित्रता को खंडित किया था जिसके कारण बाबासाहब आहत थे। उन्होंने 2 सितंबर 1953 को राज्यसभा में कहा- “छोटे समुदायों और छोटे लोगों को यह भय रहता है कि बहुसंख्यक उन्हें नुकसान पहुँचा सकते हैं और ब्रितानी संसद इस डर को दबाकर काम करती है। श्रीमान, मेरे मित्र मुझसे कहते हैं कि मैंने संविधान बनाया है। पर मैं यह कहने के लिए पूरी तरह तैयार हूँ कि इसे जलाने वाला मैं पहला व्यक्ति होऊँगा। मुझे इसकी आवश्यकता नहीं। यह किसी के लिए अच्छा नहीं है। पर, फिर भी यदि हमारे लोग इसे लेकर आगे बढ़ना चाहें तो हमें याद रखना होगा कि एक तरफ बहुसंख्यक हैं और एक तरफ अल्पसंख्यक। और बहुसंख्यक यह नहीं कह सकते कि ‘नहीं, नहीं, हम अल्पसंख्यकों को महत्त्व नहीं दे सकते क्योंकि इससे लोकतंत्र को हानि होगी।’ मुझे कहना चाहिए कि अल्पसंख्यकों को नुकसान पहुँचाना सर्वाधिक हानिकारक होगा।”
भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की अहिंसक धारा का नेतृत्व पढ़ा-लिखा मध्यम-उच्च मध्यम वर्गीय तबका कर रहा था। इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि संविधान सभा में भी यही वर्ग बहुसंख्यक एवं नेतृत्वकारी होता। राजा-महाराजाओं की उपस्थिति और वर्चस्व एक अटल सत्य था, अतः उनके प्रतिनिधियों को संविधान सभा में जगह मिलनी ही थी। हमें यह भी ज्ञात है कि चरम वामपंथ और चरम दक्षिणपंथ अधिक समय तक लोकतंत्र के साथ नहीं निभा सकते। कांग्रेस उस समय एक दल नहीं एक आंदोलन था और स्वाभाविक था कि संविधान निर्माण की प्रक्रिया में उसकी मुख्य भूमिका होती।
जटिल परिस्थितियाँ थीं- साम्प्रदायिक तनाव गहरा रहा था, भारतीय समाज में जातिप्रथा का जहर कम होने का नाम नहीं ले रहा था। ऐसे में आश्चर्य नहीं कि पश्चिम के उदार लोकतांत्रिक मूल्यों में कोई समाधान संविधान-निर्माताओं को नजर आया होगा। जिस गौरवशाली अतीत और गणराज्यों की लोकतांत्रिक परंपरा का जिक्र दक्षिणपंथियों द्वारा बारंबार किया जाता है भारतीय समाज की तत्कालीन स्थिति में उनकी स्मृति आत्म-प्रवंचना के लिए जरूर उपयोगी हो सकती थी, इससे कोई हल नहीं निकल सकता था। न ही उस मनुस्मृति की पुनर्प्रतिष्ठा से कोई लाभ होता जो शोषण और जातिभेद के आधार-ग्रन्थ के रूप में प्रयुक्त होती रही थी। तत्कालीन परिस्थितियों में धर्म के पूर्ण नकार का साहस संविधान निर्माता नहीं कर पाये, इसलिए सर्व धर्म समभाव पर उन्हें अटकना पड़ा। शायद उन्हें ऐसा लगा हो कि हमारा समाज धर्म के मामले में बहुत संवेदनशील है और हो सकता है कि वस्तुस्थिति भी यही रही हो।
हमें यह भी बताया जा रहा है कि आंबेडकर अपनी मर्जी का संविधान नहीं बना पाये, उन पर प्रभावशाली सदस्यों का दबाव था। वस्तुस्थिति तो यह है कि संविधान सभा का कोई भी सदस्य निर्मित संविधान से शत-प्रतिशत सहमत नहीं हो सकता था। सबकी अपनी प्राथमिकताएँ थीं, आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि थी, अपना-अपना वर्ग चरित्र था, अपने-अपने हित थे। इसके बावजूद संविधान सभा के सदस्यों ने अपनी सीमाओं से यथासंभव ऊपर उठकर एक सर्व समावेशी संविधान बनाया।
संविधान दिवस पर सामाजिक कार्यकर्ताओं, मानवाधिकार विशेषज्ञों और प्रगतिशील चिंतकों ने भी खूब लिखा। इन लेखों का सार संक्षेप यह था कि यह संविधान दलित, पिछड़े,आदिवासी और महिला- हर शोषित वर्ग की रक्षा करने में नाकाम रहा है। आजाद भारत में गरीबों के लिए कुछ नहीं बदला है। कुछ के अनुसार देश में संविधान का शासन ही नहीं है। ब्यूरोक्रेसी के तेवर ब्रिटिश जमाने के हैं, पुलिस और न्यायपालिका का भी कमोबेश यही हाल है। संविधान आम आदमी के लिए अर्थहीन है। राजनेताओं से भी परिवर्तन की कोई उम्मीद करना बेकार है। संसद और विधानसभाओं में अपराधियों की संख्या बढ़ रही है। चुनाव पैसे का खेल बन गये हैं। भ्रष्टाचार चरम पर है। संसद में काम नहीं होता। अशोभनीय आचरण भर होता है। संविधान इतना लाचार है कि कोई उसका औपचारिक तौर पर भी सम्मान तक नहीं करता, क्रियान्वयन की बात तो दूर है।
कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इन आलोचनाओं का उपयोग भी उन दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों द्वारा किया जाए जो कथित रूप से असफल और अभारतीय संविधान के स्थान पर एक धर्म-परंपरा पर आधारित, सशक्त, स्पष्ट, बंधनकारी, दंडात्मक और कर्तव्यप्रधान संविधान बनाने की वकालत करते रहे हैं। इनके द्वारा यह रेखांकित जाता रहा है कि हमारा संविधान भविष्य की परिस्थितियों के आकलन में इतना नाकाम रहा कि 26 जनवरी 1950 से अबतक इसमें 101 बार संशोधन करने की जरूरत पड़ी है।
क्या संविधान से हमें कुछ हासिल नहीं हुआ? जब हमारे साथ स्वतंत्र हुए देशों में लोकतंत्र असफल एवं अल्पस्थायी सिद्ध हुआ और हमारे लोकतंत्र ने सात दशकों की सफल यात्रा पूरी कर ली है तो इस कामयाबी के पीछे हमारे संविधान के उदार एवं समावेशी स्वरूप की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता।
संविधान ने हमें सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार दिया है जिसकी परिधि में भोजन, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएँ, स्वच्छ-स्वास्थ्यप्रद पर्यावरण और भ्रष्टाचार-मुक्त परिवेश सभी समाहित हैं। इस अधिकार का विस्तार गैर-नागरिकों तक भी है। वैयक्तिक स्वतंत्रता का अधिकार दमनकारी कानूनों से हमारी रक्षा करता है। यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के व्यापक अर्थों को उजागर करें तो इसमें सूचना प्राप्त करने और स्वतंत्र मीडिया का अधिकार समाविष्ट होते हैं। समानता का अधिकार बहुसंख्यक समुदाय की आक्रामक गतिविधियों से अल्पसंख्यक समुदाय की रक्षा की भावना रखता है।
हमारे लोकतंत्र की यात्रा में 2005 का सूचना का अधिकार कानून एक मील का पत्थर था। अब नागरिकों को सरकार के कार्यकलापों की प्रामाणिक जानकारी मिल सकती है। सूचना का अधिकार सरकार को पारदर्शी, जवाबदेह और भ्रष्टाचार-मुक्त बनाने में सहायक रहा। हालिया चार-पाँच वर्षों को छोड़ दिया जाए तो देश में हमारे चुनाव आयोग ने बेहतरीन काम किया है और अनेक मुख्य चुनाव आयुक्तों ने चुनावों के पारदर्शी एवं निष्पक्ष संचालन की मिसाल कायम की है।
संविधान में प्रदत्त अधिकारों का दायरा न्यायपालिका ने अपनी व्याख्याओं द्वारा व्यापक बनाया है। सरकारों ने भी संविधान की भावना के अनुरूप अल्पसंख्यक आयोग, अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग आदि का गठन किया है। संविधान में प्रदत्त अधिकारों को सशक्त करनेवाले अनेक कानून बने- वन अधिकार अधिनियम (2006), महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (2005), खाद्य सुरक्षा अधिनियम (2013) एवं नया भूमि अधिग्रहण अधिनियम (2013) कुछ ऐसे ही कानून हैं।
जब जनमानस को आधे-अधूरे तथ्यों और ढेर सारी कल्पना पर आधारित किसी वायरल पोस्ट पर मरने-मारने की हद तक विश्वास करने हेतु प्रशिक्षित कर दिया गया है तब हमें यह ध्यान रखना होगा कि तथ्यों और तर्कों पर आधारित संविधान की हमारी समीक्षा के आलोचनात्मक हिस्से का उपयोग उग्र दक्षिणपंथी शक्तियों द्वारा संविधान को अनुपयोगी एवं त्याज्य सिद्ध करने हेतु अवश्य किया जाएगा।