किसान आंदोलन की ऐतिहासिक जीत के साथ एक खतरा यह बँध गया है कि कहीं आंदोलन यथास्थितिवाद के गर्त में ना लुढ़क जाए। ऐसा ना तो इष्ट-अभीष्ट है और ना ही आंदोलन के लिए व्यावहारिक। हाँ, हमारे आंदोलन को यथास्थितिवाद के रसातल में ढकेलने का काम एक-दूसरे के विरोधी नजर आनेवाले दो खेमों की तरफ से हो सकता है।
ऐसा एक खेमा बाजारवादी सुधारों के पैरोकार पंडितों का है जो अभी बौद्धिक और राजनीतिक बंजर-ऊसर में फँसकर अपनी सारी कुंठा किसानों पर निकाल रहा है। इस खेमे से यह खटराग सुनाया जा रहा है कि अब हमारे देश के कृषि-क्षेत्र को कोई सुधार नहीं सकता। वहीं इस खेमे के दूसरी तरफ देखें तो एक आशंका यह कचोटती है कि कहीं किसान आंदोलन के कुछ धड़े यह ना मान बैठें कि जो होना था सो हो गया और अब खेती-बाड़ी के मामलों को उसी ढर्रे पर चलना है जिस पर वे चलते आए हैं।
अगर ऐसा होता है तो फिर ये दिल तोड़ने वाली बात होगी।
सच ये है कि तीन कृषि कानूनों के अमल में आने के पहले हमारे देश में खेती-किसानी कोई बेहतर हालत में नहीं थी। तब भी कृषि-क्षेत्र आर्थिक, पारिस्थितिक और अस्तित्वगत संकट से घिरा था। तीन कृषि कानूनों ने ति-तरफा संकट से घिरे कृषि-क्षेत्र को विपदा के एक और जंजाल में फँसाना चाहा।
बेशक कानून निरस्त हो गये हैं लेकिन जो संकट पहले से चले आ रहे हैं वे अभी टले नहीं हैं। भारत में कृषि-क्षेत्र को हरचंद सुधार की जरूरत है लेकिन ये सुधार किसानों पर कहीं और से थोपे नहीं जाने चाहिए बल्कि ये सुधार किसानों की पसंद और जरूरत के मुताबिक होने चाहिए।
देश का किसान नयी चीजों को सीखने और खेती-बाड़ी के अपने तौर-तर्ज को बदलने के लिए हरचंद तैयार है बशर्ते ऐसा करने में उसे अपना फायदा होता जान पड़े। अब, जबकि किसानों ने अपना आत्म-तेज वापस हासिल कर लिया, उनके बीच एकता कायम है और वे राष्ट्रीय घटनाक्रम के रंगमंच के केंद्र में प्रतिष्ठित हैं तो इस सुअवसर का इस्तेमाल भारतीय कृषि के भविष्य को सँवारने के निमित्त एक नया खाका, एक नयी कुंडली तैयार करने में होना चाहिए। किसान आंदोलन के सामने सबसे कठिन चुनौती यही है।
सुधार का मसला
किसानों ने राजनीतिक आत्मविश्वास हासिल किया है तो यह बौद्धिक और सांस्कृतिक आत्मविश्वास के रूप में भी झलकना चाहिए। यूरोप और उत्तर अमेरिका के किसानों के लिए जो अतीत हो चुका है वह भला भारत के किसानों का भविष्य क्यों बने।
हरित क्रांति के तौर-तर्ज वाली खेती का विस्तार पूरे देश में करने के झूठे सपने देखने से हमें परहेज करना चाहिए। ऊँची लागत, पानी की ज्यादा खपत और रासायनिक तत्त्वों के अत्यधिक इस्तेमाल पर टिकी हरित क्रांति के तर्ज-तौर पर खेती का विस्तार पूरे देश में करना एक तो असंभव है, दूसरे ऐसा किया भी नहीं जाना चाहिए। साथ ही, हमें मानकर चलना है कि कृषि जोतों के छोटे होने की मुश्किल बरकरार रहेगी।
कृषि और इससे जुड़ी अन्य गतिविधियों में देश के कार्यबल का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा लगा रहेगा क्योंकि इतनी बड़ी तादाद के लिए तुरंत रोजगार का कोई वैकल्पिक उपाय फिलहाल दिख नहीं रहा। फिर, देश के ज्यादातर किसानों के पास निवेश के लिए कोई मोटी पूँजी नहीं है। जिन इलाकों में खेती सिंचाई के मामले में बारिश के पानी के भरोसे है उन सभी इलाकों में नहरों का जाल बिछाकर खेती की जाए- यह भी नहीं हो सकता।
खेती-बाड़ी के मामले में जो भी समाधान निकाले जाएँ, वे भारतीय कृषि की इन ठोस सच्चाइयों को ध्यान में रखते हुए निकाले जाने चाहिए।
साथ ही, हम परंपरागत तर्ज वाली खेती भी नहीं अपना सकते। परंपरागत तर्ज वाली खेती के सामने यह कठिन चुनौती कभी नहीं आयी कि 70 साल की आयु-प्रत्याशा वाले देश में उसे 1 अरब 40 करोड़ लोगों का पेट भरने के लिए पर्याप्त मात्रा में पोषक आहार उपजाना पड़े।
हमारे पास खेती-बाड़ी के तौर-तरीकों के ज्ञान की एक समृद्ध विरासत तो है लेकिन इस ज्ञानराशि को माँजने और आधुनिक विज्ञान की मदद से चमकाने की जरूरत है।
खाद्य-पदार्थों के बाजार को भी कायम रहना है और जब बाजार कहा जा रहा है तो यहाँ उसमें अंतरराष्ट्रीय खाद्य-बाजार को भी शामिल समझिए। एक तरफ बाजार की सच्चाई कायम रहनेवाली है तो दूसरी तरफ यह जरूरत भी बरकरार रहनेवाली है कि जो लोग कृषि-क्षेत्र से बाहर हैं उनके लिए खाद्यान्न और आहार की बाकी चीजों की कीमत जेब पर ज्यादा भारी ना पड़े।
जाहिर है, राजसत्ता चलानेवाली सरकारों को उत्पादन और भंडारण के लिए बुनियादी ढाँचा तैयार करने की दिशा में कदम उठाने होंगे, किसानों को सबसीडी देनी होगी ताकि खाद्यान्न की खरीददारी लोगों की जेब पर भारी ना पड़े और घरेलू तथा अंतरराष्ट्रीय बाजार के नियमन के भी प्रयास करने होंगे।
आगे की राह
भारतीय कृषि का भविष्य स्वदेशी राह अपनाने में है- एक ऐसी राह जो खेती-बाड़ी की हमारी पारिस्थितिकीगत सच्चाइयों, हमारे सीमित संसाधन और मौजूदा जरूरतों को देखते हुए तैयार की गयी हो।
इसके लिए हमें तीन लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए कदम बढ़ाने होंगे : एक तो यह कि खेती किसानों के लिए आर्थिक रूप से फायदेमंद साबित हो, दूसरा यह कि खेती-बाड़ी के तौर-तरीके पर्यावरण-हितैषी हों ताकि वे किसानों और कृषि-उत्पाद के उपभोक्ता, दोनों ही के लिए टिकाऊ साबित हों और तीसरी बात यह कि खेतिहर और गैर-खेतिहर समुदायों के बीच जो सर्वाधिक हाशिये पर हैं उनके लिए सामाजिक न्याय सुनिश्चित किया जाए।
अभी तक, किसान आंदोलन की विभिन्न धाराओं ने अलग-अलग इन तीन लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए कदम बढ़ाये हैं। मुख्यधारा के किसान-आंदोलन की नजर खेती-किसानी को आर्थिक रूप से फायदेमंद बनाने पर रही है, वामधारा के किसान-आंदोलनों ने सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने को लेकर जोर लगाया है जबकि पर्यावरणवादियों की एक छोटी सी धारा ने खेती-बाड़ी से जुड़े प्रकृति-पारिस्थितिकी से संबंधित मसले उठाये हैं। संयुक्त किसान मोर्चा एक ऐतिहासिक अवसर है जब इन मसलों को एक में गूँथा-पिरोया जा सकता है।
किसान आंदोलन ने कृषि को आर्थिक रूप से फायदेमंद बनाने तथा किसानों की आय-सुरक्षा के सवाल की तो पेशबंदी कर दी है। किसानों की आमदनी दोगुना कर दिखाने के वादे को लेकर जो धुआंधार सपने हाल के सालों में प्रचार-तंत्र के सहारे बेचे गये हैं, उन सपनों की सच्चाई 28 फरवरी 2022 को फाश हो जानी है। आमदनी दोगुनी करने के वादे की सच्चाई के फाश होने के बाद हमें ध्यान उन उपायों की तरफ लगाना होगा जो सुविचारित और वास्तविकता को ध्यान में रखकर गढ़े गये हों।
वैसे तो सरकार एमएसपीं को लेकर कोई ठोस वादा करने की जिम्मेदारी से कतराकर बच निकली लेकिन एक बात साफ है- अब सियासी सत्ता-तंत्र पर किसानों को आय-सुरक्षा देने का दबाव निरंतर बना रहेगा। इस दिशा में एक मुख्य सुधार तो यही होना चाहिए कि एमएसपी की गारंटी करनेवाला कोई कानून बने।
किसान-आंदोलन ने यह बात बारंबार कही है कि एमएसपी की कानूनी गारंटी करने का मतलब ये कतई नहीं कि सरकार सारी फसलों की उपज खरीदने की ज़िम्मेदारी उठाये। एमएसपी सुनिश्चित करने के लिए चुस्ती और गहरी सूझ से काम लेते हुए मिल-बाँट कर उपाय करने होंगे- अनाज का उपार्जन अभी की तुलना में कुछ बढ़ाना होगा, भावांतर योजना का रचाव-गढ़ाव बेहतर करके उसे मुस्तैदी से लागू करना होगा और बाजार में समय रहते चुनिंदा मसलों पर हस्तक्षेप की नीति अपनानी होगी। साथ ही, अपनी अंतरराष्ट्रीय व्यापार नीति में जरूरत के हिसाब से नोक-पलक सँवारने का काम करना होगा।
एमएसपी की गारंटी को फसलों के विविधीकरण (डायवर्सीफिकेशन) के विचार से जोड़ा जा सकता है। चूँकि अब पीएम फसल बीमा योजना फ्लाप नजर आ रही है सो जरूरत इस बीमा योजना की जगह एक सार्विक फसल बीमा योजना चलाने की है।
खेती-बाड़ी के मसलों पर सक्रिय कार्यकर्ता बताते हैं कि कृषि-बाजार में बहुविध सुधार की जरूरत है : मंडियाँ ज्यादा हों, मंडियों में सौदे से जुड़े किरदार ज्यादा हों, टैक्स में कमी आए, गोदाम में माल-जमा की रसीद की जो योजना है, उसमें सुधार हो और किसानों की पहुँच सीधे उपभोक्ताओं तक बनायी जाए।
किसान-आंदोलन के कारण सरकार पर दबाव बना है और अब इस स्थिति का इस्तेमाल कुछ यों होना चाहिए कि कृषि-क्षेत्र पर सरकार अपना खर्चा बढ़ाने के लिए तैयार हो।
कृषि क्षेत्र में सामाजिक न्याय
कृषक समुदायों के बीच संसाधनों के न्यायसंगत बँटवारे के मसले की किसान आंदोलन बेशक पेशबंदी ना कर पाया हो लेकिन आंदोलन इस बात से हरचंद आगाह रहा कि किसानों के बीच ढेर सारे भेद मौजूद हैं। कृषि क्षेत्र में सामाजिक न्याय का मसला बरसों से सुस्ती का शिकार चला आ रहा है। अभी चूँकि खेती-किसानी का मुद्दा राष्ट्रीय मानस के केंद्र में प्रतिष्ठित है, सो इस अवसर का इस्तेमाल कृषि-क्षेत्र के सामाजिक न्याय के कुछ मुद्दों को उठाने में होना चाहिए।
1950 के दशक में भूमिहीन किसानों के बीच जिस तर्ज पर कृषि-भूमि बाँटने की बात की जाती है, छोटी जोत के इस दौर में वैसा कर पाना तो संभव नहीं लेकिन अब भी भूमिहीनों के बीच घराड़ी यानी वासभूमि के तौर पर कुछ जमीन बाँटी जा सकती है, साथ ही उन्हें ऊसर पड़ी जमीन के टुकड़े दिये जा सकते हैं। जिन दलित परिवारों को जमीन के पट्टे दिये जाएँ, उनके नाम से इन्हें पक्का कर दिया जाए। भूमि अधिकार आंदोलन एक लंबे अरसे से इस मुद्दे को उठाता आ रहा है।
आदिवासी किसानों के हक में जरूरी है कि वनाधिकार कानून, 2006 अमल में आए और लघु वनोपज का आदिवासी किसानों को लाभकारी मूल्य हासिल हो। महिला किसानों के हक में जरूरी है कि उन्हें भूमि पर सह-स्वामित्व हासिल हो जबकि बटाईदार किसानों के हक को ध्यान में रखते हुए मुख्य बात है उनके पास पहचान के ऐसे दस्तावेज का होना जिससे उन्हें कृषि-क्षेत्र की सरकारी योजनाओं के वे तमाम फायदे हासिल हो सकें जो किसी भूस्वामी किसान को होते हैं, साथ ही बटाई पर खेत देनेवाले भूस्वामी किसान को ये भय ना सताए कि जमीन की मिल्कियत उसके हाथ से निकल जाएगी।
सीमांत किसानों के हक में जरूरी है कि सहकारिता को बढ़ावा मिले और इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर जोर-शोर से प्रयास हो। कृषि क्षेत्र में सहकारिता को बढ़ावा देने के प्रयास को फार्मर प्रोड्यूसर आर्गनाइजेशन (एफपीओ) कहें या फिर इसे कोई और नाम दें लेकिन ऐसे प्रयास जरूरी हैं ताकि सीमांत किसान सस्ते दामों पर खेती-बाड़ी में लगनेवाली चीजें खरीद सकें और उन्हें अपनी उपज का बेहतर दाम मिल सके। किसानों के सहकारी प्रकल्पों को आधार बनाते हुए ग्रामीण क्षेत्र में रचनात्मक गतिविधियाँ चलायी जा सकती हैं।
खेती-बाड़ी में पारिस्थितिकीगत टिकाऊपन हो- यह एक मसला है जिस पर किसान आंदोलनों ने अभी पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है। किसान स्वराज नीति ऑफ अलायंस फॉर हॉलिस्टिक एंड सस्टेनेबल एग्रीकल्चर नाम का एलाएंस बेशक इसका एक अपवाद कहा जाएगा।
पारिस्थितिकीगत टिकाऊपन के मसले को अगले दिनों के लिए स्थगित नहीं रखा जा सकता क्योंकि हरित क्रांति का खात्मा हो चला है और जलवायु परिवर्तन के संकट सिर पर आन खड़े हैं। हम खेती-बाड़ी के उन्हीं तौर-तरीकों को अनंत काल तक चलाये नहीं रख सकते जो भूजल का भारी मात्रा में दोहन करते हैं, भूमि की उर्वरा-शक्ति घटाते और किसानों के ऊपर कर्ज का बोझ बढ़ाते हैं जबकि उपभोक्ताओं को हाथ लगता है कीटनाशकों और सेहत के लिए हानिकारक अन्य रसायनों से संदूषित भोजन।
हमें खेती-बाड़ी का ऐसा तरीका अपनाना होगा जिसमें लागत कम आए, खेती-बाड़ी करते हुए उसमें बाहर से चीजें लाकर लगाने की रीत पर निर्भरता कम हो (यहाँ आशय सिर्फ जीरो-बजट यानी शून्य-लागत की खेती वाले तरीके से नहीं जिसके प्रधानमंत्री बड़े पैरोकार हैं) और साथ ही पर्याप्त मात्रा में उपज मिले ताकि सबको किफायती दाम पर सेहतबख्श, विषमुक्त आहार मिल सके। इसके लिए जरूरी होगा कि हम फसलों के विविधीकरण पर जोर दें और इसमें काम आएगा हमारा खेती-बाड़ी से जुड़ा परंपरागत ज्ञानकोश जो हमें समेकित और विविधता युक्त खेती के लिए जरूरी फसलों के चुनाव करने के मामले में मदद देगा, मिश्रित और फसलों की फेर-बदली पर आधारित उपज ली जा सकेगी।
रासायनिक तत्त्वों पर आधारित उर्वरकों के इस्तेमाल की जगह हमें छोटे स्तर पर एक ऐसे प्रकृति परिवेश की रचना करनी होगी जो भूमि की उर्वरा-शक्ति को बढ़ा सके। कृषि-पौध की सुरक्षा और फसल-कीटों से बचाव के लिए अभी जिन रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल होता है, वह तरीका बदलना होगा। सिंचाई की मौजूदा व्यवस्था भी बदलनी होगी, बड़े बाँधों की जगह सिंचाई की छोटी परियोजनाओं पर बल देना होगा। हमारा जोर सिंचाई में न्यूनतम पानी के अधिकतम और किफायतशारी से इस्तेमाल तथा परिवेश की नमी के बेहतर उपयोग पर होना चाहिए। ऐसे बीजों का इस्तेमाल हो जो स्थानीय जरूरतों के अनुरूप साबित हों और बीजों पर किसानों का स्वामित्व बना रहे।
कुछ संगठन और विचारक किसानों के इस एजेंडे के समेकन की दिशा में प्रयास शुरू कर चुके हैं। जरूरत अब इस एजेंडे पर अमल करने की है। किसान आंदोलन की जीत का जश्न किसी और वक्त में मना लिया जाएगा, अभी तो वक्त भारतीय कृषि के लिए एक नया, आत्मविश्वास से लबरेज और भविष्यदर्शी घोषणापत्र तैयार करने का है।
( द प्रिंट से साभार )