— प्रगति सक्सेना —
साहित्य हमेशा सत्य का अन्वेषण करता है और इस दृष्टि से उसका धर्म असत्य के खिलाफ बोलना है। इस तरह साहित्य के मूल स्वभाव में प्रतिरोध अंतर्निहित है। यह प्रतिरोध हर तरह की असमानता, भेदभाव, अन्याय, दमन, शोषण के विरुद्ध है। जाहिर है यह प्रतिरोध सत्ता प्रतिष्ठान के विरुद्ध होता है।
पिछले दिनों दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में प्रख्यात हिंदी कवि रघुवीर सहाय और मंगलेश डबराल की स्मृति में 9 दिसम्बर को प्रतिरोध दिवस के तौर पर मनाया गया। 9 दिसम्बर रघुवीर सहाय की 92वीं जयंती थी और मंगलेश जी की पहली पुण्य तिथि। इस मौके पर आयोजित एक कार्यक्रम में हिंदी के प्रसिद्ध कवि, आलोचक और संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपयी के सहयोग से प्रकाशित किताब ‘प्रतिरोध पूर्वज’ का लोकार्पण भी किया गया। इस किताब में करीब 22 दिवंगत कवियों की प्रतिरोध-कविताएं शामिल हैं। इनमें महाप्राण निराला, शमशेर, नागार्जुन, मुक्तिबोध, त्रिलोचन से लेकर वीरेन डंगवाल, विष्णु खरे और मंगलेश डबराल की कविताएं हैं।
दरअसल, प्रतिरोध साहित्य का एक अभिन्न अंग है। जब भी समाज या सत्ता के दबाब, कुरीतियों का विरोध होता है तो वह सबसे ज्यादा उस समय के साहित्य में प्रतिध्वनित होता है। ये सिर्फ एक देश या समाज का सच नहीं है बल्कि पूरी दुनिया में मनुष्य समाज की हकीकत है। कहा जा सकता है कि प्रतिरोध साहित्य का अभिन्न अंग है। वह उसका एक अविभाज्य हिस्सा है।
भक्ति काल का साहित्य जहां छुआछूत, अंधविश्वास, जातिभेद और रूढ़िवादिता के विरोध में उठा एक पुख्ता स्वर था जिसके फलस्वरूप लोगों के विचार और आस्थाओं में अहम बदलाव आया तो आजादी की लड़ाई के दौरान लिखी गयी रचनाएँ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर बर्तानिया सरकार का विरोध करती थीं और अपने समाज में फैली हुई कुरीतियों का भी मुखर विरोध करती थीं बल्कि समग्र रूप से कहा जाए तो ये सन्देश भी देती थीं कि राजनीतिक आजादी के साथ-साथ हमें सामाजिक और वैचारिक आजादी की तरफ भी प्रयत्नरत होना चाहिए। आजादी के बाद भी प्रतिरोध साहित्यिक रचनाओं, खासकर कविता का मुख्य स्वर रहा। इन कविताओं में समाज की कुरीतियों और राजनीतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ सशक्त स्वर उभरे। इन रचनाओं में लोकतंत्र और सामाजिक-राजनीतिक समानता के प्रति अटूट आस्था स्पष्ट थी। जैसे रामधारी सिंह दिनकर की ये पंक्तियाँ- “लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठाते हैं, जनता जब कोपाकुल हो भृकुटी चढ़ाती है/ दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो/ सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।” ये पंक्तियाँ काफी लोकप्रिय हुई थीं और आज भी लोगों की जुबान पर उसी तरह चढ़ी हुई हैं।
अज्ञेय को मौन का कवि कहा जाता है लेकिन उन्होंने भी प्रतिरोध की कविताएं लिखीं। उनकी ये पंक्तियाँ आज भी सत्ता को चुनौती देती हैं-
“तुम, सत्ताधारी, मानवता के शव पर आसीन,/ जीवन के चिर-रिपु, विकास के प्रतिद्वंद्वी प्राचीन,/ तुम श्मशान के देव,! सुनो यह रण-भेरी की तान-/ आज तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!”
महिला साहित्यकारों ने भी प्रतिरोध के स्वर बुलंद किये। उनका संघर्ष केवल राजनीतिक दमन के विरुद्ध नहीं था बल्कि पितृसत्तात्मक समाज के दोहरे मापदंडों और दमघोंटू वर्जनाओं के विरुद्ध भी था। महादेवी वर्मा और सुभद्रा कुमारी चौहान को भला कौन भूल सकता है जिनका लिखा आज भी लोगों को उद्वेलित करता है।
आजादी के बाद शमशेर, त्रिलोचन और नागार्जुन के अलावा और लेखकों ने आवाज उठायी। आपातकाल में धर्मवीर भारती, भवानीप्रसाद मिश्र, रघुवीर सहाय और दुष्यंत कुमार ने सत्ता के चरित्र को हमेशा बेनकाब किया। जयप्रकाश नारायण पर भारती जी मशहूर कविता “मुनादी”, भवानी बाबू की “चार कौए उर्फ चार हौये” और दुष्यंत की ग़ज़ल जिसमें इंदिरा गांधी को गुड़िया के रूप में और जेपी को एक रोशनदान के रूप में पेश किया गया है। लेकिन जब स्पष्ट रूप से मुखर होना मुश्किल हो गया, ऐसे बोझिल राजनीतिक समय में प्रतीकों के सहारे प्रतिरोध की अभिव्यक्ति हुई, श्रीकान्त वर्मा की कविता ‘तीसरा रास्ता इसका एक बेहतरीन उदहारण है।
लेकिन ये स्वर ना कभी दबा, ना ही कभी विचलित हुआ। हिंदी के लगभग सभी कवियों ने कहीं तीखे, कहीं सौम्य कहीं गीतात्मक तो कहीं छंदमुक्त तेवर में राजनीतिक, सामाजिक दमन के खिलाफ रचनाएँ लिखीं।
आज सोशल मीडिया के दौर में प्रतिरोध के स्वरों को एक नया प्लेटफार्म मिला है और परिस्थितियां भी कम विकट नहीं। एक नया वर्ग उभरा है जो ‘साहित्यकार’ नहीं है, लेकिन साहित्य की रचना कर रहा है – अन्याय, शोषण और मुश्किल हालात के खिलाफ। ऐसे समय में प्रतिरोध पर लिखी चुनिन्दा कविताओं का यह संकलन स्वागतयोग्य है :
“सड़ी व्यवस्था के विद्रोह के लिए/ मैं ललकार रहा हूँ उस सोयी जनता को,/ जिसको नेता लूट रहे हैं, कह कर, ताको/ मत, हम तो हैं ही, अत्यधिक विमोह के लिए।” (त्रिलोचन)
किताब में कुंवर नारायण की प्रसिद्ध कविता “अयोध्या 1992” भी शामिल है जिसमें साम्प्रदायिक चुनावी राजनीति और राम मंदिर आंदोलन के जरिये सत्ता पर कब्जा करने की रणनीति का पर्दाफाश किया गया है। कवि के शब्दों में “अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं, योद्धाओं की लंका है।” कवि यह भी कहता है “इससे बड़ा और क्या हो सकता है/ हमारा दुर्भाग्य/ एक विवादित स्थल में सिमट कर/ रह गया तुम्हारा साम्राज्य।”
इस साम्प्रदायिक राजनीति ने जब गुजरात में खूनखराबा किया तो मंगलेश डबराल ने बहुत मार्मिक कविता “गुजरात के मृतक का बयान” लिखी जो इस समग्रह में संकलित की गयी है। इस कविता में कवि एक मृतक के हवाले से क्रूर सच्चाई को व्यक्त कर रहा है क्योंकि उसकी आवाज इस व्यवस्था में अनसुनी की जा रही है। आज तक उन मृतकों के परिजनों को न्याय नहीं मिला।
संकलन की अंतिम कविता गोरख पांडेय की है जिसमें यह भी कहा गया है कि लोगों को डरानेवाली सत्ता खुद बहुत डरपोक होती है। कवि कहता है-
“वे डरते हैं
कि एक दिन
निहत्थे और गरीब लोग
उनसे डरना
बंद कर देंगे।”
इस तरह यह संकलन इस बात की तस्दीक करता है कि हिंदी साहित्य में प्रतिरोध की लंबी परम्परा रही है चाहे वह अंग्रेजों का जमाना हो या नेहरू युग या इंदिरा युग या मोदी युग। आज इस परम्परा को और मजबूत बनाने की जरूरत है।