सरोकारी नागरिकों को तीन मोर्चों पर काम करना होगा – योगेन्द्र यादव

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विपक्ष कहाँ है
? या फिर, इससे भी अहम सवाल ये कि असल विपक्ष है कौन? अगर ये सवाल हम साल की इस समाप्ति के वक्त भी पूछ रहे हैं जब विपक्षी राजनीति के हाथ आशाओं के दो-दो दीप जगमगा रहे हैं—पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी की जबर्दस्त हार  हुई और फिर किसान आंदोलन के आगे नरेन्द्र मोदी सरकार ने एकदम से घुटने टेक दिये— तो फिर समझना चाहिए कि विपक्ष की हमारी समझ और अमल में कोई भारी खोट है। विपक्ष की राजनीति अपना सुधार आप कर लेगी—हम न तो ये उम्मीद बाँध सकते हैं और न ही ऐसा होने की उम्मीद में इंतजार में बैठे रह सकते हैं। नागरिकों को आगे आना ही होगा, उन्हें अभी के अभी इस परिदृश्य में हस्तक्षेप करना होगा।

एक कारगर विपक्ष हो, ऐसी जरूरत जैसी अब के वक्त में है वैसी अब से पहले कभी न थी। शायद ही कोई हफ्ता बीतता हो जब मोदी सरकार अपने आगे बढ़ते जाने के क्रम में लोकतंत्र की बुनियादी संस्थाओं (संसद और चुनाव आयोग) पर कुठाराघात न करती हो, राजनीतिक मान-मर्यादाओं की धज्जियाँ न उड़ाती हो (मिसाल के लिए अजय मिश्र टेनी को कैबिनेट मंत्री बनाये रखना) और संवैधानिक मान-मूल्यों की हेठी न करती हो (मिसाल के लिए प्रधानमंत्री का काशी कॉरीडोर का उदघाटन)। नौबत ये तक आ पहुँची है कि अब तो मौजूदा सत्तापक्ष के समर्थक तक उसके महा-झूठ से थक कर इस आस में छटपटा रहे हैं कि काश, कोई भरोसे के काबिल संदेशा सुनने का मिलता और काश कि कोई संदेशा सुनाने वाला भरोसे के काबिल भी होता।

लेकिन फिर सत्तापक्ष के महाझूठ से उकताये ऐसे लोगों को विपक्ष के भीतर भी कुछ ऐसा नजर नहीं आता जो उम्मीद जगाने लायक हो। युद्ध तो अभी देश की आत्मा को बचाने का चल रहा है लेकिन इस युद्ध की अगुवाई करने की जगह विपक्षी खेमा आपस में ही लड़ाई ठाने हुए है। जान पड़ता है तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने कांग्रेस के खिलाफ एक अघोषित युद्ध के कई मोर्चे खोल रखे हैं, मिसाल के लिए : गोवा, पूर्वोत्तर और कई अन्य राज्य। पंजाब में आम आदमी पार्टी कांग्रेस को सत्ता से हटाने में लगी है, उसके निशाने पर बीजेपी नहीं है। उत्तर प्रदेश यानी वह एकमात्र जगह जहाँ कांग्रेस में कुछ जान आयी है, वहाँ यह समाजवादी पार्टी को नुकसान पहुँचा रही है। तो, अब हमारी आँखों के आगे के एक खुला खेल जारी है, इस खेल में सभी आगे बढ़कर एक से एक जतन कर रहे हैं ताकि साबित कर सकें कि बीजेपी के मुख्य प्रतिद्वन्द्वी वही हैं।

विपक्षी पार्टियों में होड़

विपक्षी खेमे की हर पार्टी को बीजेपी का मुख्य प्रतिद्वन्द्वी बनकर उभरने का हक है—बेशक ये बात अपने आप में ठीक है। अगर आपस की यह प्रतिस्पर्धा तनिक सुथरे हुए मन-मिजाज से होती है तो फिर विपक्षी खेमे की सुस्ती को एक हद तक तोड़ने का काम करेगी। साथ ही, याद रखने की एक बात यह भी है कि विपक्षी खेमे में सर्वतोभावेन एकता हो, हमें ऐसी दरकार नहीं। अपने इस कॉलम में मैं पहले लिख चुका हूँ कि अगले लोकसभा चुनाव में बीजेपी के मुकाबले के लिए सभी विपक्षी पार्टियों को एकजुट करके बनने वाला महा-गठबंधन न तो जरूरी है और न ही वांछित।

तो भी, विपक्षी खेमे में अभी जो आपस की लड़ाई ठनी है, वह खतरनाक कही जाएगी। इस लड़ाई से यही उजागर होता है कि विपक्षी खेमे के दल अपने तुच्छ स्वार्थों को भुलाकर किसी बड़े राष्ट्रीय उद्देश्य के पक्ष में एकजुट खड़े होने में अक्षम हैं और यह बात उन पार्टियों के लिए बड़े दोषों में गिनी जाएगी जिनका दावा राष्ट्र की अगुवाई करने का है। आपस की इस लड़ाई से लोगों के मन में बैठा यह भय और पुष्ट होता है कि दरअसल विपक्षी खेमा कभी एकजुट होकर चल ही नहीं सकता। विपक्षी खेमे की पार्टियों में ठनी आपसी लड़ाई और इस खेमे की किसी एक पार्टी मसलन कांग्रेस के भीतर चल रही आपसी उठा-पटक से यह धारणा बलवती होती है कि भले ही मोदी सरकार ताबड़तोड़ गलतियाँ करती जा रही हो लेकिन विपक्षी खेमा उसकी इन गलतियों का फायदा उठाने के नाकाबिल है।

ज्यादा तकलीफदेह बात ये है कि इन हालात के जल्दी बेहतर होने के संकेत नहीं हैं। विपक्षी खेमे के भीतर ठनी आपस की लड़ाई न तो जल्दी खत्म होनेवाली है और न ही इस लड़ाई का समापन किसी निर्णायक मोड़ पर होने जा रहा है। आपसी लड़ाई के ये किरदार और उनका आपसी बैरभाव आगे भी बने रहना है। सीधे-सीधे कहें तो विपक्षी खेमे में ऐसा कोई नेता नहीं है जो सियासी रंगमंच की बड़ी तस्वीर देख और दिखा सके तथा पार्टीबंदी से ऊपर उठकर विपक्षी खेमे के दलों को रणनीतिक या फिर नैतिक दिशा-निर्देश दे सके। अगर 2019 की हार से विपक्ष ने सबक नहीं लिया तो फिर उसे सबक सीखने के लिए और किस चीज की दरकरार है? बड़ी संभावना यही दिखती है कि विपक्षी खेमे का राजनीतिक मैदान अभी ही तरह खस्ताहाल रहेगा, आपस के भ्रम और असमंजस बने रहेंगे, एक-दूसरे को लँगड़ी मारने और पटखनी देने के खेल उनके बीच चलते रहेंगे, आपस की कटुता भी बनी रहेगी और आपसी तकरार भी। बीजेपी को इसी बात की उम्मीद होगी और बीजेपी इस सोच के साथ योजना बनाएगी।

नागरिकों का आंदोलन

विपक्षी खेमे की राजनीति के इस ठहराव से निकलने का एक रास्ता हो सकता है। जिन नागरिकों के भीतर संवैधानिक मान-मूल्यों का अलख जग रहा है और जो इन मान-मूल्यों को बचाने के लिए कुछ कीमत चुकाने को तैयार हैं, मगर मुख्यधारा के किसी भी विपक्षी दल से नहीं जुड़े—ऐसे नागरिकों को आगे आना होगा। ऐसे नागरिक अपने संकल्प के प्रति जिस हद तक निष्ठावान रहते और किसी किस्म के पक्षपाती हस्तक्षेप से अपने को दूर रखते हैं, उस हद तक वे विपक्षी खेमे को आगे की राह दिखा पाएंगे और उसकी खोयी हुई आभा लौटा पाने में मददगार साबित होंगे। विपक्षी खेमे को अभी इसी की जरूरत है। सरोकारी, प्रतिबद्ध और भरोसेमंद नागरिकों का ऐसा समूह किसी चुंबक की तरह काम कर सकता है, कई बिखरे हुए ऊर्जा-कणों को एक में बाँध सकता है और एक स्पष्ट राह दिखा सकता है।

साथ ही साथ नागरिकों के ऐसे समूह को तीन मोर्चों पर काम करना होगा। पहला और सबसे जरूरी मोर्चा विचारों के रणक्षेत्र का है। इसमें इस समूह को तात्कालिक, मध्यकालिक और दीर्घकालिक स्तर पर जूझना होगा ताकि भारत के स्वधर्म में विश्वास रखनेवाले लोगों का एक भरा-पूरा समुदाय बनाया जा सके। मुख्यधारा के विपक्षी दलों के पास विचारों के मैदान की इस जरूरी लड़ाई के लायक कूवत शेष नहीं। इसके लिए जरूरी होगा कला, अकादमिक जगत, जनसंवाद के मीडिया और सोशल मीडिया के मोर्चे पर सक्रिय होना।

मौजूदा शासक-वर्ग की सियासी सरपरस्ती, धनबल और मीडिया पर नियंत्रण को देखते हुए ये काम बहुत कठिन जान पड़ सकता है। फिर भी, हमें ये बात नहीं भूलनी चाहिए कि वर्चस्वपरक सत्ता के प्रतिरोध के सांस्कृतिक संसाधन अभी कम नहीं पड़े। हमारे पास अभी अपनी सभ्यता की सबसे ताकतवर ऊर्जा-धारा, हमारे स्वतंत्रता संग्राम की समृद्ध विरासत और संविधान की हमारी पोथी मौजूद है। सर्वाधिक रचनात्मक मन-मानस के ऐसे अनेक लोग मौजूद हैं जिन्होंने वर्चस्वपरक सत्ता के आगे घुटने टेकने से इनकार कर दिया है। खास जरूरत एक ऐसी भाषा को गढ़ने की है जिसके सहारे अपने संवैधानिक मूल्यों की हिफाजत की जा सके, ऐसी भाषा को देशभाषा के अनुकूल बनाकर सृजनात्मक संवाद में जुटा जा सके और इसी क्रम में ‘ट्रुथ-आर्मी’ बनाने की जरूरत है जो कि ‘ट्रोल-आर्मी’ से लड़ सके।

दूसरा मोर्चा है आंदोलनों, धरना-प्रदर्शनों और संघर्षों को धार देने और मजबूत बनाने का। यही वह क्षेत्र है जहाँ मौजूदा सत्ता-तंत्र ने मुँह की खायी है, चाहे वह भूमि-अधिग्रहण अध्यादेश का मामला हो या फिर समान नागरिकता का आंदोलन अथवा किसान-आंदोलन। प्रतिरोध की राजनीति के लिए जिस नवीन ऊर्जा की जरुरत है, आंदोलनधर्मी यह मोर्चा उसका सबसे बड़ा भंडार है।

नागरिकों का समूह इस क्षेत्र में हस्तक्षेप करते हुए उन जारी आंदोलनों की पहचान कर सकता है और उनके बीच रिश्ते बना सकता है जो अभी राष्ट्रीय मन-मानस के केंद्र में प्रतिष्ठित होने से रह गये हैं। इस मोर्चे पर चुनौती विभिन्न आंदोलनों के बीच एका कायम करने या फिर लोगों की जिन्दगी को प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित कर रहे अभी के वक्त के कुछ सर्वाधिक जरूरी मुद्दों पर नये आंदोलन खड़ा करने की है। मिसाल के लिए, बढ़ती जा रही विकराल बेरोजगारी तथा आजीविका की हानि के मुद्दे को अब राष्ट्रीय स्तर पर आवाज और शक्ल देने का वक्त है।

आखिरी मोर्चा चुनावी मुकाबले का है जहाँ सारे प्रयासों की परिणति होनी है और मुख्य रूप से यह मोर्चा 2024 के लोकसभा चुनाव का है। बीजेपी जितना मजबूत जान पड़ती है उतनी मजबूत है नहीं। और, बीजेपी अपराजेय भी नहीं है। इस मोर्चे पर विपक्ष दलों की एकता से ज्यादा जरूरी है विपक्षी खेमे के बीच आपसी समन्वय और उद्देश्यों की एकता। इस मामले में नागरिकों का समूह विपक्षी खेमे का मददगार हो सकता है, वह मौजूदा राजनीतिक दलों के भीतर और बाहर की अनेक ऊर्जा-धाराओं को एकजुट-एकसाथ कर सकता है।

नागरिकों का समूह विपक्षी खेमे के लिए एक सुसंगत एजेंडा और रणनीति गढ़ सकता है—ऐसा एजेंडा और ऐसी रणनीति जो किसी दल या नेता के संकीर्ण हित से बाधित न हो। हाँ, ऐसे एजेंडे और रणनीति को गढ़ने के लिए विपक्षी दलों के अंदरूनी तनाव और विरोधाभास से अपने को तटस्थ रखना होगा। इन तमाम चीजों के सहारे विपक्ष को लेकर हमारी मौजूदा धारणा का विस्तार संभव है। इन चीजों के सहारे हम सिर्फ विपक्ष की नहीं बल्कि एक प्रतिपक्ष की धारणा बना पाएंगे—एक ऐसे प्रतिपक्ष की जिसके पास उम्मीद जगाने की कूवत और देने को टिकाऊ विकल्प है।

साल 2021 की समाप्ति हमें याद दिला रही है कि अब भारत नाम के गणतंत्र पर अपना दावा फिर से ठोकने के वक्त के आने में बस दो साल शेष रह गये हैं। इतिहास के इस मोड़ पर ‘विपक्ष’ का सवाल एक संगीन सवाल है, इतना संगीन कि उसे सिर्फ मौजूदा विपक्षी दलों के नेताओं के जिम्मे नहीं छोड़ा जा सकता।

(द प्रिंट से साभार)

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