गांधी के विरोधी : तीसरी किस्त

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नारायण देसाई (24 दिसंबर 1924 – 15 मार्च 2015)


— नारायण देसाई —

जो लोग गांधीजी का विरोध करते थे या जो शायद उन्हें अपना शत्रु भी मानते रहे होंगे उनके प्रति गांधीजी का रुख संक्षेप में इस प्रकार था। सबसे पहले तो गांधीजी यह समझने का प्रयत्न करते थे कि विरोध का कारण क्या है? विरोध गलतफहमी के कारण हो सकता है, हित-विरोध के कारण हो सकता है, पूर्वग्रह के कारण हो सकता है, व्यक्तिगत राग-द्वेष के कारण हो सकता है। इन और ऐसे अन्य कारणों के पीछे कुछ दूसरे कारण भी रहे हो सकते हैं। ये विरोध और इनके पीछे के मूल कारण समझ में आते तो गांधीजी उन्हें दूर करने की पहल करते थे। वह विरोधी पक्ष का दृष्टिकोण उसकी दृष्टि से समझने का प्रयास करते थे। विरोधी पक्ष का दृष्टिकोण यथासंभव अधिक सहानुभूति से समझना और अपना दृष्टिकोण कुछ छिपा रखे बिना समझाना, यह दोहरी प्रक्रिया सत्य और अहिंसा को लेकर गांधीजी की निष्ठा की बदौलत विकसित हुई थी। इसीलिए बहुत बार यह होता था कि गांधीजी से मतभेद रखनेवाले यह अनुभव करते कि गांधीजी उनकी बात को खुद उनसे कहीं बेहतर समझते हैं या समझा सकते हैं।

विरोधी पक्ष की बात समझने के लिए गांधीजी बहुत बार इस हद तक जाने का प्रयास करते थे कि उसे लगभग परकाया प्रवेश कहा जा सकता है। 1932 में जब उन्होंने यरवदा जेल में ब्रिटिश प्रधानमंत्री रामसे मैकडोनाल्ड के कम्युनल अवार्ड के फैसले के खिलाफ आमरण अनशन किया तब डॉ. भीमराव आंबेडकर से हुए मतभेदों को समझने के लिए गांधीजी ने ऐसे ही प्रयास किये थे।

बाबासाहब आंबेडकर ने जब चर्चा के आरंभ में यह कहा किइस फैसले से हमें जो लाभ मिला है उसे छोड़ने को आप कहते हैं, तो उसके बदले में क्या और कितना देने को तैयार हैं, यह समझने के लिए आया हूं। इस बात में निहित साफगोई की गांधीजी ने कद्र की थी।

कोई राजनीतिज्ञ अपनी बात गोल-गोल घुमाकर रखे, इसके बजाय गांधीजी की सत्यनिष्ठा को डॉ. आंबेडकर का दो टूक कहना ज्यादा ठीक लगा था। गांधीजी ने उन्हें अपनी भूमिका समझाते हुए कहा था किआप जन्म से अस्पृश्य होंगे, मैं अपनी पसंद से अपने को अस्पृश्य मानता हूं। इस भूमिका के कारण जब सवर्ण हिंदू नेताओं ने अस्पृश्यों के लिए विधायिका में कुछ सीटें आरक्षित करने की बात कही, तब डॉ. आंबेडर को जितने से संतोष होता उससे कहीं ज्यादा सीटें आरक्षित रखने का आग्रह गांधी ने किया था। लेकिन संवैधानिक प्रावधान के संबंध में जनमत जानने का अंतराल लंबा रखने के लिए गांधीजी तैयार नहीं थे। यह अंतराल पाँच साल के बजाय दस साल का रखा जाय तो उसका अर्थ यह हुआ कि दलित मन में अविश्वास रखते हैं और इसलिए लंबे अंतराल पर जनमत की बात करते हैं। गांधीजी का आग्रह था कि दलित इस बात को सवर्णों की लाज पर छोड़ दें। गांधीजी जिस तरह विरोधी पक्ष पर पूरा भरोसा रखते थे उसी तरह यह भी आशा करते थे कि दलित भी सवर्णों पर भरोसा रखें।

परस्पर विश्वास की भूमिका बनाकर गांधीजी समझौता वार्ता आगे चलाते थे। गांधीजी आमतौर पर सबके साथ, लेकिन विरोधियों के साथ तो प्रयत्नपूर्वक उनके गुण खोजकर उन गुणों की मार्फत उनके हृदय में प्रवेश करने की कोशिश करते थे। विनोबाजी इस प्रक्रिया को एक रूपक के द्वारा समझाते हैं। वह कहते हैं कि इंसान का व्यक्तित्व एक मकान जैसा होता है। उसके सद्गुण इस मकान के द्वार हैं। अगर हम किसी के घर में उसके दरवाजे से होकर प्रवेश करते हैं तो तुरंत उसके आतिथ्य का लाभ हमें मिलता है। लेकिन आप दीवार से होकर उसके घर में प्रवेश करने की कोशिश करेंगे तो आपका सिर भी फूटेगा और आप चोर भी माने जाएंगे। इसी तरह अगर विरोधी पक्ष के सद्गुणों को देखकर आप उसके हृदय में प्रवेश करने का प्रयत्न करें तो इससे परस्पर विश्वास और सद्भावना का सेतु बनता है और हृदय परिवर्तन की प्रक्रिया का शुभारंभ होता है।

एक या एक से ज्यादा लोगों से बने प्रतिपक्ष के हृदय में प्रवेश करने का गांधीजी का मार्ग सेवा का था। प्रतिपक्षी व्यक्ति या वर्ग किसी मुश्किल में पड़ जाए तो उसकी सेवा करने का कोई भी मौका गांधीजी छोड़ते नहीं थे। जोहानिसबर्ग में प्लेग का प्रकोप होने की स्थिति देखकर गांधीजी ने अखबार में इस बारे में चर्चा करके लोगों को सचेत करने का प्रयास किया। पर इससे म्युनिसपालिटी को अपनी किरकिरी होती लग रही थी। इसलिए उसने गांधीजी की चेतावनी को निराधार करार दिया। लेकिन जब प्लेग के शुरुआती लक्षण कुछ खनिकों की बस्ती में दिखे तब गांधीजी तुरंत एक सेवा-टुकड़ी खड़ी करके सेवा के काम में कूद पड़े। इस काम के कारण सेवा-टुकड़ी गठित करनेवाले हिंदुस्तानियों की इज्जत बढ़ी और कुछ गोरे भी गांधीजी के प्रशंसक हो गये। दक्षिण अफ्रीका में मि. पोलाक और मि. वेस्ट लंबे समय तक गांधीजी के विश्वस्त साथी रहे, दोनों का साथ गांधीजी की सेवा-प्रवृत्ति का सुपरिणाम था।

इससे भी बड़ा उदाहरण वह है जब दक्षिण अफ्रीका में बोअर और युद्ध और जुलू विद्रोह के समय गांधीजी ने घायलों की सेवा के लिए स्ट्रेचर उठानेवाली टुकड़ी खड़ी की थी। गांधीजी के नेतृत्व में उस समय अनेक हिंदुस्तानियों ने युद्धक्षेत्र के बीच में जाकर बहुमूल्य सेवाएँ दीं। एक समय गांधीजी के घोर विरोधी रहे कुछ गोरों ने इस बाबत उनकी प्रशंसा की थी।

भारत में गांधीजी ने ऐसे बहुत-से लोगों को उनकी बीमारी के समय अपने आश्रम में बुलाकर निजी तौर पर उनका खयाल रखा और उनकी सेवा की, जो उनसे मतभेद रखते थे। खासकर राजनीति के क्षेत्र में विरोधियों के साथ गांधीजी का बर्ताव बहुत बार लंबे समय की तपस्या की माँग करता था। कभी-कभी गलतफहमी भी हो जाती थी, और यह नहीं कहा जा सकता कि गांधीजी हमेशा अपने प्रयास में सफल ही होते थे। गांधीजी की अहिंसा विरोधी के साथ बर्ताव का कोई दूसरा ढंग जानती ही नहीं थी।

डॉ. आंबेडकर के साथ की कुछ बातें हम ऊपर देख गये। पूना करार के बाद भी गांधीजी और डॉ. आंबेडकर के बीच पूरा सामंजस्य कायम हो गया था, यह नहीं कहा जा सकता। गांधीजी कांग्रेस का नेतृत्व करनेवाले एक मुख्य व्यक्ति थे और आंबेडकर का संघर्ष संगठनात्मक रूप से कांग्रेस के साथ था, इसलिए वह झगड़ा कभी-कभार सतह पर उभर आता था। लेकिन बहुत सारी बातों में मतभेद या विरोध होते हुए भी गांधीजी, डॉ. आंबेडकर के गुणों को जानते थे। जब उन्होंने हरिजन पत्र निकाले तब डॉ. आंबेडकर को उसके पहले अंक के लिए संदेश देने को कहा।संदेश देने की धृष्टता तो नहीं कर सकते, यह जताते हुए आंबेडकर ने गांधीजी के आग्रहवश एक टिप्पणी भेजी और उस टिप्पणी में गांधीजी के साथ अपने मतभेद साफतौर पर बताये। गांधीजी ने उस टिप्पणी को हरिजन में हूबहू छापा। बाद के वर्षों में भी गांधीजी और डॉ. आंबेडकर के सोचने और करने के ढंग में जो फर्क था वह जब-तब दोनों के लेखन और भाषणों में जाहिर होता रहता था।

स्वतंत्र भारत का पहला मंत्रिमंडल बनना था तब पंडित नेहरू ने खुद की पसंद से एक सूची गांधीजी को भेजी थी। गांधीजी ने उस सूची में दो व्यक्तियों के नाम शामिल कराये। उनमें एक नाम डॉ. आंबेडकर का था। पंडित नेहरू ने जब यह कहा कि वह तो सतत कांग्रेस के विरोधी रहे हैं, तब गांधीजी ने उनसे दो टूक पूछा था कि आपको कांग्रेस का मंत्रिमंडल बनाना है या राष्ट्र का? इसी तरह जब संविधान सभा की शुरुआती बैठकें चल रही थीं, तब एक बार सरोजिनी देवी और जवाहरलालजी ने बातों-बातों में कहा था कि वे लोग संविधान के बारे में सलाह देने के लिए एक विदेशी संविधान विशेषज्ञ को रखने पर विचार कर रहे हैं।

तब गांधीजी ने पूछा था कि विदेशी विशेषज्ञ क्यों? देशी विशेषज्ञ क्यों नहीं?पंडितजी ने पूछा कि ऐसा कौन है? तब गांधीजी ने फौरन कहा था कि डॉ. आंबेडकर। अन्य किसी विशेषज्ञ जितने ही वह संविधान के अच्छे जानकार थे और गांधीजी की सलाह के फलस्वरूप हमारे देश को उसका संविधान बनाने में डॉ. आंबेडकर की विशेष सेवा का लाभ मिला था।

(जारी)

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