— प्रोफ़ेसर राजकुमार जैन —
(दूसरी किस्त)
सुभाष बाबू के हरिपुरा कांग्रेस अध्यक्षकाल में वामपंथी और दक्षिणपंथी खेमे में मतभेद बढ़ गये थे। सोशलिस्ट वामपंथी खेमे के माने जाते थे तथा गाँधीजी का दक्षिणपंथी खेमे को वरदहस्त था, ऐसा विश्वास सुभाष और वामपंथी खेमे को था। कांग्रेस ने बड़े उत्साह से प्रांतों में चुनाव लड़ा। चुनाव प्रचार के लिए 1936 में एक पार्लियामेंट्री कमेटी बनायी गयी जिसके सात सदस्य थे जिनमें एक आचार्य नरेन्द्रदेव भी थे।
चुनावों में कांग्रेस को भारी सफलता मिली। 7 जुलाई, 1937 को सात प्रांतों – बम्बई, मद्रास, संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश), बिहार, मध्य प्रांत और उड़ीसा प्रमुख थे- में कांग्रेस ने अपनी सरकार बना ली।
सरकारें ज़रूर कांग्रेसी थीं, परंतु संवैधानिक रूप से वास्तविक शक्ति भारत सचिव, गर्वनर जनरल और गर्वनरों के हाथ में थी। जिसके कारण प्रांतीय सरकारों के अधिकार बहुत सीमित थे। इसका दूसरा एक बड़ा कारण मंत्रियों के सचिव भारतीय सिविल सेवा के सदस्य थे, वे योग्य तथा अनुभवी प्रशासक थे। परंतु उनको लोकतांत्रिक परंपराओं की आदत नहीं थी। भारतीय सिविल सेवा के अधिकांश उच्च व पुलिस कर्मचारी यूरोपियन थे। उनके लिए भारतीयों के नीचे काम करना आसान नहीं था। फिर उनपर मंत्रियों का पूरा नियंत्रण भी नहीं था। उनकी नियुक्ति, पदोन्नति, बर्खास्तगी आदि भारत सचिव के हाथ में थी। मंत्रियों के पास न कोष था और न अधिकार। गर्वनर कांग्रेसी सरकारों के कामों में अड़ंगा लगाते थे। टकराव की स्थिति उत्पन्न हो गयी थी।
जयप्रकाश नारायण ने मार्च 1937 में दिल्ली में हुए अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन में कांग्रेसी मंत्रिमंडलों के संबंध में जो आशंका व्यक्त की थी, वह दिखायी देने लगी।
सोशलिस्ट नेता एम.आर. मसानी ने व्यंग्यात्मक रूप से कांग्रेस पर निशाना साधते हुए 13 मार्च, 1937 को ‘नो जैन्टलमैन एग्रीमेंट’ (कांग्रेस सोशलिस्ट) में लिखा कि जिस कांग्रेस को जनता ने अपना समर्थन इस बात के लिए दिया था कि वे अंग्रेजों के इस संविधान को खत्म करेंगे, परंतु अब उनके द्वारा ‘हिज मैजेस्टी’ ‘दि किंग ऐम्पपर’ द्वारा निर्धारित विषयों पर वफादारी की शपथ लेकर कार्य करने को कहा गया है। बहुत जल्दी ही यह स्पष्ट हो गया कि विदेशी शासन द्वारा दी गयी सीमित शक्ति भी कार्य नहीं कर पा रही थी। बिहार, यूपी की कांग्रेसी सरकारों में अंग्रेज़ गर्वनर द्वारा दैनिक कार्यों में भी हस्तक्षेप किया जा रहा था।
प्रांतों में कांग्रेस सरकारों के बजट में सोशलिस्ट, किसानों और मज़दूरों के लिए अधिक से अधिक राहत चाहते थे। हालाँकि ये सरकारें कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की माँगों का सिद्धांतत: विरोध नहीं करती थीं, परंतु वे व्यवहार में किसानों को राहत देने को तैयार नहीं थीं। जबकि बड़े जमींदारों को कई बार नियम से बाहर भी सुविधाएँ इनके द्वारा प्रदान की गयीं। जिसका सोशलिस्टों ने कड़ा विरोध किया। प्रांतों में बनी कांग्रेसी सरकारों के साथ किसान सभाओं के संघर्ष का एक मुद्दा सोशलिस्टों बनाम सरकारपरस्त गांधीवादियों के मध्य बन गया।
15 मई 1936 को मेरठ में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के अखिल भारतीय सम्मेलन में किसान संगठनों की एक बैठक बुलायी गयी जिसमें ‘अखिल भारतीय किसान कांग्रेस’ नाम के संगठन की स्थापना की गयी तथा इसके अखिल भारतीय सम्मेलन के लिए तैयारी समिति बनायी गयी। जयप्रकाश नारायण एवं प्रो. एन.जी. रंगा को कार्यवाहक संयुक्त सचिव बनाकर विभिन्न प्रांतों का दौरा कर संगठन बनाने का निश्चय किया गया। इसके बाद 11 अप्रैल 1936 को लखनऊ तथा फैजपुर में भी आयोजन हुआ। 4 अप्रैल 1939 को गया में आचार्य नरेन्द्रदेव को किसान सभा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया। उन्होंने किसानों के लिए कार्यक्रम की एक योजना बनायी जो इस प्रकार थी :
1. किसानों को शिक्षित करने के उद्देश्य से समाजवाद की भावना को जगाना और सहकारी संस्थाओं के माध्यम से उनको जागरूक करना।
2. सहकारी संस्थाओं के द्वारा उत्पादन और उनका खपत के अनुसार बिना मूल्य के वितरण।
3. काश्तकार एवं सरकार के मध्य बिचौलिये की समाप्ति।
4. भ्रष्ट पुलिस तंत्र की समाप्ति।
5. सिविल एवं आपराधिक मामले में सस्ती न्याय व्यवस्था।
किसान आंदोलन के बढ़ते प्रभाव से कांग्रेस का सरकारपरस्त खेमा शंकित हो उठा, उन्हें लगा कि कहीं सोशलिस्ट इसको हथिया न लें तथा ये लोग जमींदारों के हितों के विरुद्ध माँग करेंगे जिसको मानना कांग्रेस के लिए संभव नहीं होगा। इस समस्या से निपटने के लिए कांग्रेस द्वारा 1936 में ‘मास कोन्टेक्ट कमेटी’ की स्थापना लखनऊ में की गयी जो किसानों और मज़दूरों को कांग्रेस संगठन में लाने का कार्य करेगी।
बिहार में कांग्रेस सरकार ने ‘टेनेन्सी बिल’ पेश किया परंतु बड़े जमींदारों के विरोध के कारण वह ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया, किसानों ने उसके विरुद्ध ‘डंडा’ आंदोलन चलाया। आंदोलन को किसानों ने गाँधीजी के अहिंसात्मक सिद्धांत के अनुसार कहा था, परंतु गाँधीजी ने इसको स्वीकार नहीं किया। बिहार सरकार ने आंदोलनकारी किसानों के विरुद्ध कार्रवाई करने का निर्णय ले लिया।
कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने इस पर घोर आपत्ति की। जयप्रकाश नारायण ने कहा : ‘‘अगर कांग्रेस प्रशासन इतना नासमझ है कि वह अनुशासनात्मक कार्रवाई करेंगे तो किसान सभाई कांग्रेस से अपने संबंध तोड़ लेंगे। जैसा कि पूर्व में लोकमान्य तिलक ने किया था।’’
कांग्रेस कार्यसमिति ने बिहार कांग्रेस कमेटी के निर्णय पर अपनी मोहर लगा दी। सोशलिस्टों ने आरोप लगाया कि यह बड़े जमींदारों के दबाव में किया गया है। कांग्रेस के किसान विरोधी रवैये से सोशलिस्ट कांग्रेस का विभाजन तक करने की सोचने लगे थे।
जयप्रकाश नारायण ने कहा कि अगर दक्षिणपंथी कांग्रेस पर एकाधिकार करने में सफल हो जाते हैं तो हमें एक अलग कांग्रेस का आयोजन करना पड़ेगा जो कि आम जनता के राजनैतिक और आर्थिक संघर्षों को उठाएगी। सुभाष बोस जो कि एक वामपंथी थे तब तक कांग्रेस के अध्यक्ष बन गये थे। उनका समर्थन भी किसान आंदोलन को मिल गया था।
सोशलिस्टों का विश्वास था कि पार्टी का सामाजिक आधार व्यापक बनाने के लिए मज़दूरों और किसानों को एकत्र करना चाहिए। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का विचार था कि औद्योगिक मज़दूरों के साथ कांग्रेस के उपेक्षापूर्वक व्यवहार ने उन्हें कांग्रेस के आंदोलन के प्रति निष्क्रिय एवं विरोधी बना दिया है।
मज़दूरों के मामले में भी कांग्रेस और सोशलिस्टों के बीच टकराव था। अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस में धीरे-धीरे सोशलिस्टों का प्रभाव बढ़ता जा रहा था जिसके कारण दक्षिणपंथी पुराने कांग्रेसियों को एक-एक करके संगठन से बाहर किया जा रहा था। मज़दूरों की माँगों का सोशलिस्टों ने वर्ग-संघर्ष के रूप में इस्तेमाल किया।
फिर पश्चिमी भारत में ‘नेशनल फैडरेशन आफ ट्रेड यूनियन’ नामक एक और संगठन बन गया। अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस को लगा कि इससे तो उसके कार्यों में बाधा पैदा होगी, हालाँकि बाद में दोनों का विलय हो गया। अब उसका नाम ‘ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस’ हो गया। अप्रैल 1938 के लाहौर कां.सो.पा. के सम्मेलन में दोनों संगठनों के एक होने का स्वागत किया गया।
इसी अवधि में एक और विवाद कांग्रेस और सोशलिस्टों के मध्य उठ गया। जो कि राजनैतिक बंदियों की रिहाई के संबंध में था। सोशलिस्ट आंदोलन करके बंदियों की रिहाई तत्काल चाहते थे। जबकि कांग्रेस सरकार से बातचीत करके, समस्या का समाधान ढूँढ़ रही थी, जिसमें समय लग रहा था।
सोशलिस्ट सरकार से समझौते के कटु आलोचक थे। सोशलिस्टों के दबाव के कारण आखि़र में 1938 में बिहार और यूनाइटेड प्रोविंस में कांग्रेसी मंत्रिमंडल ने इस्तीफा दे दिया तथा राजनैतिक बंदियों की रिहाई हो गयी। कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष बोस ने इस निर्णय की पुष्टि कर दी। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने जो शंका व्यक्त की थी वह सच साबित हुई।
सोशलिस्टों के विचारों और क्रियाकलापों को सुभाष बाबू का समर्थन निरंतर मिल रहा था जिसके कारण सरकारपरस्त खेमा कां.सो.पा. तथा सुभाष दोनों से नाराजगी प्रकट कर रहा था।
ए.आई.सी.सी. के सितंबर 1938 के दिल्ली के सम्मेलन में सरकारपरस्तों द्वारा एक प्रस्ताव ‘सिविल लिबर्टी’ के नाम से प्रस्तुत किया गया जिसमें वामपंथियों विशेषकर सोशलिस्टों पर आरोप लगाया गया कि ये लोग वर्ग संघर्ष के नाम पर हत्या, आगजनी, लूट के हिंसक कार्यों की वक़ालत कर रहे है। तथा प्रस्ताव में चेतावनी दी गयी कि कांग्रेस सरकारें जनता के जीवन और संपत्ति की रक्षा के लिए कड़े क़दम उठायें। सरकारपरस्तों के इस रुख पर कटु बहस शुरू हो गयी। आचार्य नरेन्द्रदेव के नेतृत्व में 60 सदस्यों ने ए.आई.सी.सी. के सम्मेलन से वाकआउट कर दिया। गाँधीजी भी सोशलिस्टो से रुष्ट हो गये, उन्होंने हरिजन में लिखा “जिन लोगों का कांग्रेस के सच्चाई, अहिंसा तथा रचनात्मक प्रोग्रामों में हृदय से पूर्ण विश्वास नहीं है वे कांग्रेस छोड़ दें।”
(जारी)
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस आजादी की लड़ाई के महानायकों में एक थे। उनकी जयंती के अवसर पर ‘समता मार्ग’ पर छपा प्रोफेसर राजकुमार जैन का लेख महत्त्वपूर्ण है। प्रोफेसर जैन इतिहास के जानकार तो हैं ही, समाजवादी आंदोलन से उनका पुराना और गहरा नाता रहा है। इसलिए स्वाभाविक ही उनके लेख से जहां उस दौर के इतिहास के बारे में जानकारी और समझ बढ़ती है, वहीं यह भी पता चलता है कि सुभाष बाबू और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं के आपसी रिश्ते कैसे थे, वे एक दूसरे के बारे में क्या सोचते थे।
दिक्कत यह है कि आज आजादी के तमाम नायकों के बारे में सुनियोजित और संगठित रूप से झूठ और भ्रम फैलाया जा रहा है। और यह वे लोग कर रहे हैं जो सावरकर के अंग्रेजों से माफी मांगने के बावजूद उन्हें वीर कहते नहीं थकते। अच्छा होगा कि प्रोफेसर राजकुमार जैन यह भी बताएं कि जब सुभाष बाबू आजाद हिन्द फौज बनाकर अंग्रेजी हुकूमत से लड़ रहे थे तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और सावरकर क्या कर रहे थे।
– राजेन्द्र राजन