‘लमही’ में प्रबोध कुमार

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— संजय गौतम —

मही हम सबके पुरखे कथाकार प्रेमचंद का गांव है। ‘लमही’ प्रेमचंद की साहित्यिक विरासत को आगे ले जाने के लिए समर्पित पत्रिका का नाम है। संपादक हैं विजय राय। इसका पिछला विशेषांक समर्पित था प्रेमचंद के पुत्र, जीवनीकार, कथाकार, अनुवादक, संपादक अमृतराय को और यह विशेषांक समर्पित हे प्रेमचंद के नाती प्रबोध कुमार को। समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में बहुतेरे लोग प्रबोध कुमार के बारे में नहीं जानते हैं। शायद इसलिए कि प्रबोध कुमार साठ के दशक में पच्‍चीस-तीस कहानियां लिखने के बाद मानव विज्ञान की शैक्षणिक दुनिया में रम गए। इस क्षेत्र में उन्होंने अध्‍ययन किये, विलक्षण शोध किये, कई देशों में अध्ययन-अध्यापन किया और अंतरराष्ट्रीय स्तर की शोध पत्रिका का प्रकाशन किया। पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला एवं सागर विश्वविद्यालय में इस विभाग को सजाने-संवारने का जिम्मा निभाया और मानव विज्ञान के क्षेत्र में विलक्षण अध्‍येताओं को शिक्षित-दीक्षित किया। साहित्‍य से जुड़ाव रहने पर भी लेखन से प्रायः विरत रहे।

सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने दूसरों के लेखन को ज्यादा बढ़ावा दिया। घर में काम करनेवाली बेबी हालदार को आत्मकथा लिखने के लिए प्रेरित किया। बांग्‍ला में लिखी आत्मकथा का अनुवाद किया और उसे रोशनाई प्रकाशन, कोलकाता से छपवाया। यह आत्मकथा बहुत चर्चित हुई और बेबी हालदार को अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा मिली। इस सिलसिले में प्रबोध कुमार की भी चर्चा हुई, लेकिन उन्होंने अपने को सदा पीछे ही रखा। इसके बाद 2010 में उनका छोटा सा उपन्यास ‘निरीहों की दुनिया’ एवं 2013 में खोज-बीन कर दस पुरानी कहानियों का संग्रह ‘सी-सॉ’ रोशनाई प्रकाशन से ही प्रकाशित हुआ। इस बीच उन्होंने तसलीमा नसरीन पर लेख लिखा, उनकी कविताओं का अनुवाद किया। कुछ समीक्षाएं लिखीं। मित्रों को पत्र लिखे। कुछ और लिखना चाहते थे, लेकिन उन्‍हें अल्जाइमर ने आ घेरा और 19 जनवरी 2021 को उन्होंने अपना शरीर त्‍याग दिया। एक अनाम सी मृत्‍यु पायी। यह विडंबना भी हमारी साहित्यिक-सामाजिक स्थिति की मार्मिक सच्चाई कह गयी।

विजय राय जी ने जब उन पर विशेषांक प्रकाशित करने का निर्णय लिया, तो चिंता इसी बात की थी कि इतनी कम सूचनाओं, इतनी कम रचनात्मक पूंजी के सहारे अंक कैसे प्रकाशित किया जाए। न प्रबोध कुमार के संपर्कियों के बारे में बहुत जानकारी थी, न उनके पारिवारिक सदस्यों के बारे में, न उनकी रचनाओं के बारे में। लेकिन एक बार जब वह दृढ़ संकल्पित होकर आगे बढ़े तो धीरे-धीरे लोग जुटते गए और सूचनाएं मिलती गयीं। उन्होंने अपने संपर्क से बहुत सी सामग्री एकत्र की और दो सौ पृष्‍ठों का संग्रहणीय अंक निकाला। इसका एक-एक पन्ना पढ़ने योग्‍य है। इन पन्नों पर प्रबोध कुमार के बनने और उनकी विलक्षणता की कथा बिखरी है। अंक को तैयार करने में कथाकार शर्मिला वोहरा ने संस्‍मरण लिखने से लेकर अनुवाद करने तक भरपूर सहयोग दिया है। संजय भारती ने अपने पास उपलब्ध महत्त्वपूर्ण सामग्री से सहयोग दिया।

इस अंक में उनके कहानी संग्रह ‘सी-सॉ’ की कमलेश द्वारा लिखित भूमिका, कृष्णा सोबती का संस्‍मरण एवं ‘आलो आंधारी’ की भूमिका के रूप में प्रसिद्ध बांग्ला लेखक शंख घोष की टिप्पणी “बेबी और तातुश के प्रति हम अपनी मुग्‍धता प्रकट करते हैं” दी गयी है। संस्‍मरण खंड में प्रयाग शुक्ल, गिरधर राठी, आग्नेय, उदयन वाजपेयी, रमेश दीक्षित, प्रभाकर सिन्‍हा, प्रभा-प्रसाद, जयावती श्रीवास्तव, अनिल राय, चित्रा श्रीवास्तव, राहुल श्रीवास्तव, शर्मिला जालान, बालेश्वर राय, डॉ. लखबीर सिंह, डॉ. वीरेंद्र पाल सिंह, माइकल सोलका प्रेजिबिलो, डॉ.पी.के.सहजपाल, डॉ. कुसुम पाल के संस्‍मरण दिये गये हैं। डॉ. योगेंद्र सैनी, डॉ. कल्पना सैनी और डॉ. राजेश गौतम से प्रबोध कुमार के बारे में डॉ. लक्ष्मी पांडेय की बातचीत की गयी है। इन संस्‍मरणों में प्रबोध कुमार की विलक्षण साहित्यिक प्रतिभा, विलक्षण शोध प्रतिभा तथा उनके बचपन से लेकर बड़े होने तक व्‍यक्तित्‍व के अनेक आयाम उजागर हुए हैं। प्रकृति और समाज से उनके आत्मीय लगाव का सघन एवं मार्मिक चित्र उभरा है। उनके साहित्यिक अवदान और महत्त्व की झलक तो मिलती ही है, उनका जीवन भी भरपूर सामने आता है। नौकरी के दौरान उनके संघर्ष तथा विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा उनके उत्पीड़न की जानकारी मिलती है। प्रबोध जी के जीवन का रेशा-रेशा हमारे सामने खुलने लगता है। लगता है कि जिन्हें हम नहीं जानते हैं, उन्हें जानना, महसूस करना कितना जरूरी है।

अंक में प्रबोध जी के उपन्‍यास ‘निरीहों की दुनिया’ का एक अंश दिया गया है। इस अंश को पढ़कर ही उपन्यास की मार्मिकता का एहसास होगा। हिंदी समाज को यह उपन्यास अवश्य ही पढ़ना चाहिए। इस उपन्यास के बारे में योगेन्‍द्र आहूजा, रणेंद्र एवं भोला प्रसाद सिंह ने विस्तार से लिखा है। इन लेखों से उपन्यास की खासियत के साथ ही इसके अर्थ की परतें खुलती हैं।

‘मानसरोवर’ में प्रबोध जी की कहानियां आखेट, क्षोभ, कबूतर, सी-सॉ, सुख दी गयी हैं। कहानियों का मूल्यांकन किया है हरिवंश राय, जयशंकर, डॉ. अंकिता तिवारी, आशीष सिंह ने। इन कहानियों को पढ़कर ही यह महसूस होगा कि साठवें दशक में वह किस तरह की भाषा का प्रयोग कर रहे थे और किन विषयों को उठा रहे थे। नहीं मालूम वे सजग ढंग से प्रेमचंद की छाया से मुक्‍त हुए थे या सहज ढंग से, लेकिन कहानी लेखन में एक बिल्कुल नयी जमीन पर खड़े होना विस्‍मय में डालता है। अंक में प्रबोध जी का लेख ‘तसलीमा नसरीन की पीड़ा’ तथा प्रबोध जी द्वारा अनूदित उनकी कविताएं प्रकाशित हैं। ‘नासिरा शर्मा का रचना संसार’ शीर्षक लेख तथा अशोक सेकसरिया के कहानी संग्रह ‘लेखकी’ एवं अलका सरावगी के उपन्‍यास ‘कलिकथा वाया बाईपास’ की समीक्षा से उनकी शैली की विलक्षणता का पता चलता है। काजी नजरुल इस्लाम पर उनका व्याख्यान, नानी अम्मा पर उनका आत्‍मीय संस्मरण दिया गया है। साठ के दशक की किताबों पर उनकी टिप्पणियों से उनके तत्कालीन तेवर का अंदाजा लगता है। उनकी अपूर्ण शोध परियोजनाओं के बारे में जानकारी दी गयी है।

अशोक सेकसरिया और शर्मिला  जालान के साथ उनकी खतो-किताबत को दिया गया है। अशोक जी के साथ उनकी मैत्री एक अलग धरातल पर थी। ऐसी आत्मीय मित्रता भी विरल ही होती है। इस तरह की मैत्री से नए-नए रचनाकारों का जन्म होता है, उनका विकास होता है। बेबी हालदार के पीछे इनकी मैत्री का योग झाँकता रहता है। इसका विस्तार से पता चलता है शर्मिला और बेबी के बीच हुई वार्ता से। शर्मिला जालान के साथ प्रबोध जी की रचनात्मक साझेदारी बनी थी। पत्रों में एक दूसरे की रचनाओं के बारे में खुलकर चर्चा हुई है। वह अपनी रचनात्मक उलझनों और दिन-प्रतिदिन की बातों को पत्र में लिखा करते थे। इन पत्रों में उनके उस दौरान के लेखन की खिड़की भी खुलती है। अर्पण कुमार ने भी उनका पुण्‍य स्‍मरण किया है।

इस अंक का जिस तरह संयोजन किया गया है और जितनी तरह की सामग्री एकत्र कर ली गयी है वह दुर्लभ है। प्रबोध जी के बेटे राहुल श्रीवास्तव, जो अब विदेश में रहते हैं, का लेख प्राप्‍त करना और उनके विदेशी मित्रों का लेख प्राप्‍त करना निश्चित ही श्रमसाध्‍य कार्य रहा होगा। परिवार के सदस्यों ने जिस आत्‍मीयता से अपने “गुड्डू” को याद किया है और उनके प्रेरक व्‍यक्तित्‍व की झांकी हिंदी समाज को सौपी है, वह अमूल्‍य थाती है। उनके अध्यापन काल के मित्रों, शिष्‍यों ने भी उनकी शैक्षणिक, शोधात्‍मक उपलब्धियों की चर्चा कर अंक को पूर्णता दी है, अन्‍यथा साहित्यिक प्रबोध कुमार के मानव विज्ञान की दुनिया में किये गये कार्यों की जानकारी से हिंदी समाज अजाना ही रह जाता। विजय राय जी के  संकल्प और श्रम से इस अंक में प्रबोध कुमार की एक मुकम्मल तस्वीर उभरी है। जीवन के विभिन्न पड़ावों के चित्रों ने अंक को जीवंत बना दिया है। जिन्होंने अब तक उनका कुछ भी नहीं पढ़ा है, वह मात्र इस अंक को ही पढ़कर एक नृतत्त्व विज्ञानी और साहित्यिक व्यक्तित्व की रचनात्मक विलक्षणता से परिचित हो सकेंगे। हिंदी साहित्य की धारा के नियामकों को अवश्‍य ही इसे पढ़ना चाहिए, संभव है उनकी बंधी-बंधायी राय में कुछ फर्क पड़े।

पत्रिका – लमही
संपादक – विजय राय
इस अंक का मूल्य- ₹100 मात्र
संपर्क- 3@ 343 विवेक खंड, गोमती नगर,
लखनऊ-226010
वेब अंक – www.notnul.com पर पढ़ा जा सकता है।

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