सितम के इस दौर में आप किसके साथ हैं

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कार्टून : शिरीष। साभार।


— रामस्वरूप मंत्री —

1977 के लोकसभा चुनाव में किसी को उम्मीद न थी कि इंदिरा कांग्रेस हारेगी। सारा मीडिया, पूँजीपति और सदैव सरकार की गोदी में खेलनेवाले कथित निष्पक्ष साहित्यकार, बुद्धिजीवी, कुलीन आभिजात्य वर्ग सब मंगलाचरण आरती उतार रहे थे और प्रतिपक्षी आंदोलन को देशद्रोही व विदेशी ताक़तों के इशारे पर शुरू किया हुआ कह रहे थे।

सत्ता बदलते ही सबसे पहले यही लोग आकर हमारे साथ चिपक गये, छुड़ाने से भी नहीं छूटते थे। अपनी औलादों को मोटरगाड़ियों समेत हमारी सेवा में लगा दिया। हम साइकिल-छापों को चलने-फिरने की वक्ती सुविधा मिल गयी थी। तब का मीडिया यानी अखबारों के संपादकगण प्रतिपक्षी नेताओं के पाँच मिनट के इंटरव्यू के लिए हमारी चिरौरी करने लग गये।

मुझे याद है कैसे एक अति धनाढ्य उद्योगपति घराने की मिठाई, मालाओं व पूरे परिवार  को मधु लिमये जी ने बुरी तरह झिड़क कर अपने वेस्टर्न कोर्ट के एक कमरे वाले निवास से यह कहते हुए निकाला था कि जैसे ही हम फिर से हटेंगे तो ये इंदिरा के दरबार में पहले से ही पहुँच जाएँगे। वही हुआ भी। राजनारायण जी के सरकारी आवास के लॉन में बिड़ला घंटों बैठे रहे थे, मध्यम दर्जे के उद्योगपतियों की कहाँ पूछ? बीजू पटनायक अपनी परिचित मजाकिया शैली में हमें सावधान करते थे- “बिवेयर बिवेयर। दीज आर ऑल टर्नकोट्स। (सावधान, सावधान। ये सभी पालाबदलू हैं।)

दरबार में मुजरा, जय-जयकार करना और डूबते को छोड़कर नये राजा के यहाँ हाजिर हो जाना यह भारतीय समाज की पुरानी रवायत रही है। कुछ भी नया नहीं है और न ही आश्चर्यचकित करता है। आप सब लोग अपने आसपास सांसदों, विधायकों, पार्षदों तक के घरों पर रोज यही दृश्य देखते होंगे।

अक्सर परिवर्तन चुपचाप आ जाता है पर आने के पहले कुछ दिन पूर्व उसकी पदचाप सुनाई देने लगती है।

परिवर्तन अच्छा है सबकी पर्दादारी उघाड़ देता है, चेहरे पर से नकाब उतार देता है और सत्ताधारियों को नंगा कर असलियत दिखा देता है।

अमरत्व किसी के पास नहीं है, न व्यक्ति के पास न दल के पास। आधी सदी तक कुरबानी देते हुए आजादी की लड़ाई लड़नेवाली कांग्रेस पचास साल सत्ता में रहकर धीरे-धीरे जब इस हाल पर आ गयी तो बाकी किस खेत की मूली हैं

जो हो रहा है वह अपेक्षित ही था, उनके लिए भले अनपेक्षित है जो विचारधाराओं की समझ नहीं रखते हैं।

देश के साथ रहिए, देशवासियों के हित के साथ खड़े होइए। सच बोलने की हिम्मत लाइए। जो ईमानदारी व मेहनत के पसीने से अपनी रोटी कमाते हैं उन मेहनतकशों के पक्ष में रहिए। देश या राष्ट्र उसके लोग होते हैं, यह सिर्फ भूमि नहीं है।

भारत के अन्नदाता किसान और जवान कभी राष्ट्र के ख़िलाफ़ नहीं सोच सकते, उनसे बड़ा कोई राष्ट्रवादी नहीं है। तमग़ा लगाकर चिल्लाकर अपने को राष्ट्रवादी कहने हम राष्ट्रवादी नहीं हो सकते। वे जब पसीने से क़ुर्बानी दे रहे होते हैं तो आप टीवी पर सास बहू देखकर उनका मजाक उड़ाते हैं।

हाँ उन समूहों में चंद लोग, बस चंद ही, भटकाये जा सकते हैं, लालच देकर भीड़ में घुसाये जा सकते हैं, पर 99.99 फीसद एकदम शुद्ध हैं। पकड़े गये देशद्रोही जासूसों की पिछले दस सालों की सूची देख लीजिए तो समझ जाएँगे कि ऐसे तत्त्व कहाँ नहीं हो सकते?

मैं हमेशा से हरेक के असंवैधानिक, हिंसक और अशांतिपूर्ण तौर-तरीकों का प्रबल विरोधी हूँ। राष्ट्रहित को पहले नंबर पर रखता हूँ, रखूँगा। राजनीति को समझता हूँ और षड्यंत्रों को भी। व्यापक राष्ट्रीय हित में जब भी बोलना जरूरी हो, बोलता हूँ।

तीनों किसान विरोधी कानूनों को वापिस लेकर सरकार ने किसान आंदोलन तो खत्म करवा दिया लेकिन किसान संगठनों से सरकार ने वादा किया था कि एमएसपी पर कमेटी बनायी जाएगी तथा आंदोलन के दौरान किसानों पर जितने भी मुकदमे लादे गए हैं वे सब वापस लिये जाएँगे, साथ ही आंदोलन में शहीद हुए किसानों की गणना कर उन्हें आर्थिक सहायता दी जाएगी। लेकिन सरकार ने भले ही तीनों कृषि  कानून वापस ले लिया लेकिन अभी वादे पूरे नहीं किये हैं, उस तरफ एक भी कदम नहीं बढ़ाया है। यह सरकार की वादाखिलाफी है। सरकार को यह नहीं सोचना चाहिए कि किसान आंदोलन खत्म हो गया है, यह दोबारा शुरू नहीं होगा। अगर सरकार किसानों से वादाखिलाफी करती रही तो ना केवल किसान बल्कि देश का हर मेहनतकश वर्ग सड़कों पर होगा और इस सरकार को जाना ही होगा।

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