आम जन के संघर्ष की ‘दुर्गम’ कहानियॉं

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— विशाख राठी —

त्विक घटक ने कहानियां भी लिखी हैं, शायद कम लोगों को यह बात पता है। सत्यजित राय फिल्मकार के अलावा कहानीकार भी थे यह काफी लोग जानते हैं। एक फिल्मकार की बात होती है, तो दूसरे की भी अक्सर होने ही लगती है। और फिर उन दोनों की कला की तुलना करना भी शुरू हो जाता है।

कौन ज्यादा यथार्थवादी था? मेलोड्रामा का उपयोग बेहतर किसने किया – बिना मेलोड्रैमेटिक हुए? किसने गरीबी का रूमानीकरण किया, और किसने उसे  बगैर ‘सजावट’ के दिखाया वगैरह। और दो गुटों में बंटे हुए लोग तो हैं ही – वो जो घटक को ज्यादा बड़ा फिल्मकार मानते हैं, और वो जो राय को।

सत्यजित राय पर यह आरोप भी लगाया जाता है कि उनके कारण घटक को उस तरह की पहचान नहीं मिली जैसी मिलनी चाहिए थी। बहरहाल, यह बहस बेमानी है – दोनों की फिल्म विधा और कला अलग थी, और दोनों ही बहुत महत्त्वपूर्ण फिल्मकार थे।

जिन्होंने राय की कहानियाँ पढ़ी हैं वो अगर घटक को पढ़ेंगे तो उनके अलग-अलग अंदाज को लेकर शायद फिर ऐसी किसी बहस में उलझ सकते हैं। सत्यजित राय की कहानियाँ जहॉं अधिक ‘लोकप्रिय’ शैली में लिखी गयी मानेंगे, वहीं घटक की कहानियों को वो शायद ‘दुर्गम’ मानें। अलग विधाओं, शैलियों की कहानियों की तुलना करना उतना ही बेमानी है जितना उनकी फिल्मों की तुलना की बहस में पड़ना।

ऋत्विक घटक की सात कहानियों का अनुवाद मेरी माँ – चन्द्रकिरण राठी, ने 80-90 के दशक में किया था, और उस वक्त वो कुछ अखबारों-पत्रिकाओं में छपी भी थीं। पिछले साल यानी 2021 में उनकी मृत्यु के दो-एक महीने बाद ही इन अनूदित कहानियों का संकलन संभावना प्रकाशन ने छापा।

संकलन में सत्यजित राय सहित ऋत्वान घटक (ऋत्विक के बेटे), सुरमा घटक (उनकी पत्नी) और वागीश्वर झा की लिखित वो भूमिका दी गयी है, जो घटक के कहानी संग्रह ‘ऋत्विक घटाकेर गल्प’ में छपी थी। घटक के यथार्थवाद और उनके साहित्य में उसके झलकने की बात उसमें कही गयी है, साथ ही यह भी कि घटक चित्रकार भी थे। ‘ऋत्विक घटाकेर गल्प’ में उनके चित्र भी छपे थे, लेकिन इस हिंदी संग्रह में वो शामिल नहीं हो पाये।

अपने समाज की सच्चाई और वस्तुस्थिति से जूझती हुई, और उसकी झलक दिखलाती हैं ये सात कहानियॉं। इनको पढ़कर इनसे प्रभावित हुए बगैर नहीं रहा जा सकता।

स्व चंद्रकिरण राठी

पहली कहानी, ‘रूपकथा’, में एक अखबार के सम्पादक मुख्य पात्र हैं, लेकिन वो अंत तक अनाम ही रहते हैं। कुल मिला के महोदय, एक ईमानदार संपादक हैं, जो अपनी नौकरी बचाये रखने के लिए (कभी-कभार) ऐसी चीजें छाप देते हैं, जो उनके मालिक के व्यापार-कारोबार के लिए फायदेमंद हों – फिर भले ही वो पत्रकारिता के उसूलों के कुछ विपरीत ही क्यों ना हों। फिर एक दिन वो अपने मालिक के कारोबार से संबंधित कुछ ऐसा छाप देते हैं, कि मालिक का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच जाता है।

आज के मीडिया के हालात से जो लोग वाकिफ़ हैं, उन्हें यह कहानी ‘समझने’ में कोई दिक्कत नहीं होगी, लेकिन जैसा रवैया संपादक बाबू, कहानी में अपने मालिक के प्रति बरतते हैं, वो चौंका जरूर देता है।  इसको एक उग्र मिजाज़ की कहानी, या दबे-गुस्से से भरी कहानी कहा जा सकता है। आप उस रवैये को सही मान के शायद मन में उसकी सफाई देंगे, या गलत मान के उस पर अफसोस करेंगे। मगर यह कहानी आपको सोचने पर मजबूर तो जरूर करेगी- और शायद उस सिलसिले में आपको अपनी ही सोच के बारे में कुछ नया जानने को भी मिल जाए।

इस मायने में, संग्रह की लगभग सभी कहानियों में एक तरह का डिस्टर्बिंग एलीमेंट जरूर है।

‘मार’ कहानी — जो बांग्लादेश के उस समय के हालात की तुलना सुभद्रा-हरण प्रकरण से जोड़कर करती है, समझने में भी कठिन है। कहानी कम, बहुत गहरी सोच में खुद से बात करते किसी लेखक की टिप्पणी ज्यादा लगती है। बात इतनी गहरी है कि कम लोग समझ पाएंगे और शायद लेखक को आत्म-ग्रस्त पाएंगे।

एक गरीब नौजवान की कहानी है ‘राजा’। किसी समय मित्र-मण्डली में खासी पैठ रखनेवाला यह नौजवान अब बिलकुल अकेला सा पड़ गया है। पुराने दोस्तों की एक मुलाकात के लिए उसे न्योता मिलता है। यह अपने आप में चौंकानेवाली बात है, क्योंकि वो एक गुमनाम जिन्दगी जी रहा है, किसी को नहीं बताता वो क्या करता है, कहाँ रहता है। उस बारिश की शाम की मुलाकात की कहानी में राजा और उसकी परिस्थितियों के बारे में और पता चलता जाता है। क्या वो हालात से ना लड़ पाने के कारण भटक गया, या उसने कभी जिन्दगी से जूझने की कोशिश ही नहीं की? क्या वो आपका दोस्त हो सकता है? या वो ऐसा है, जिससे आप थोड़ी ही देर में कन्नी काटने के उपाय खोजने लगेंगे? कहानी में यह सवाल नहीं हैं — लेकिन पढ़ते वक्त आपके मन में कुछ ऐसी दुविधाएं उठें यह लगभग लाजमी है।

‘गवाही’ प्रेम कहानी है, कुछ-कुछ ‘देवदास’ सरीखी। किसी फिल्म की पटकथा जैसी यह कहानी, घटक कैसे मेलोड्रैमेसी के साथ प्रयोग करते थे उसकी मिसाल है।

संग्रह की आखिरी कहानी ‘शिखा’ है। बचपन की स्वच्छंदता और सरलता को खोने की कहानी। बाकी कहानियों की तरह सिद्धांतों और उसूलों के प्रति एक निष्ठा रखने की उम्मीद इस कहानी में भी है। धन, वैभव, विलास इंसान को कैसे अपनी जड़ों से काट देता है – इस तरफ घटक की लेखकी बार-बार इशारा करती है। वो मन ही मन एक ऐसे समाज की कल्पना करते दिखाई देते हैं, जिसमें इंसानी रिश्तों का महत्त्व हो, सच्चाई के प्रति लोगों में निष्ठा हो, चकाचौंध से परे ऐसा वातावरण हो जिसमें इंसान प्रकृति से जुड़ के रह सके।

‘अनुवादक की ओर से’ टिप्पणी माँ ने 11 नवंबर, 2020 को लिखी थी, और उसी दिन शाम को बहुत चाव से उसे पढ़ के सुनाया था। उसके दो हफ्ते बाद वो कोरोना से बीमार हुईं और फिर ठीक नहीं हुईं। तीन हफ्ते बाद, 17 दिसंबर की शाम वो चली गयीं।

भूमिका में उन्होंने लिखा था “घटक की कहानियाँ साधारण जन के संघर्ष की कहानियॉं हैं, जो पाठक को स्तब्ध करती हैं।”

आम आदमी का संघर्ष हमारे आसपास हर समय मौजूद है, लेकिन हम में से कई लोग इसे फिर भी ‘देख’ नहीं पाते। उस संघर्ष को हमारे समक्ष लाकर खड़ा कर देनेवाली हैं, घटक की कहानियाँ।

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