पार्श्व गायन के एक शानदार युग का अंत

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— कुमार विजय —

पनी आवाज से प्रतिदिन लाखों-करोड़ों फिल्म संगीत प्रेमियों को रोमांचित करनेवाली सुप्रसिद्ध पार्श्वगायिका लता मंगेशकर के निधन की खबर रविवार की सुबह जैसे ही आयी, स्वाभाविक ही देश भर में ‌ शोक की लहर दौड़ गयी। भारत में शायद ही किसी अन्य गायक को इतनी लोकप्रियता और साथ ही इतना सम्मान हासिल हुआ हो। संगीत की सबसे लोकप्रिय और सबसे सम्मानित हस्ती होने के साथ ही वह भारतीय अस्मिता का एक प्रतीक भी बन गयी थीं और बनी रहीं। उन्हें सुर साम्राज्ञी भी कहा जाता रहा और भारत कोकिला भी। उनकी सुरीली आवाज में मानो इस देश की आत्मा बोलती थी।

कोई पांच साल की उम्र में ही उनकी संगीत-शिक्षा शुरू हो गयी थी और तेरह साल की उम्र से ही एक गायिका के बतौर उनका करियर शुरू हो गया था। आधी शताब्दी से ऊपर वह‌ अपनी सुरीली आवाज के दम पर पार्श्व गायन की सिरमौर बनी रहीं।‌ इतनी लम्बी अवधि तक गायिका की भूमिका में लता मंगेशकर का होना एक आश्चर्यचकित करनेवाला इतिहास है, जिसकी मिसाल शायद ही कहीं और मिले। सबसे अधिक गीत गाने का कीर्तिमान 1974 में उनके नाम गिनीज बुक में दर्ज हुआ था। अलबत्ता इसको लेकर थोड़ा विवाद भी हुआ। खुद लता जी ने हिसाब नहीं रखा कि उन्होंने कुल कितने गीत गाये, पर यह तो निःसंदेह कहा जा सकता है कि उनके गाये गीतों की संख्या हजारों में है। और उनकी सुरीली आवाज का स्पर्श सभी भारतीय भाषाओं को मिला, पर उन्होंने ज्यादा गीत हिन्दी, मराठी और बांग्ला में गाये हैं। वह अथक गायिका थीं और उम्र के पकेपन का उनकी जादुई आवाज पर कोई असर नहीं पड़ा।

भारतीय फिल्म संगीत ने न जाने कितने उतार-चढ़ाव देखे हैं। भारतीय फिल्म संगीत यात्रा की एक कहानी खुद लता का कॅरियर बन चुका है। इसलिए यह कहने में तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि लता जी के निधन से भारत में पार्श्व गायन के एक शानदार युग का पटाक्षेप हो गया है।

भारतीय फिल्म संगीत के महान पुरोधाओं के सान्निध्य और संरक्षण से गुजरती हुई जल्दी ही ‌वह खुद ऐसे मोड़ पर आ पहुंची जहां उनकी गिनती उन थोड़े से पुरोधाओं के साथ होने लगी, जिनके साथ उन्होंने अपना कॅरियर प्रारंभ किया था। अमर फिल्म संगीतकार नौशाद भी एक ऐसी ही शख्सियत थे, जिन्होंने चालीस के दशक के मध्य में लता की आवाज के जादू को पहचाना था और अपनी फिल्म ‘चांदनी रात’ में गवाने का लोभ संवरण नहीं कर सके थे। बाद में लता मंगेशकर ने नौशाद की हर फिल्म में गाया।

28 सितंबर 1929 को जनमीं लता मंगेशकर को संगीत में रुचि विरासत में मिली थी। पिता दीनानाथ मंगेशकर शास्त्रीय संगीत तथा मराठी रंगमंच के अच्छे गायक थे। जाहिर है कि शास्त्रीय संगीत की शिक्षा उन्होंने अपने पिता से ही पायी है लेकिन जब 1942 में दीनानाथ मंगेशकर का असामयिक निधन हो गया तब घर की बड़ी बेटी, जो कुल जमा तेरह वर्ष की थी, के कंधे पर परिवार का बोझ आ गया। और अपनी पिता की मृत्यु के सप्ताह भर बाद ही मास्टर विनायक कर्नाटकी की मराठी फिल्म ‘मंगल गौर’ में गायन और अभिनय, ‌दोनों पहली बार किया। अभिनय में तो तब उन्हें ज्यादा काम नहीं मिलता था लेकिन मराठी फिल्मों में कभी कोरस तो कभी स्वतंत्र रूप से गाने का अवसर अवश्य मिलता था। उल्लेखनीय है कि हिन्दुस्तानी या हिन्दी फिल्म संगीत का यह वह दौर था जब राजकुमारी, नूरजहां, सुरैया, शमशाद बेगम जैसी लोकप्रिय पार्श्वगायिकाएं छायी हुई थीं। ऐसे में सन छियालिस की एक दोपहर में लता की आवाज सुनने का अवसर संगीतकार नौशाद को मिला तो उन्होंने उनसे गवाने का निश्चय कर लिया। उस वक्त इस बात पर फिल्म संगीत जगत में बड़ी हाय-तौबा मची कि इतनी प्रसिद्ध गायिकाओं के होते हुए भी ‘चांदनी रात’ में एक मामूली कोरस गायिका गायेगी और वह भी शिखर के संगीत निर्देशक नौशाद के साथ? लेकिन आवाज का जादू नौशाद साहब के सिर चढ़ चुका था, जिसका कभी उन्होंने जिक्र किया था। हालांकि इससे पहले भी लता गा रही थीं लेकिन नौशाद के शब्दों में- उनकी सही शुरुआत फिल्म ‘दुलारी’ से हुई, जिसमें लता ने ‘कौन सुने फरियाद हमारी…’ गीत गाया था। इसके बाद लता ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। अपनी विलक्षण आवाज और गायकी के कारण वह इन शुरुआती दिनों में फिल्म संगीत और संगीत निर्देशकों की जरूरत बन गयीं जबकि बीच में संगीतकारों और पार्श्वगायक-गायिकाओं की कई पीढ़ियां आयी-गयीं।

‌लता मंगेशकर की गायकी के जादू और उससे उठनेवाले दर्द के न जाने कितने किस्से आज किंवदंतियों की तरह फैले हुए हैं। ऐसा ही एक किस्सा है, जब उन्होंने 1962 में चीनी हमले में शहीद हुए जवानों की याद में आयोजित समारोह में प्रदीप पंडित का लिखा गीत गाया था। कहा जाता है कि- ‘‘ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आंख में भर लो पानी…’’ सुनकर पंडित नेहरू की आंखों में भी आंसू छलक आये थे। लता के सुर में भावानुभूति की ग्राह्यता तथा अति सूक्ष्म संवेदनशीलता है, शायद इसीलिए वह हर उम्र और किस्म के चरित्रों के अनुरूप गा पायीं। लता ने जब से फिल्मों में गाना शुरू किया, तब से अब तक नायिकाओं की कई पीढ़ियां आयीं, लेकिन उन्होंने खुद को हर एक की आवाज साबित किया तो इसके पीछे उनकी कठिन साधना ही रही, जिसकी शुरुआत बचपन में ही हो गयी थी। और बाद में भी जिन महान संगीतकारों के निर्देशन में उन्होंने गया, उनसे बराबर वह सीखनेवाली बात सीखती ही रहीं, जैसा कि नौशाद ने भी स्वीकार किया था कि -‘‘शब्दों के हिज्जे याद करती, मेरे पास बैठती एक गुरुभक्त षिष्या सी और जो कुछ भी मैं बताता वह ग्रहण कर लेती।’’

भले ही लता राष्ट्रीय सुर एकता की एक प्रतीक सी बन गयी हों लेकिन उनकी गायकी के यादगार गीत यदि नौशाद, मदन मोहन, गुलाम हैदर,खेमचंद्र प्रकाश, अनिल विश्वास, चित्रगुप्त, सी. रामचंद्र, शंकर-जय किशन, रौशन, सचिनदेव बर्मन और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, खय्याम सरीखे दिग्गज संगीतकारों के संगीत निर्देशन वाले ही माने जाते हैं, तो निश्चय ही इसके पीछे उस वक्त के फिल्म संगीत का माधुर्य था, जो पिछले दशकों में निरंतर हाशिये की वस्तु बनता गया है।

अपने जीवनकाल में ही किंवदंती बन जाना न तो बहुत आसान होता है और न अपने वश में। इसीलिए जब कहीं कोई ऐसा दिखता है तो यह चमत्कारिक महसूस होता है। ऐसी ही चमत्कार सरीखी रहीं लता मंगेशकर, जिनसे न जाने कितने गायिकाएं-गायक वर्षों से प्रेरणा पाते रहे हैं। लता जी को भरपूर आदर-सम्मान मिला जो वस्तुतः किसी महान प्रतिभा की एक विनम्र स्वीकृति भर होते हैं। दादा साहब फालके सम्मान, मध्यप्रदेश का प्रतिष्ठित कालिदास सम्मान से लेकर पद्मविभूषण और भारत रत्न तक ढेर सारे सम्मान और पुरस्कार उनके खाते में दर्ज हैं। खुद उनके नाम से भी पुरस्कार शुरू हुए। पर इससे भी बड़ी बात यह है कि उन्होंने भारत के लोगों का दिल जीता और और ढेर सारी बेमिसाल उपलब्धियों के बावजूद ‌‌विनम्र बनी रहीं।

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