— पन्नालाल सुराणा —
अँगरेजों की शुरू की हुई शिक्षा-प्रणाली में यूरोप के उदारमतवादी विचारकों के विचार तथा वहाँ की जनतंत्र प्रणाली से पढ़े-लिखे भारतीयों को परिचय होने लगा। अपनी परंपरागत व्यवस्था ने विचार तथा आचार की आजादी नहीं दी। कई तरह की पाबंदियाँ लगा रखी थीं। उससे बड़ा शोषण, अन्याय तथा दमन होता था। अब अँगरेजी राज में चैन की साँस लेना संभव हो रहा है। नवोदित पढ़े-लिखे तबकों में कई दशकों तक ‘अंगरेजी शासन ईश्वरीय वरदान है’ ऐसी भावना बनी रही। अपने समाज में शूद्रों तथा स्त्रियों पर लगायी गयी पाबंदियाँ तथा कुरीतियाँ समाप्त होनी चाहिए, ऐसा कई विचारक एवं समाजसेवी लोगों को लगने लगा। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के खिलाफ आवाज उठायी। महात्मा ज्योतिबा फुले तथा सावित्री बाई फुले ने स्त्री-शूद्रों के लिए पढ़ाई का रास्ता खोलने का काम किया। 1880-85 तक यह सिलसिला चलता रहा।
अँगरेजी साम्राज्य के शोषण से भारत के किसान तथा अन्य कारीगर तबाह हो रहे थे, उनके सवालों को लेकर राजनीतिक गतिविधियाँ शुरू हुईं। इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना 1885 में हुई। दादा भाई नौरोजी, लोकमान्य तिलक, अँगरेज सरकार की नीतियों पर आग बरसाने लगे। 1857 की जंग राजे-रजवाड़ों की सत्ता सुरक्षित रखने के लिए लड़ी गयी थी। इन नेताओं को सामंतशाही व्यवस्था स्थापित करनी थी। समाज सुधारक तथा साधारण जनता को उसमें रुचि नहीं थी। नयी जनतंत्रवादी राजनीति शुरू हुई तो शुरू में पढ़े-लिखे लोग इसमें दिलचस्पी लेने लगे। सन् 1893 में कांग्रेस ने किसानों पर हो रही जुल्म-ज्यादती के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया। किसान तथा अन्य लोग उस आंदोलन के प्रति आकर्षित होने लगे। अँगरेजों ने इससे सत्ता को खतरा माना। भारत की जनता खिलाफ में एकजुट न हो, इसलिए उसमें फूट डाली जाए, ऐसा उन्होंने सोचा।
अँगरेजों के दिमाग में भारत का शासन चलाने का मॉडल इंग्लैंड जैसा ही था। विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका– ये तीन अंग धीरे-धीरे विकसित करने थे। गवर्नर जनरल कार्यपालिका का सर्वोच्च अधिकारी था। राष्ट्रीय तथा प्रांतीय स्तर पर न्यायपालिका स्वतंत्र रूप से काम करे, लेकिन तहसील, जिला स्तर तक कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के अधिकार एक ही अफसर को दिये जा रहे थे। कानून बनाने के लिए गवर्नर जनरल-इन-कौंसिल का ढाँचा 1865 के कानून से निश्चित किया गया। (इंडियन कौंसिल एक्ट 1861) 15-20 आला अफसर कौंसिल ऑफ इंडिया में नियुक्त किये जाते थे। राष्ट्रीय स्तर के साथ प्रांतीय स्तर पर भी विधानमंडल हो तथा उसमें भारतीयों को भी शामिल किया जाए, ऐसी माँग देश के विभिन्न भागों से पढ़े-लिखे लोग करने लगे। सन् 1892 के इंडियन कौंसिल एक्ट में यह प्रावधान किया गया कि विश्वविद्यालय, नगरपालिका एवं जिला बोर्ड जिन नामों की सिफारिश करेंगे उसमें से दस-बारह भारतीय नागरिक सेंट्रल तथा प्रॉविंशियल लेजिस्लेटिव कौंसिल में नियुक्त किये जाएँगे। भारतीय प्रतिनिधि भी सरकार ही नियुक्त करे, यह बात अटपटी लग रही थी। उनका चुनाव भारतीय मतदाताओं से कराने की माँग बढ़ने लगी।
1885 में स्थापित हुई कांग्रेस में पंजाब, बंगाल, मद्रास, बंबई चारों तरफ के अलग-अलग धर्म के पढ़े-लिखे लोग शरीक होने लगे। भारतीय जनता की आवाज डॉ. व्योमेश चंद्र बनर्जी, बदरुद्दीन तैयब, पंडित मदनमोहन मालवीय, फिरोजशाह मेहता, दादाभाई नौरोजी, लाला लाजपतराय आदि नेता एक मंच से उठाने लगे थे। राजनीतिक जनतंत्र ढंग से चले, साधारण मेहनतकश आदमी के हितों की रक्षा करने हेतु राजकाज चलाया जाय, यह दृष्टि विकसित होने लगी। सन् 1986 में कांग्रेस अध्यक्ष पद से बोलते हुए दादाभाई नौरोजी ने कहा ‘भारत में चलाए जा रहे प्रशासन की जाँच करने के लिए न्यायिक आयोग नियुक्त किया जाए, यह माँग ब्रिटिश सरकार ने ठुकरा दी है। देश में फैली हुई दरिद्रता का उन्मूलन कैसे किया जाए, इस पर हमारे संगठन को ध्यान देना चाहिए।’
अपना राज चलाने के लिए अँगरेज साढ़े छह सौ देशी रियासतें, जमींदार व धर्मगुरु आदि यथास्थितिवादी तत्त्वों को खुश रखने लगे। इधर पढ़े-लिखे नये लोगों में समता, स्वतंत्रता, सामाजिक न्याय आदि आदर्शवादी विचारों का प्रभाव बढ़ने लगा। वे संगठित होकर राजनीतिक अधिकारों की माँग करने लगे। दिन ब दिन बढ़नेवाला यह राजनीतिक माहौल एक दिन उनकी सत्ता को चुनौती देगा, यह अँगरेजों के ध्यान में आने लगा। वे दमनकारी तरीका अपनाने लगे। ब्रिटिश शासकों को लगा कि भारत की जनता में भाषा, जाति और खासकर धर्म के नाम से फूट डालना आसान है। 1904 में वायसराय गवर्नर जनरल लॉर्ड कर्जन ने बंगाल प्रांत का बँटवारा करने की घोषणा की। मुस्लिम बहुल क्षेत्र को लेकर अलग प्रांत बनाया जा रहा था। कांग्रेसी नेताओं, खासकर लोकमान्य तिलक ने इस योजना का जोरदार विरोध किया। देशव्यापी आंदोलन खड़ा हो गया। इसके साथ ही यह माँग भी जोर पकड़ने लगी कि लेजिस्लेटिव कौंसिल के लिए भारतीय प्रतिनिधि चुनने का अधिकार जनता को दिया जाए। लेकिन मुस्लिम जमींदारों और पढ़े-लिखे लोगों के मन में इस आंदोलन की माँग के प्रति यह भय घर करने लगा कि अगर चुनाव का तरीका अपनाया गया तो बहुसंख्य होने के कारण हिंदू ही सब सीटें जीत लेंगे।
पढ़ाई तथा सालाना आय के आधार पर मताधिकार देने की चर्चा चल रही थी। विश्वविद्यालय की डिग्री पानेवाले मुसलमान बहुत ही कम तथा हिंदू हजारों हजार की तादाद में थे। यह सब देखकर मुस्लिम नेता इकट्ठा हुए। आगा ख़ानकी अध्यक्षता में उन्होंने मुस्लिम लीग की स्थापना 1906 में की। अक्तूबर 1906 में उनका प्रतिनिधिमंडल वायसराय से मिला। उनके ज्ञापन में माँग की गयी थी कि एक जमाने का शासन होने के नाते मुलमानों को नयी व्यवस्था में ज्यादा स्थान दिया जाए। भारत की आबादी में उनका अनुपात 25 प्रतिशत था। लेकिन वे केंद्रीय लेजिस्लेटिव कौंसिल में तीस प्रतिशत सीटें माँग रहे थे। मुस्लिम नुमाइंदे चुनने का अधिकार केवल मुस्लिम मतदाता को ही दिया जाए। उनकी यह माँग मंजूर करने का संकेत वायसराय ने पहली ही मुलाकात में दे दिया। (यह सब जानकारी विस्तार से दस्तावेजों के आधार पर डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने दी है। देखिए रायटिंग्स एंड स्पीचेस, वॉल्यूम 8 पृ. 430)