क्या राष्ट्रीय राजनीति के समीकरण बदलेंगे?

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— प्रेम सिंह —

त्तराखंड में भाजपा सरकार के खिलाफ सत्ता-विरोधी लहर और अस्थिरता कांग्रेस के पक्ष में प्रमुख कारक माने गए। हालांकि, यह भी सामने आया कि कांग्रेस का चुनावी प्रबंधन अपेक्षाकृत कमजोर था। 2017 के चुनाव में कुल 70 सीटों में से भाजपा को 65 और कांग्रेस को 5 सीटें मिली थीं। अगर यह भी माना जाए कि भाजपा और कांग्रेस में इस बार कांटे की लड़ाई है, तब भी कांग्रेस के लिए इतने बड़े अंतर को पार कर पाना आसान नहीं होगा। पंजाब में कांग्रेस को सत्ता-विरोधी लहर और अंदरूनी झगड़े का सामना करना पड़ा है। किसान आंदोलन के समर्थन का फायदा पंजाब में सबसे ज्यादा कांग्रेस को हो सकता था। लेकिन पिछले दिनों नेतृत्व-परिवर्तन के दौरान पैदा हुई कटुता, वरिष्ठ नेता कैप्टन अमरिंदर सिंह का भाजपा के साथ गठबंधन, किसान संगठनों की नयी पार्टी द्वारा सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारना, संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) में बैठे आम आदमी पार्टी समर्थकों का पंजाब में आप का समर्थन, और रेडिकल तत्त्वों की आप के साथ एकजुटता जैसी घटनाओं/परिस्थितियों ने वह फायदा कांग्रेस से छीन लिया लगता है। 

भाजपा इस स्थिति का फायदा उठाना चाहती है। इसीलिए‘रंगीले’ बाबा रामरहीम को फरलो पर जेल से छोड़ा गया। लोगों का कहना है कि उन्हें इसीलिए छोड़ा गया है कि वे अपने अनुयायियों को पंजाब लोक कांग्रेस-भाजपा गठबंधन को वोट देने का निर्देश दें। साथ ही प्रधानमंत्री के तीन चुनावी दौरे आयोजित किए गए और उन्होंने कांग्रेस को जमकर कोसा। लगे हाथ भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने पंजाब के सिखों को 1984 के दंगों की याद भी बखूबी दिला दी। एक समय मैंने सोचा था कि फौजी रहे कैप्टन की राष्ट्रीय सुरक्षा और राष्ट्रवाद की समझ आरएसएस/भाजपा से अलग है। लेकिन वे देश और समाज के टुकड़े करने पर आमादा ताकतों के साथ खड़े होकर पंजाब की सुरक्षा का मंत्र जप रहे हैं।

कहने की जरूरत नहीं कि सीमावर्ती राज्य होने के चलते राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ-साथ पंजाब आंतरिक शांति के लिहाज से भी एक अत्यंत संवेदनशील राज्य है। उसने लंबे समय तक उग्रवाद का दंश झेला है। देश-विदेश में अभी तक विभाजनकारी तत्त्व सक्रिय हैं, इसकी पुष्टि समय-समय पर होनेवाली घटनाओं और गिरफ्तारियों से होती है। सीमावर्ती राज्य के रूप राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए पंजाब का महत्त्व तभी है जब वहाँ मुकम्मल आंतरिक शांति हो। लेकिन इस चुनाव में वोटों के लिए जिस गैर-जिम्मेदाराना तरीके से नेता राष्ट्रीय सुरक्षा और पंजाब की आंतरिक शांति के सवाल को गड्ड-मड्ड कर रहे हैं वह चिंताजनक है।

पंजाब और विदेशों में रहनेवाले रेडिकल तत्त्वों के साथ गठजोड़ करनेवाले केजरीवाल और उनके समर्थक सत्ता की हविस में पंजाब की आंतरिक शांति के साथ खतरनाक खेल खेल रहे हैं। मैंने पहले भी यह कहा है, और प्रेस में भी इस तरह की खबरें आती रही हैं कि शुरू से ही विदेशों में बसे रेडिकल तत्त्वों ने पंजाब में अकाली दल/कांग्रेस नीत परंपरागत राजनीतिक सत्ता-संरचना को तोड़ने के लिए आप को हथियार बनाया हुआ है।

पंजाब में जिस ‘परिवर्तन’ और ‘विकल्प’ का हल्ला आप और उसके समर्थक कर रहे हैं, उसकी स्पष्ट दिशा एक सांप्रदायिक दक्षिणपंथी राजनीति की ओर है। कारपोरेट राजनीति की परिधि में केंद्र में जैसे ‘नरेंद्र मोदी बनाम पिछले 70 साल’ अभियान धड़ल्ले से चल रहा है, उसी तरह पंजाब में‘केजरीवाल बनाम पिछले 70 साल’ की मुहिम देखी जा सकती है।

2014 में चलाई गई ‘देश में नरेंद्र मोदी, दिल्ली में केजरीवाल’ की मुहिम लोग भूले नहीं होंगे। पंजाब की कोख से उपजे किसान आंदोलन से कारपोरेट-परस्त राजनीति के खिलाफ जो मजबूत आवाज उठी थी, पंजाब में ही उस पर मिट्टी पड़ गयी लगती है। किसान आंदोलन ही पंजाब में बेरोजगारी से लेकर नशा और बेअदबी जैसी असाध्य लगनेवाली बीमारियों के समुचित और स्थायी इलाज का आधार हो सकता था। पता नहीं एसकेएम नेतृत्व और उसके कार्यकर्ताओं को इस क्षति का अहसास है या नहीं!           

चरणजीत सिंह चन्नी को एक समझौता उम्मीदवार के रूप में पंजाब का पहला दलित मुख्यमंत्री बनाया गया था। कांग्रेस ने, भले देरी से, दलित वोटों को अपने पाले में करने की कोशिश के तहत चन्नी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया। हालांकि, चन्नी के उत्थान के पीछे शिक्षा व सेवा-क्षेत्र में मिले अवसर तथा विदेश जाकर की जाने वाली कमाई से हुए दलित समाज के सशक्तीकरण की परिघटना की भी भूमिका है। पंजाब में सबसे अधिक दलित वोट हैं, लेकिन उस मोर्चे पर कांग्रेस की आप, अकाली दल-बसपा गठबंधन, संयुक्त समाज मोर्चा, सीपीआई-सीपीएम से टक्कर है। आप पंजाब में किसान आंदोलन के प्रभाव के बिखर जाने, कांग्रेस के खिलाफ सत्ता-विरोधी लहर और पार्टी की अंतर्कलह का फायदा आप उठाने में लगी थी। ‘ईमानदार’ और ‘सदाचारी’ केजरीवाल ने चन्नी की छवि मलिन करने के मकसद से उन पर बेईमान और भ्रष्टाचारी होने के आरोप लगाए। आप को यह भी विश्वास था कि शहरी हिंदू वोट उसे बड़ी मात्रा में मिलेगा। लेकिन भाजपा के अचानक सक्रिय हो जाने से उसका गणित गड़बड़ा सकता है।

आरोप-प्रत्यारोपों से भरे इस चुनाव में एक बात सभी पार्टियों/नेताओं में समान है – सभी सिख गुरुओं की दुहाई दे रहे हैं, और गुरुद्वारों में गुरुओं के आशीर्वाद के लिए मत्था रगड़ रहे हैं। इस बीच पड़ने वाली संत रविदास जयंती का चुनावी फायदा उठाने की कवायद पंजाब से लेकर यूपी में वाराणसी और दिल्ली तक देखने को मिली। बहरहाल, पंजाब विधानसभा चुनावों में बहुकोणीय मुकाबले में त्रिशंकु विधानसभा की संभावना बन रही है; और वहाँ राष्ट्रपति-शासन भी लागू किया जा सकता है।

2017 के विधानसभा चुनावों में गोवा और मणिपुर में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। कांग्रेस के केंद्रीय पर्यवेक्षकों ने दोनों जगह अपनी भूमिका गंभीरता से नहीं निभाई। लिहाजा, दोनों राज्यों में भाजपा ने अपनी सरकार बना ली। पिछले चुनाव से लेकर इस चुनाव तक इन दोनों प्रदेशों की राजनीति दल-बदल का दलदल बनी हुई है। गोवा में कांग्रेस का गोवा फॉरवर्ड पार्टी के साथ गठबंधन है।

पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत मनोहर पर्रिकर के बेटे उत्पल पर्रिकर ने भाजपा से अलग होकर अपने पिता की सीट पणजी से निर्दलीय चुनाव लड़ा है। गोवा में कलह-ग्रस्त भाजपा के लोग ही कह रहे हैं– ‘भाजपा को बचाना है तो भाजपा को हराना है।’

फिर से, कम से कम सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के लिए आशान्वित लेकिन दल-बदल से त्रस्त कांग्रेस ने अपने उम्मीदवारों को मंदिर, चर्च और मस्जिद में शपथ दिलवाई! 40विधानसभा सीटों और 11,64,522 मतदाताओं वाले सबसे छोटे राज्य गोवा में कांग्रेस और भाजपा के अलावा टीमसी-एमजीपी गठबंधन, शिवसेना-एनसीपी गठबंधन, आम आदमी पार्टी भी चुनाव मैदान में हैं।

चुनाव अभियान के दौरान ठीक ही कहा गया कि गोवा में पार्टियाँ/नेता मुखर और मतदाता मौन रहे। इतनी पार्टियों/नेताओं और अभी तक के सबसे ज्यादा 301 प्रत्याशियों के शोर-शराबे के बीच मतदाताओं का विभ्रांत होना स्वभाविक था। अंग्रेजों से देश की आजादी का विरोध करने वाले आरएसएस से आने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यहाँ गजब का नुक्ता निकाला कि नेहरू ने 15 साल तक गोवा की आजादी नहीं होने दी! गोवा के मतदाताओं को पहली बार चुनावों में अच्छा-खासा सांप्रदायिक रंग भी देखने को मिला। चुनावों में करीब 79 प्रतिशत मतदान, जो पिछले चुनाव से मामूली-सा कम है, बताता है कि मतदाता चुप थे, निष्क्रिय नहीं।

बहुकोणीय मुकाबले वाले गोवा विधानसभा चुनाव के नतीजों का पूर्वानुमान करना सबसे कठिन है। मणिपुर में भाजपा का किसी पार्टी के साथ चुनाव-पूर्व गठबंधन नहीं है। कांग्रेस का सीपीआई, सीपीएम, फॉरवर्ड ब्लॉक, आरएसपी, जेडी (एस) के साथ गठबंधन है। मणिपुर में कांग्रेस की स्थिति पहले की तरह भाजपा के मुकाबले मजबूत बताई जाती है।

ममता बनर्जी सपा-आरएलडी गठबंधन के समर्थन में लखनऊ आयी थीं। सत्ता की राजनीति के लिए यह एक महत्वपूर्ण संकेत है। यूपी में भाजपा की सीटें साधारण बहुमत से घटती हैं, और जोड़-तोड़ से सरकार बनाने की कवायद में सपा-आरएलडी गठबंधन के विधायक टूट कर नहीं जाते हैं, तो 2024 के लोकसभा चुनाव में ममता बनर्जी द्वारा प्रस्तावित कांग्रेस से अलग भाजपा-विरोधी मोर्चे की संभावना को बल मिलेगा। अगर सपा-आरएलडी गठबंधन सरकार बना लेता है, तो मोर्चे के गठन की दिशा में खासी तेजी आ सकती है।

अगर कांग्रेस उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में सरकार नहीं बना पाती है, और पंजाब में भी उसका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहता है, तो विपक्ष के कांग्रेस-रहित मोर्चे की मजबूती को रोकना उसके लिए मुश्किल होगा। क्योंकि वैसी स्थिति में आरजेडी, एनसीपी, शिवसेना, वामपंथी पार्टियां भी कांग्रेस-रहित भाजपा-विरोधी मोर्चा बनाने के लिए तैयार हो सकते हैं। कांग्रेस अगर उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में सरकार बना लेती है, और पंजाब में अच्छा प्रदर्शन करती है, तो विपक्ष की राजनीति में उसकी स्थिति मजबूत होगी। लेकिन अगर यूपी में भाजपा की पूर्ण बहुमत सरकार बनती है, तो 2024 के चुनावों में कांग्रेस की स्थिति बेहद कमजोर हो जाएगी। इसके अलावा राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, कर्नाटक जैसे राज्यों में, जहाँ कांग्रेस की भाजपा से सीधी टक्कर रहती है, भाजपा कांग्रेस को कड़ी चुनौती देगी।

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