— विमल कुमार —
हिंदी के अमर कथाकार प्रेमचन्द की पत्नी शिवरानी देवी ने ‘प्रेमचंद घर में’ पुस्तक में लिखा है कि अगर प्रकाशकों ने उनके पति को समुचित रॉयल्टी दी होती तो उनके पति को जीवन में इतना आर्थिक संघर्ष करना न पड़ता।
आपको शायद पता होगा कि प्रेमचंद के सामने भी शुरू में अपनी किताबों को छपवाने का संकट रहा और उन्होंने अपनी 5 शुरुआती किताबें अपने पैसे से छपाई थीं। कहने का अर्थ यह कि हिंदी के लेखकों को अपनी किताबों को प्रकाशित करने का ही संकट नहीं रहा बल्कि उचित मानदेय का भी टोटा रहा है।
आचार्य शिवपूजन सहाय ने अपनी डायरी में लिखा है कि किस तरह पुस्तक भंडार के मालिक रामलोचन शरण ने उनकी रॉयल्टी देने के मामले में धोखा दिया और राजा राधिकारमण सिंह ने तो करीब बीस हजार रुपए की रॉयल्टी नहीं दी।
इस तरह देखा जाए तो हिंदी के लेखकों को प्रकाशकों द्वारा शोषण किये जाने की एक लंबा सिलसिला रहा है। शायद इसीलिए जैनेंद्र, यशपाल, दिनकर, अश्क, हंसराज रहबर से लेकर रामकुमार कृषक जैसे लोगों को अपना प्रकाशन खोलना पड़ा, यह अलग बात है कि उन्हें बहुत सफलता नहीं मिली, क्योंकि किताबों की खरीद-बिक्री का एक गठजोड़ काम करता है। जब नामवर सिंह राजा राममनोहर राय लाइब्रेरी के अध्यक्ष थे तब उनपर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगे और संसद में सवाल भी उठे। यानी यह पूरा कारोबार एक धंधे में बदल गया है।
ताजा मामला साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित लेखक विनोद कुमार शुक्ल का है। इन दिनों सोशल मीडिया पर उनका मामला छाया हुआ है। मानव कौल और आशुतोष भारद्वाज ने इस मुद्दे को उठाया और चंदन पांडेय तथा अणुशक्ति सिंह जैसे युवा लेखकों ने जब आवाज बुलंद की तो 92 वर्षीय वयोवृद्ध लेखक मलय, ममता कालिया, अशोक वाजपेयी, प्रयाग शुक्ल, विभूति नारायण राय, गिरधर राठी, देवेंद्र मोहन, सुरेश सलिल, रामशरण जोशी, स्वप्निल श्रीवास्तव, अवधेश श्रीवास्तव, हरीश करमचंदानी, रश्मि भारद्वाज, लीना मल्होत्रा, जयनंदन, भरत तिवारी, अरुणाभ सौरभ, विमलेश त्रिपाठी जैसे अनेक लेखक विनोद जी के समर्थन में मुख्य हुए।
हिंदी के अप्रतिम लेखक विनोद कुमार शुक्ल के ऑडियो और वीडियो में उनके प्रकाशकों द्वारा शोषण का रहस्योदघाटन होने से हिंदी जगत हतप्रभ है और उसने सोशल मीडिया पर गंभीर चिंता जताई है।
हिंदी के लेखक एवं फिल्मकार मानव कौल की सोशल मीडिया पर एक पोस्ट से हिंदी समाज को पता चला कि हिंदी के दो बड़े प्रकाशकों ने विनोद कुमार शुक्ल के साथ छल किया है और उन्हें उनकी किताबों के प्रकाशन के संबंध में हिसाब-किताब पूरी तरह से नहीं दिया है।
श्री शुक्ल ने अपने ऑडियो वीडियो में काफी कातर स्वर में अपनी पीड़ा को व्यक्त किया है। वह हिंदी के एक अनूठे लेखक हैं और उनकी कई कृतियों यथा ‘नौकर की कमीज’ ‘दीवार में खिड़की रहती थी’ तथा ‘खिलेगा तो देखेंगे’ ने अपने नए कहन शिल्प और भाषा से आधुनिक हिंदी साहित्य को काफी समृद्ध किया है। उनके मुरीदों का यह भी मानना है कि विनोद कुमार शुक्ल का साहित्य नोबेल पुरस्कार विजेताओं के साहित्य स्तर का है। विनोद जी की छवि एक अत्यंत सरल, विनम्र और ईमानदार लेखक की रही है जो कभी भी साहित्य के सत्ता विमर्श में शामिल नहीं रहा और तमाम तरह के प्रपंच से दूर रहा।
86 वर्ष के विनोद कुमार शुक्ल के हार्ट में 4 स्टेंट लग चुके हैं। उनके कूल्हे की हड्डी भी टूट गयी है और वह कमर में बेल्ट बांध कर जी रहे हैं। इतना ही नहीं, वह मधुमेह के भी मरीज हैं और इसकी वजह से कोरोना काल मे टीके भी नहीं लगवा सके। उनके पुत्र की अस्थायी नौकरी है। ऐसे हृदयविदारक हाल में प्रकाशकों ने उन्हें यह यातना दी है। उनके पत्रों का जवाब नहीं दिया। उन्होंने कहा कि उनकी किताबें मुक्त कर दी जाएं पर प्रकाशक उनकी किताबें बिना बताए छापते रहे। मीडिया ने भी अब उनके इस बयान की खोज-खबर ली है और अंग्रेजी अखबारों में भी इसकी खबरें छपी हैं लेकिन अभी तक हिंदी के अधिकतर वरिष्ठ लेखक पूरी तरह सामने नहीं आए हैं और लेखक संगठनों ने भी इस बारे में अभी कोई बयान जारी नहीं किया है।
अलबत्ता विवाद में घिरे हिंदी के दो प्रकाशकों ने अपना बयान फेसबुक पर जारी कर अपना पक्ष रखा है और एक तरह से विनोद जी को ही झूठा करार दिया है। रॉयल्टी और पुस्तक प्रकाशन से जुड़े विवाद का यह कोई पहला मामला नहीं है।करीब 10 साल पहले हिंदी के प्रख्यात लेखक निर्मल वर्मा के निधन के बाद भी यह मामला उठा था और उनकी पत्नी कवयित्री गगन गिल ने निर्मल जी की किताबों के प्रकाशक के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था और अंततः उन्होंने वहां से निर्मल जी की सारी किताबें वापस ले लीं। तब भी हिंदी के स्थापित और बड़े लोगों ने गन गिल का साथ नहीं दिया था।लेखक संघ सामने नहीं आए।
हिंदी के प्रकाशक अक्सर इस बात का रोना रोते हैं कि हिंदी की किताबें बिकती नहीं हैं लेकिन दूसरी तरफ हिंदी में नए-नए प्रकाशक सामने आ रहे हैं और बड़ी संख्या में पुस्तकें आ रही हैं। उनके कारोबार में इजाफा भी हो रहा है। वे दिन प्रतिदिन मालामाल होते जा रहे हैं। यह अलग बात है कि छोटे प्रकाशक को संघर्ष करना पड़ रहा है लेकिन वे भी जैसे ही बड़े प्रकाशक बन जाते हैं उनका आचरण और बर्ताव भी बड़े प्रकाशकों जैसा होने लगता है। इस मामले में हिंदी के लेखक संगठन भी खुलकर नहीं आते हैं, उन्होंने भी प्रकाशकों के खिलाफ लड़ाई नहीं लड़ी जबकि वे सत्ता और व्यवस्था के खिलाफ आए दिन लड़ते रहते हैं।
दरअसल हिंदी में एक गठजोड़ की तरह काम करता है जिसमें खरीद बिक्री और और पुस्तक प्रमोशन का काम चलता रहता है। अगर राजनेता की किताब हुई तो प्रकाशक उसके सामने नतमस्तक रहते हैं। अगर किसी सेलिब्रिटी की किताब हुई तो उनके स्वागत में खड़े रहते हैं। अगर किसी पुस्तक बिक्री समिति के सदस्य की हो तो वे उनकी आवभगत में रहते हैं। लेकिन लेखक संघर्षशील है तो उसके साथ अनुबंध भी नहीं करते। हिंदी प्रकाशन जगत मौखिक परंपरा में अधिक काम करता है और वह समझता है कि उसने किताबें छापकर लेखक को उपकृत किया है।
अक्सर लेखकों की शिकायत रहती है कि उनकी किताबों का हिसाब-किताब प्रकाशक नहीं देते। हिंदी का लेखक सभी प्रकाशकों से बैर मोल लेने की स्थिति में नहीं है क्योंकि वह कानूनी कार्रवाई करने में सक्षम नहीं है। अपने देश में न्यायपालिका और कानून का जो हाल है, उसमें एक सामान्य व्यक्ति के लिए लड़ाई लड़ना संभव नहीं है। कॉपीराइट के जो नियम-कानून बने हैं उनमें प्रकाशकों के ही हित अधिक सुरक्षित हैं।
हिंदी जगत में लेखकों के लिए कोआपरेटिव बनाने की बात बार बार उठी पर लेखकों की एकजुटता के अभाव में यह सम्भव नहीं हो सका। लेखक अभी भी शोषण के शिकार हैं लेकिन विनोद जी के विवाद से कई लेखक अब खुलकर सामने आए हैं। वे अपने शोषण की कथा अब कह रहे हैं। कुछ लेखक इसलिए नहीं बोल रहे क्योंकि उन्हें प्रकाशकों द्वारा ब्लैकलिस्टेड होने का भय सता रहा है। लेकिन जब लेखक बहुत परेशान हो जाते हैं तब वे आवाज़ उठाते हैं। विनोद जी वर्षों तक बर्दाश्त करते रहे अब जाकर उन्होंने मुंह खोला है। लेकिन लेखक संघ अब तक चुप हैं। उन्हें आगे आना चाहिए था। देखना है यह विवाद कैसे खत्म होता है। विनोद जी को न्याय मिलता है या नहीं।