— श्रवण गर्ग —
एग्जिट पोल्स के ‘अनुमान’ अंततः अंतिम ‘परिणाम’ भी साबित हो गए। प्रधानमंत्री सहित भाजपा के सभी बड़े नेताओं की भाव-भंगिमाओं में पहले से ही ऐसा परिलक्षित भी हो रहा था। मोदी और योगी नतीजों से अभिभूत हैं पर दोनों के लिए कारण अलग-अलग हैं। एक प्रधानमंत्री हैं और दूसरे कथित तौर पर बनने की आकांक्षा रखते हैं। यूपी के संग्राम को 2024 का सेमी-फाइनल बताया गया था।
चुनावों के पहले अमित शाह ने लखनऊ में मतदाताओं से कहा था कि मोदी की 2024 में दिल्ली में वापसी के लिए योगी को 2022 में फिर से सीएम चुना जाना जरूरी है। देखना होगा कि जनता द्वारा अपना काम पूरा कर दिए जाने के बाद प्रधानमंत्री, योगी को अब भी ‘ उपयोगी’ मानते हुए मुख्यमंत्री के पद के लिए उनके नाम की घोषणा कब करते हैं ! करते भी हैं या नहीं !
नतीजों के बाद प्रधानमंत्री ने कहा कि विशेषज्ञों द्वारा 2019 में लोकसभा की जीत का कारण यूपी में 2017 (403 में से 325 सीटें ) में हुई एनडीए की विजय को बताया गया था। 2024 में जीत का कारण 2022 को बताया जाएगा। सवाल यह है कि दो साल बाद (या पूर्व ही !) होनेवाले लोकसभा चुनावों के इतना पहले और ग्यारह राज्यों में होनेवाले विधानसभा चुनावों के नतीजों की प्रतीक्षा किए बगैर इस तरह के आशावाद को कितना औचित्यपूर्ण माना जाना चाहिए ?
यूपी सहित पाँच राज्यों के परिणामों को लेकर प्रधानमंत्री या किसी अन्य भाजपा नेता ने अभी तक जो कुछ नहीं कहा उसकी अगर तटस्थ भाव से समीक्षा की जाए तो कुछ ऐसे तथ्य उजागर होते हैं जिनका जिक्र किया जाना ज़रूरी है :
अपनी बात इस सवाल से शुरू करते हैं कि हाल के चुनावों में भाजपा (हिंदुत्व ) की ताकत बढ़ी है या कम हुई है? भाजपा गठबंधन को इस बार 273 (255+18) सीटें मिलीं हैं जबकि 2017 में यह आँकड़ा 325 (312+13 ) का था। यानी 2017 के मुकाबले 52 सीटें (16 प्रतिशत) कम हुई हैं। अखिलेश के खिलाफ भाजपा की डबल इंजन की सरकारों की सम्मिलित ताकत के विरोध और साथ में बसपा के परोक्ष समर्थन के बावजूद सपा गठबंधन की सीटें तीन गुना (47 से 125) हो गयीं। पूछा जा सकता है कि बसपा द्वारा अगर 2017 की तरह ही तटस्थ रहते हुए भाजपा को समर्थन नहीं दिया जाता या सपा का एकतरफा विरोध नहीं किया जाता तो उसकी (भाजपा की) कम होनेवाली सीटों का आँकड़ा कहाँ पहुँचता?
विश्लेषक बताते हैं कि बसपा के परम्परागत जाटव वोट बैंक से कोई 13 प्रतिशत और गैर-जाटव से नौ प्रतिशत समर्थन इस बार भाजपा के खाते में शिफ़्ट हुआ है। मीडिया में प्रकाशित खबरों पर यकीन करें तो मायावती ने पूरी ताकत अपनी पार्टी को जीत दिलवाने की बजाय सपा को हरवाने में झोंक दी थी। विपक्ष की राजनीति में ऐसा प्रयोग पहली बार ही हुआ होगा। 2017 में बसपा के पास 19 सीटें थीं और पार्टी तब नाखुश थी। इस बार एक सीट रह गयी पर पार्टी में कोई मातम नहीं है।
मीडिया में जानकारी दी गयी है कि लगभग सवा सौ सीटों पर बसपा ने सपा उम्मीदवारों की जाति और धर्म के ही उम्मीदवार खड़े किए। इन उम्मीदवारों के कारण सपा के वोट कट गए और 66 स्थानों पर भाजपा के प्रत्याशी विजयी हो गए। अट्ठाईस सीटें ऐसी बतायी जाती हैं जिन पर भाजपा के पक्ष में फैसला पाँच हजार से कम मतों से हुआ। ईवीएम के पुण्य-प्रताप को लेकर जिस तरह की चर्चाएँ (या अफवाहें) चल रही हैं उनकी पुष्टि या खंडन पेगासस की तरह ही रहस्य के परदों के पीछे बना रहनेवाला है। ’मनुवादी’ भाजपा को लाभ पहुँचानेवाले बसपा के अभूतपूर्व दलित बलिदान को किसी भी तरह से व्यक्त नहीं किया जा सकता है !
भाजपा को छोड़कर सपा के साथ जुड़े पिछड़ी जाति के नेता स्वामीप्रसाद मौर्य की फाजिलनगर सीट से हार को भाजपा की लहर का परिणाम मान लिया जा सकता है पर योगी सरकार के उप-मुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री पद के सशक्त दावेदार केशवप्रसाद मौर्य की सिराथू सीट से सपा की उम्मीदवार पल्लवी पटेल के हाथों पराजय पर क्या सफाई दी जाएगी? आजमगढ़ जिले की सभी दस सीटें सपा ने जीत लीं। सिराथू सहित कोशांबी जिले की तीनों सीटें भाजपा हार गयी। ऐसे और भी कई जिले हैं जहां भाजपा को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा।
हिंदुत्व की लहर अगर 2017 की तरह पूरे उत्तर प्रदेश में ही फैली हुई थी तो फिर ऐसा क्यों हुआ कि उसने सपा का सभी जगहों पर एक जैसा सफाया नहीं किया? क्या इन स्थानों पर बसपा उसके पक्ष में प्रभावकारी साबित नहीं हो सकी या दलितों ने मायावती की भाजपा-समर्थन की नीति को नकार दिया? (इस चुनाव में बसपा का वोट शेयर लगभग आधा रह गया।)
एक अन्य जानकारी यह दी जा रही है कि 2017 में केवल 24 मुसलिम प्रत्याशी ही चुनाव जीते थे पर हिंदुत्व के बुलडोजरी आतंक के बावजूद इस बार तैंतीस मुसलिम उम्मीदवार विजयी हुए हैं। बताया गया है कि सपा के इकतीस मुसलिम उम्मीदवारों की हार का मार्जिन बसपा द्वारा खड़े किए गए (मुसलिम!) उम्मीदवारों को प्राप्त मतों से कम था। (कोई सौ सीटों पर अपनी पार्टी के उम्मीदवार खड़े करके मायावती की तरह ही सपा प्रत्याशियों को हराने में भाजपा की मदद करने को लेकर असदुद्दीन ओवैसी द्वारा की गयी कोशिशों का भी बराबरी के साथ जिक्र किया जा सकता है। ओवैसी यही काम बिहार के पिछले चुनावों में भी कर चुके हैं।) विद्वान आलोचकों के इस तर्क का भी सम्मान किया जा सकता है कि सपा को तो भाजपा-बसपा के बीच स्थापित हुई समझ की पहले से जानकारी थी इसके बावजूद उसने अपनी तैयारी दो विपक्षी उम्मीदवारों (भाजपा-बसपा) को ध्यान में रखते हुए क्यों नहीं की?
यूपी से निकलकर उत्तराखंड और पंजाब के हिंदुत्व की भी थोड़ी बात कर लें ! उत्तराखंड में हार के डर से पाँच साल में दो-दो मुख्यमंत्री हटा दिए जाने के बावजूद न सिर्फ तीसरे (पुष्कर सिंह धामी) भी हार गए, वहाँ भाजपा की दस सीटें भी कम हो गयीं। कांग्रेस की आठ बढ़ गयीं। यूपी और उत्तराखंड तो किसी समय एक ही थे ! गोरखपुर के मठ के हिंदुत्व की लहर देहरादून तक क्यों नहीं पहुँच पायी?
पंजाब की कोई तीन करोड़ की आबादी में सवा करोड़ (39 प्रतिशत) हिंदू हैं। 2017 में भाजपा के पास तीन सीटें थीं। इस बार दो रह गयीं। क्या पंजाब का हिंदुत्व भाजपा के हिंदुत्व से अलग है? चुनावों के ठीक पहले बलात्कार के आरोप में बंद एक बड़े ‘धार्मिक नेता’ का हिरासत से बाहर चुनाव क्षेत्र में उपलब्ध रहना भी यूपी के लखीमपुर खीरी जैसे नतीजे पंजाब में नहीं दे सका ! हाल के चुनावों के ठीक पहले हुए (30 अक्टूबर , 2021) 95 प्रतिशत हिंदू आबादी वाले हिमाचल प्रदेश के उप-चुनावों में लोकसभा की महत्त्वपूर्ण मंडी सीट और विधानसभा की तीनों सीटें कांग्रेस ने भाजपा से छीन लीं थीं। एक हिंदू प्रदेश में भी हिंदुत्व क्यों फेल हो गया?
प्रधानमंत्री ने कहा है कि 2022 के नतीजों से 2024 के लिए संकेत मिल जाना चाहिए। सवाल यह है कि जिन संकेतों की तरफ मोदी इशारा करना चाहते हैं वे अगर देश की जनता के संकेतों से मेल नहीं खाते हों तो फिर क्या निष्कर्ष निकाले जाने चाहिए? एक निष्कर्ष तो यही हो सकता है कि 2022 के अंत के आसपास ही प्रधानमंत्री के सपनों के 2024 का सूर्योदय देखने के लिए देश को भी चुनाव आयोग की तरह ही अपनी भी तैयारी अभी से कर लेनी चाहिए।