चुनावी हार का सबक – प्रो. राजकुमार जैन

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पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा की जीत के बाद माहौल बनाया जा रहा है कि भाजपा-मोदी अपराजेय हैं। संघी-भाजपाइयों का तो यह हक बनता है कि वे गरूर से कहें कि यह शिकस्त इस चुनाव तक ही नहीं है, अब हम जानेवाले नहीं हैं। जैसा नरेंद्र मोदी कहते भी रहे हैं 50 साल भाजपा हिंदुस्तान पर राज करेगी। परंतु अफसोस उन अक्लमंदों पर है जो दावा तो करते हैं कि हम भाजपा विरोधी हैं परंतु उनकी बोली-बानी कलम भी हिम्मत दिखाने की बजाय ज्ञान बघार रही है कि संकट के बादल छॅंटने वाले नहीं हैं।

बर्तानिया हुकूमत से आजादी मिलने के बाद भारत में पहला आम चुनाव 1952 में हुआ था। तब से लेकर आज तक के चुनावी परिणामों पर अगर हम नजर डालें तो मोदी-भाजपा के घमंडी दावों की पोल आसानी से खुल जाती है।

1952 के चुनाव में कांग्रेस को 45.0, 1957 में 47.8, 1961 में 44.8, 1967 में 40.7, 1971 में 43.06, 1977 में 34.5, 1980 में 42.7, 1984 में 49.17 प्रतिशत वोट मिला था।

भाजपा 1984 के लोकसभा चुनाव में केवल 2 सीट ही जीत पायी थी। जहां उसका वोट प्रतिशत 7.71 रह गया। अभी तक भाजपा कांग्रेस के रिकॉर्ड से आगे नहीं बढ़ पायी है।

आज भी सूबों की विधानसभाओं में भाजपा कितनी जोरावर है उस पर भी नजर डालना जरूरी है। हिंदुस्तान की 29 राज्य विधानसभाओं में से भाजपा का बहुमत 10 राज्यों में है। सिक्किम, मिज़ोरम, तमिलनाडु में इनका एक भी विधायक नहीं है। 175 सीटों वाली आन्ध्र विधानसभा में केवल चार, केरल की 140 सीटों में एक, पंजाब में 117 में से 3, बंगाल में 294 में से 3, तेलंगाना में 119 में से पांच, दिल्ली की 70 सीटों में 8, नगालैंड में 60 में से 12.

जिन राज्यों में भाजपा संयुक्त सरकारों में शामिल है उनमें मेघालय में 60 में से दो, बिहार में 243 में से 53, जम्मू कश्मीर में 87 में से 25, 40 सीटों वाली गोवा विधानसभा में भाजपाई सदस्य संख्या 13.

तमाम हिंदुस्तान की 4139 विधानसभा सीटों की संख्या में भाजपा की संख्या 1516 है। जिसमें अकेले छह विधानसभाओं- गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान- का योगदान 950 सीटों का है। गत चुनाव में भाजपा को 66 प्रतिशत निर्वाचन क्षेत्रों में हार का सामना करना पड़ा है। यह आंकड़ेबाजी केवल इसलिए रखी गयी ताकि जो राजनीतिक उपदेशक निराशा और भयभीत करने का माहौल बना रहे हैं कि मोदी अविजित हैं उनको चुनावी इतिहास की कुछ जानकारी हो सके।

बिलाशक, यह हकीकत है कि आज भाजपा मोदी की सियासत अजगर की तरह मुॅंह बाए खड़ी है। जम्हूरियत की सारी रवायतों को कुचल कर धनतंत्र, बाहुबल, सरकारी मशीनरी के बेजा इस्तेमाल, लोकतंत्र के चौथे खंभे प्रेस, संचार के सारे माध्यमों – टीवी चैनलों, अखबारों को खरीदकर, गुलाम बनाकर एकतरफा प्रचार के खात्मे के लिए मुखालफत पार्टियों को अपने गिरेबान में झांकना होगा।

नरेंद्र मोदी ऐसे ही हिंदुस्तान में बरसरे इक्क्तदार नहीं हो गया, दिल्ली की गद्दी पर काबिज होने के लिए आर.एस.एस., जनसंघ, भाजपा का इतिहास जानना भी बेहद जरूरी है। भारतीय जनसंघ की स्थापना 1951 में हुई थी, इससे पहले हिंदू महासभा बन चुकी थी, महात्मा गांधी की हत्या के बाद हिन्दू महासभा बदनामी वाली पार्टी के रूप में जानी जाती थी। आर.एस.एस. पर प्रतिबंध लग गया था। आर. एस. एस. की तलाश एक राजनीतिक पार्टी की थी। डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी की अगुवाई में संगठित, अनुशासित आर. एस. एस. के बल पर जनसंघ की स्थापना की गयी। शुरुआत में उसका निशाना अपनी पार्टी का विस्तार करने का था। वह किसी तरह के अलायंस में इच्छुक नहीं थी, उनका इरादा मुल्क के सुदूर इलाकों में अपनी पकड़ बनाने का था। जनसंघ की विचारधारा वी. डी. सावरकर, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, आर. एस. एस., हेडगेवार, तथा गुरु गोलवलकर से प्रेरित थी। हिंदू महासभा, आर्य समाज, रामराज्य परिषद जैसी जमातों को अपना सहमना संगठन मानती थी परंतु अपने दूरगामी उद्देश्य तथा अलग पहचान के लिए जनसंघ की स्थापना की गयी।

भारत के प्रथम आम चुनाव में जनसंघ ने अपनी चुनावी रणनीति में तय किया कि वह हिंदू महासभा, रामराज्य परिषद इत्यादि के साथ किसी तरह का राजनीतिक गठबंधन नहीं करेगी, केवल चुनावी गठबंधन, आपस में वोट का बिखराव ना हो इसलिए करेगी और वह भी केवल क्षेत्रीय स्तर पर ना कि राष्ट्रीय स्तर पर, जहां तक संभव हो अधिक से अधिक स्थानों पर चुनाव लड़ा जाए।

दूसरे आम चुनाव में भी जनसंघ ने राष्ट्रीय स्तर पर किसी तरह के राजनीतिक गठबंधन को पसंद नहीं किया। जनसंघ ने शुरुआत में राज्यों तथा केंद्रशासित राज्यों में 1952 में 718, 1957 में 578, 1962 में 1140 तथा 1967 में 1607 उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारा परंतु 1952 में केवल 35 स्थानों पर इनकी जीत हुई, 1957 में 46 स्थानों पर तथा 1962 में 116 परंतु 1967 में जनसंघ को तमाम विरोधी दलों की तुलना में अधिक वोट लोकसभा में मिले तथा विधानसभाओं में 268 स्थानों पर इनकी जीत हुई। 1952 के लोकसभा चुनाव में जनसंघ ने 93 उम्मीदवार खड़े किए परंतु तीन उम्मीदवार ही विजयी रहे। 1957 में 130 उम्मीदवारों में 4 को सफलता मिली, 1962 में 196 स्थानों पर उम्मीदवार लड़े, जिसमें 14 जगह पर सफलता मिली। 1967 में 251 स्थानों पर चुनाव लड़ने के बाद 35 स्थानों पर जनसंघ को सफलता मिली।

जनसंघ को मिले जन समर्थन में सबसे बड़ा उलटफेर 1967 के आम चुनावों तथा 1969 के मध्यावधि चुनावों के बीच हुआ। 1967 के संसदीय चुनाव में जनसंघ को उत्तर प्रदेश में 22.58 प्रतिशत तथा विधानसभा में 21.67 प्रतिशत मत मिले, परंतु मध्यावधि चुनाव में उत्तर प्रदेश में केवल 17.93 प्रतिशत वोट मिले, जिस सदन में उनकी संख्या 98 थी वहां वह घटकर 48 रह गयी। 1967-71 के मध्य इनका 10 फीसद वोट कम हो गया तथा 1980-85 में लगभग 10 प्रतिशत के आसपास भाजपा का वोट समर्थन था। बाद के वर्षों में भी संसद से लेकर विभिन्न विधानसभाओं में भाजपा के वोट समर्थन में उतार-चढ़ाव होता रहा है।

1952, 57, 62 तक सोशलिस्ट जनसंघ से अधिक ताकतवर थे। लोकसभा में 1951-52 के चुनाव में सोशलिस्ट को 11 मिलियन वोट मिले। चुनाव में हुए कुल मतदान में 10.6 फीसद वोट सोशलिस्ट पार्टी को मिले, अकेले असम तथा बिहार में 20 फीसद से अधिक तथा उत्तर प्रदेश, ओड़िशा, मुंबई, त्रावणकोर, कोचीन तथा विंध्य प्रदेश (मध्य प्रदेश) में क्रमश: 13.0, 15.4, 14.6, 13.2 तथा 17.7 प्रतिशत वोट सोशलिस्ट पार्टी को मिले। पहली लोकसभा में सोशलिस्ट 10 सीटों पर विजयी रहे। 1957 के लोकसभा चुनाव में सोशलिस्टों को 12.4 फीसद वोट मिले, वहीं जनसंघ को 9.4 फीसद वोट मिले थे। 1952 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में सोशलिस्टों को 21.3 फीसद तथा जनसंघ को मात्र 0.9 फीसद मत मिले थे।

अब सवाल है कि भाजपा कैसे ताकतवर बनी? हिंदुस्तान में राजनीतिक पार्टियों का इतिहास बताता है कि केवल जनसंघ अब भाजपा ही एकमात्र सियासी पार्टी है जिसके बनने से लेकर आज तक कभी इसमें टूट नहीं हुई। कभी-कभार इक्के-दुक्के नेताओं ने बगावत की भी तो वे कामयाब नहीं हो सके। भाजपा को छोड़कर भारत में एक भी पार्टी ऐसी नहीं है जिसमें विभाजन न हुआ हो। कांग्रेस, कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट, जनता पार्टी, जनता दल जैसे राष्ट्रीय दलों में विभाजन होता रहा, क्षेत्रीय पार्टियों में भी टूट का सिलसिला चलता रहा।

भाजपा की एकता का एकमात्र कारण आर. एस. एस. जैसे संगठित, अनुशासित, एक झंडे, एक नेता के पीछे चलनेवालों का समूह रहा है। संघ सैकड़ों अपने सहमना प्रकोष्ठ चलाता है जैसे भारतीय मजदूर संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, राष्ट्र सेविका समिति, सेवा भारती, संस्कार भारती, हिंदू शिक्षा समिति, प्रवासी सेवा संघ वगैरा-वगैरा।

कुछ ऐसी कड़वी सच्चाइयां हैं जिनको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। भाजपा ऐसे ही ताकतवर नहीं बन गयी, मेरे बचपन में गर्मी हो या सर्दी, सुबह भोर में ही कान में आवाज सुनाई पड़ती थी फलाने जी, शाखा का समय हो गया है जल्दी पहुंचो। मेरे मोहल्ले के दो आर. एस. एस. कार्यकर्ता निक्कर पहनकर घर-घर जाकर बालकों-नौजवानों को शाखा में आने का इसरार करते थे। लाल किले के सामने परेड मैदान में नियमित शाखा लगती थी। उन दिनों संघ के कार्यकर्ता मजाक के पात्र होते थे। गांधी के हत्यारे होने के कारण अवाम में ये बदनाम थे परंतु समय बीतते-बीतते इनका प्रभाव बढ़ता गया। दिल्ली में इनकी ताकत बढ़ने की शुरुआत का एक कारण हिंदुस्तान-पाकिस्तान बनने के कारण जो विस्थापित हिंदू दिल्ली आए थे, उनकी बातों को सुनकर दिल्ली में हिंदू-मुसलमान की नफरत फैलने लगी। दूसरा कारण व्यापारिक तबका, मध्यवर्ग, सरकारी कर्मचारी तथा हिंदू धर्माचार्यों-पुजारियों का समर्थन जनसंघ को मिलने लगा। आर.एस.एस.-भाजपा ने हिंदू अवाम में मुसलमानों के खिलाफ प्रचार कर हिंदुओं को उकसा दिया कि अगर तुम संगठित नहीं हुए तो मुसलमान तुम पर अत्याचार और राज करेंगे।

हम वैचारिक आधार पर इनकी कितनी भी आलोचना करें परंतु यह कड़वी सच्चाई है कि आर. एस. एस. के हजारों-हजार स्वयंसेवक मुल्क के हर हिस्से में अपने मिशन में लगे रहते हैं और जबसे भाजपा राज्यों और केंद्र में शासन में आयी है तो इन्होंने सरकारों का दोहन करके बेशुमार दौलत इकट्ठा कर अपने संस्थान विभिन्न नामों पर खड़े कर लिये। पहले दिल्ली में बनिये, पंजाबी तथा कुछ ब्राह्मण तबके तथा छोटे दुकानदार इनकी ताकत बने थे परंतु आज इन्होंने अपने शिशु मंदिर, स्कूल, झुग्गी-झोपड़ियों, आदिवासियों में धन का इस्तेमाल कर गरीब बच्चों में अपनी पैठ बना ली है। जैसे-जैसे भाजपा शासन में काबिज होती गई इन्होंने अनुशासन, समर्पित कार्यकर्ताओं, धनशक्ति के बल पर चौतरफा कब्जा जमाने का कार्य शुरू कर दिया।

अब सवाल है कि इन हालात से कैसे निपटा जाए?

1. दिमाग की वैचारिक सफाई, जातिवाद, धार्मिकता, अंधविश्वास, सांप्रदायिकता पर लगातार शिविरों, सेमिनारों, अध्ययन केंद्रों साहित्य के निर्माण और प्रचार-प्रसार का क्रम चलता रहे।

2. बहस का रुख भाजपा के एजेंडे हिन्दू-मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद से हटकर गरीब-अमीर, महॅंगाई, भ्रष्टाचार, रोजी-रोटी, दवाई-पढ़ाई, मकान वगैरह की ओर मोड़ना होगा।

3. यह एक हकीकत है कि आज विपक्ष में हिंदुस्तान में एक भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं है जो कि विश्वसनीय दल होने का दावा कर सके। भारत की राजनीति क्षेत्रीय होती जा रही है। जिन राज्यों में राष्ट्रीय पार्टी मजबूत भी दिखाई देती है वह भी क्षेत्रीयता का रूप ले रही है। टुकड़ों में बॅंटी राष्ट्रीय पार्टियॉं, क्षेत्रीय पार्टियों को आकर्षित नहीं कर सकतीं।

4. संगठित विपक्ष ही जाति, सम्प्रदाय, क्षेत्रीयता पर प्रभावी असर डाल सकता है और मतदाताओं को राजनीतिक तथा नए अनुभवों पर मत देने को प्रभावित कर सकता है।

5. 1967 में जिस प्रकार डॉ. राममनोहर लोहिया ने गैर-कांग्रेसवाद की रणनीति दी थी आज वह गैर-भाजपावाद में बदलनी चाहिए।

6. भाजपा सहित कांग्रेस रहित कोई भी रणनीति देश को बर्बाद करनेवाली होगी।

अगर विपक्ष में साझा समझ बन जाए तो आज भी भाजपा का सूपड़ा साफ होने में वक्त नहीं लगेगा। अन्यथा भाजपा शासक बनी रहेगी।

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