आज किस भगतसिंह को याद करें? इस नौजवान क्रांतिकारी की छवि और स्मृति-चिह्नों के साथ जो मनमानी हो रही है, उसे कैसे रोकें और टोकें? गांधी की स्मृतियों के साथ जैसा मनमाना बरताव हुआ कहीं वैसा ही भगतसिंह की भी स्मृतियों के साथ ना हो— क्या हम ऐसी होनी को रोक नहीं सकते हैं? इन सवालों पर गौर-ओ-फिक्र करना भगतसिंह के शहादत दिवस (23 मार्च) को मनाने का सबसे बेहतर तरीका है।
पंजाब में नव-निर्वाचित आम आदमी पार्टी की सरकार ने भगतसिंह की नयी छवि तैयार करने की कोशिश की तो ऐसे छवीकरण के बरअक्स ये सवाल सहज ही उठने थे। यों देखें तो विवाद बड़ा मामूली किस्म का था। सूबे के नये मुख्यमंत्री भगवंत मान ने भगतसिंह की एक सजीली तस्वीर (इस तस्वीर के बगलगीर बाबासाहब आंबेडकर की तस्वीर भी थी) लगायी जिसमें भगतसिंह को बसंती पगड़ी पहने दिखाया गया है। भगवंत मान खुद भी यह पगड़ी पहनते हैं और बीते कुछ सालों में इसे लोकप्रिय बनाया है। उन्होंने सभी पंजाबियों को न्योता दिया कि आप सब भगतसिंह के पैतृक गांव खटकर कलां में हो रहे शपथ-ग्रहण समारोह में बसंती रंग के बाने में आएं। भगतसिंह के लेखन को खोजने और सहेजने के अनवरत प्रयास में लगे इतिहासकार चमनलाल ने तत्काल ध्यान दिलाया था कि जिस तस्वीर का भगवंत मान ने इस्तेमाल किया है वह भगतसिंह की मौजूद चार ऐतिहासिक तस्वीरों से अलग हटकर है। भगतसिंह के कुछ रिश्तेदारों की तरफ से भी ऐसी आपत्ति दर्ज की गयी।
पंजाब के नये मुख्यमंत्री ने भगतसिंह की जिस तस्वीर का इस्तेमाल किया, उसमें कोई बुराई नहीं है। वह तस्वीर भले ही प्रामाणिक ना हो लेकिन आकर्षक है और इस रूप में कैलेंडर कला का एक अच्छा नमूना कहला सकती है। भगतसिंह की तस्वीर को लेकर पहले भी विवाद हुए हैं, जैसे भगतसिंह की वह तस्वीर जिसमें उन्हें क्लीन शेव्ड और हैट पहने दिखाया गया है। इस तस्वीर को लेकर आपत्ति जतायी गयी, कहा गया कि यह तस्वीर भगतसिंह की सिख युवक के रूप में कायम पहचान को मिटाने की कोशिश है। लेकिन भगवंत मान ने जिस तस्वीर का इस्तेमाल किया उसके बारे में ऐसी आपत्ति नहीं उठायी जा सकती। वैसे भी, उस अमर गीत ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ की बदौलत क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों और बसंती रंग के बीच एक ऐतिहासिक नाता बना चला आया है।
यह तर्क भी दिया जा सकता है कि आखिर किसी ऐतिहासिक व्यक्तित्व की यादों को सिर्फ प्रामाणिक तस्वीरों के जरिए जताने-दिखाने की मजबूरी से अपने को क्यों बॉंधे रखें। अगर जोर इसी बात पर हो कि इतिहास के महिमावान किरदारों की हर तस्वीर उनकी प्रामाणिक तस्वीर की प्रतिकृति ही होनी चाहिए तो फिर इसमें कला की बात क्या रही। जाहिर सी बात है, आप किसी ऐतिहासिक व्यक्तित्व के परिवार-जन हो सकते हैं, उसके अनुयायी हो सकते हैं मगर इसका मतलब ये तो नहीं कि आप ही उस ऐतिहासिक व्यक्तित्व की छवियों के इस्तेमाल पर नियंत्रण भी रखें।
भगतसिंह के परिवार-जन में से एक प्रोफेसर जगमोहन सिंह ने बात को उसके सही परिप्रेक्ष्य में रखा, उन्होंने कहा कि बात दरअसल भगतसिंह के फोटोग्राफ्स की नहीं है, बात भगतसिंह के विचारों की है। विवाद की जड़ में यही बात है। सो, वसंती पगड़ी पहने भगतसिंह की तस्वीर को लेकर उठा विवाद उससे कहीं ज्यादा गहरा है जितना ही ऊपर से वह किसी को प्रतीत हो सकता है। आपत्ति के पीछे यह बात छिपी है कि इतिहास के गलियारों से उभरते एक नायक को एक खास किस्म की राजनीति के चौखटे में फिट किया जा रहा है, इसी निमित्त उसका दोहन और अनुकूलन किया जा रहा है।
एक चित्र – समय की शिला पर अमिट
भगतसिंह उन चंद राष्ट्रवादी नायकों में हैं जिनकी सूरत और सीरत पर बीते वक्त की शिकन ज्यादा नहीं पड़ी। नेहरू की छवि का तो खैर हद दर्जे तक इस्तेमाल हुआ और उनके बारे में संगठित तौर पर निन्दा अभियान चला, नतीजतन नेहरू की छवि बड़ी हद तक आज तोड़-मरोड़ का शिकार है। गांधी की छवि के साथ भी ऐसा ही हुआ है, भले ही नेहरू की छवि की तुलना में कुछ कम।
सावरकर को महिमा के पीढ़े पर प्रतिष्ठित करने की कैसी भी जीतोड़ कोशिश उनके अनुयायी क्यों ना कर लें लेकिन सावरकर के जीवन का सच प्रतिष्ठापन की ऐसी कोशिशों के आड़े आ ही जाता है। हां, बाबासाहब आंबेडकर आधुनिक भारत के उन चंद नायकों में हैं जिनकी कीर्ति की पताका हाल के वक्त में लगातार ऊंची हुई है। सामाजिक हदबंदियों के जिस दायरे में लंबे समय समय तक बाबासाहब आंबेडकर की छवि बंद रही, उसे तोड़ते हुए, हाल के समय में वह कहीं ज्यादा सर्व-व्यापी हुई है। सो, पंजाब की नयी सरकार ने अगर भगतसिंह के साथ-साथ बाबासाहब आंबेडकर की भी तस्वीर लगाने का आदेश किया है तो इसमें अचरज की कोई बात नहीं।
भगतसिंह की छवि पर समय की शिकन ना के बराबर है, वह एक अमिट चित्र की तरह मौजूद है। भगतसिंह की छवि को न तो किसी एक भूगोल के दायरे में बॉंधा जा सका है ना ही किसी एक जाति या समुदाय का ही उसपर घेरा डाला जा सका है। भगतसिंह की छवि की चमक को आधिकारिक समारोहों की तामझाम से भी फीका नहीं किया जा सकता। लेकिन क्या भगतसिंह को एक ऐसे प्रतीक में बदला जा सकता है कि उनकी मूर्ति और छवियां तो चहुंओर हों लेकिन ये मूर्तियां और छवियां भगतसिंह की विचारधारा और राजनीति का संकेत ना करें? क्या भगतसिंह की स्मृतियां ऐसी नियति को प्राप्त होंगी? आज असल चुनौती यह है।
भगतसिंह का आकर्षण बना हुआ है- जाति-धर्म आदि के तमाम घेरे को लॉंघती हुई उनकी छवि आज भी नौजवानों को प्रेरित और आंदोलित करती है- और यही बात लालच पैदा करती है कि भगतसिंह की छवि को किसी तरह अपनी राजनीति के चौखटे में फिट कर लिया जाए। ऐसा होना कोई नयी बात नहीं। भगतसिंह के जीवित रहते ही उनका मूर्तीकरण शुरू हो गया था और तब से आज दिन तक यह मूर्तीकरण जारी है। भगतसिंह उस जुझारू राष्ट्रवाद के प्रतीक के रूप में बने चले आ रहे हैं जो राष्ट्रवाद की गांधीवादी मुख्यधारा के विरोध में खड़ी थी। वामपंथ ने बड़ी कोशिशें कीं (लेकिन खास कामयाबी नहीं मिली) कि भगतसिंह की छवि को एक ऐसे कम्युनिस्ट और अनीश्वरवादी के रूप में बनाए रखा जाए जो जीवन के आखिरी दिन तक लेनिन को पढ़ता रहा।
लेकिन धीरे-धीरे, भगतसिंह सिंह की ऐतिहासिक छवि घिसकर एक ऐसे सर्व-सामान्य प्रतीक पुरुष में ढल गयी जिसका इस्तेमाल तमाम किस्म की राष्ट्रवादी उद्भावनाओं के लिए किया जा सके। हम उन्हें एक आदर्शवादी नौजवान के रूप में याद करते हैं जिसने देश की आजादी के लिए प्राण न्योछावर किये और इस रूप में याद करते हुए हमें ये फिक्र सताती ही नहीं कि भगतसिंह के पास एक सपना था- सपना कि मेरा आजाद भारत कैसा हो। हम भगतसिंह को नौजवानों के आदर्श के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं, उन्हें सिर्फ जोश और जुनून के एक स्रोत के रूप में पेश करते हैं और इस क्रम में भगतसिंह के जीवन और कर्म से जुड़ी यह बात तो सिरे से भुला ही दी जाती है कि भगतसिंह चाहते थे, नौजवान राजनीति से जुड़ें। हम उन्हें क्रांतिकारी कहते हैं लेकिन इस बात को भुला देते हैं कि क्रांति तो किसी महत् प्रयोजन से किसी चीज की बुनियाद को बदल देने का नाम है।
बुनियादी बदलाव की भावनाओं को मिटा देने की लंबी कोशिश चली है और ऐसी ही कोशिशों का नतीजा आज हमारे सामने है जो आज देखने को मिलता है कि भगतसिंह तो कांग्रेस को भी हासिल हैं जबकि भगतसिंह ने कांग्रेस की राजनीति की तीखी आलोचना की थी और भगतसिंह की प्रशंसा में अकाली भी पलक-पांवड़े बिछा रहे हैं जबकि भगतसिंह घोषित तौर पर नास्तिक थे और इसी क्रम में सबसे गजब यह कि बीजेपी इस बात को जनता-जनार्दन की यादों से मिटाने में लगी है कि भगतसिंह ने अपने वक्त में हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को निन्दा-भाव से देखा था।
आम आदमी पार्टी भगतसिंह की छवि के दोहन और अनुकूलन की ऐसी कोशिशों को एक कदम और आगे ले जाना चाहती है। पंजाब की नयी सरकार ने सभी सरकारी दफ्तरों में भगतसिंह और बाबासाहब आंबेडकर की तस्वीर लगाने का फैसला लिया है और इस फैसले के साथ हम देखेंगे कि एक सरकारी किस्म के भगतसिंह का निर्माण हो रहा है। और, इस मायने में देखें तो भगतसिंह की वही गति होने जा रही है जो महात्मा गांधी की हुई। जैसे गांधी की छवि विरूपित होकर सरकारी महात्मा में तब्दील हो गयी यानी एक ऐसे व्यक्तित्व के रूप में जो चहुंओर दिखे, जिसके मुंह में क्रोध से भींच लिये जानेवाले दांत ना हों, अगर हो तो बस ऐसी जुबान जो हर कर्म-अकर्म पर आशीर्वाद बरसाया करे, वैसे ही भगतसिंह की छवि को एक सरकारी क्रांतिकारी में बदला जा सकता है यानी अपने रंग में क्रांतिकारिता का आभास देनेवाला एक लिफाफा जिसके भीतर कैसा भी रूढ़िपरस्त संदेश लिखकर भरा और भेजा जा सके। मुझे तो इस सोच से कंपकंपी आती है कि भगतसिंह की तस्वीर सूबे पंजाब के हर थाने में टॅंगी होगी और थाने की दीवार पर टॅंगी यह तस्वीर अपनी खुली ऑंखों से देख रही होगी कि कैसे पंजाब पुलिस टेबुल के नीचे से लेन-देन के कुकर्म कर रही है और कैसे ‘मुठभेड़ों`को अंजाम दे रही है।
प्रतीकों का मनभावनीकरण : यह सूरत बदलनी चाहिए
आसन्न खतरा है कि भगतसिंह अपने मायने की तलाश में खड़ी एक मूर्ति में ना बदल दिये जाएं, एक ऐसे प्रतीक में ना बदल दिये जाएं जिसके सहारे किसी भी मनभावन अर्थ का संकेत किया जा सके। कहीं उन्हें एक ऐसे निशान के रूप में ना बदल दिया जाए जिसे किसी भी दिशा में घुमाकर कहा जा सके कि रास्ता इसी ओर से है, इधर ही जाइए। जैसे वसंती रंग की पगड़ी कोई भी पहन सकता है और कुछ भी जताने के लिए पहन सकता है वैसे ही आसन्न खतरा है कि कहीं भगतसिंह की छवि का इस्तेमाल हमारी स्मृतियों में मौजूद गांधी की गुरुता के भंजन, नेहरू की साख के हनन और टैगोर की महिमा के मर्दन के लिए भी ना होने लगे। प्रतीक-पुरुषों के मनभावनीकरण की इस प्रक्रिया को पलटना उन सबके एजेंडे में होना चाहिए जो भारत नाम के गणराज्य पर अपना दावा फिर से जताना चाहते हैं।
ऐसे प्रयासों के लिए जरूरत है कि हम भगतसिंह को खोजें- उन्हें एक चिन्तक और कार्यकर्ता के रूप में पहचानें। अपने वक्त के तमाम उग्र राष्ट्रवादियों के विपरीत भगतसिंह ऐसे क्रांतिकारी ना थे जिसकी अंगुली हर वक्त और हर बात पर बंदूक की लिबलिबी दबाने के लिए मचलती हो। हमें यह याद करने की जरूरत है कि भगतसिंह अध्ययनशील थे, उनका अध्ययन व्यापक था, बड़ी गहराई से सोचते थे। उन्होंने ताकतवर गद्य लिखा है और अपने संकल्प और निष्ठा पर प्राणपण से खड़ा होने का भरपूर साहस था उनमें। हमें खासतौर पर भगतसिंह की विचारधारा की तीन बातों—राष्ट्रवाद, समाजवाद और सेक्युलरिज्म को याद करने की जरूरत है।
याद रहे कि भगतसिंह का राष्ट्रवाद तंगनजरी का शिकार नहीं था, उसमें अपने को बाकियों से बढ़कर और श्रेष्ठतम बताने की ललक और हनक नहीं थी। भगतसिंह सकारात्मक अर्थों में राष्ट्रवादी थे, साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में हरेक को एकजुट करने की प्रेरणा की लौ जगमगा रही थी उनके राष्ट्रवाद में और वे अपने इस उद्यम में किसी से भी और कहीं से भी, कुछ भी सार्थक सीखने को हरचंद तैयार थे। यह उद्यम उनके सेक्युलरिज्म के भाव से जुड़ा हुआ था। वे अनीश्वरवादी थे और हर किस्म की सांप्रदायिकता के खिलाफ थे।
सांप्रदायिक घृणा फैलाने में मीडिया कितनी बड़ी भूमिका निभाता है, इसे लेकर भगतसिंह ने जो कुछ लिखा है उसे आज के वक्त में हमें रोजमर्रा के तौर पर याद रखने की जरूरत है।
सबसे अहम बात हम ये याद रखें कि भगतसिंह के लिए क्रांति अलग से कोई शय नहीं बल्कि समाजवाद की उनकी विचारधारा का ही हिस्सा है। वे भारतीय क्रांतिकारियों की उस पहली पीढ़ी के सदस्य थे जिसने रूस की क्रांति और मार्क्सवादी विचारधारा से प्रेरणा ली। एक समाजवादी के रूप में उनका सपना था कि भारत से आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी हमेशा के लिए खत्म हो जाए। भगतसिंह की यादों का राजनीति के किसी मनभावनी चौखटे में मूर्तीकरण ना हो, इसका एकमात्र तरीका यही है कि हम उनकी क्रांतिधर्मिता की एक नयी छवि गढ़ें जिसमें भगतसिंह की विचारधारा के इन तीन तत्त्वों का समावेश हो।
ऐसी कोशिशों के साथ हमें यह भी स्मरण करना चाहिए कि 23 मार्च राममनोहर लोहिया की जन्मतिथि भी है यानी एक ऐसे नायक की जन्मतिथि जो एक अलग भाषा में इन्हीं तीन बातों के लिए प्रतिबद्ध था। हम जानते हैं कि लोहिया ने कभी अपना जन्मदिन नहीं मनाया और 23 मार्च को हमेशा शहीद दिवस कहकर ही याद किया। अगर हम भगतसिंह की एक नयी छवि गढ़ पाये (चाहे उसमें वसंती पगड़ी हो या ना हो) तो हम भगतसिंह के शहादत दिवस के साथ लोहिया का जन्मदिवस भी मना सकते हैं।
(द प्रिंट से साभार)