— नंदकिशोर आचार्य —
भारत की अर्थव्यवस्था की दुर्गति का एक महत्त्वपूर्ण बल्कि शायद सर्वाधिक प्रमुख कारण हमारी अर्थनीति के संचालकों और उनके सलाहकारों की घोर अमौलिकता और उनमें प्रयोगशीलता के लिए आवश्यक साहसिकता का अभाव है। इसका कारण यह है कि उनकी शिक्षा और बौद्धिक वातावरण ने चिन्तन की प्रक्रिया और उसकी प्रामाणिकता की कसौटी के रूप में जिन अवधारणाओं को उनका संस्कार बना दिया है, उससे उनका मुक्त हो सकना लगभग असंभव-सा हो गया है। सीधे शब्दों में कहें तो इसका मुख्य कारण वह विश्वविद्यालयी शिक्षा है जो कुछ पूँजीवादी अवधारणाओं को उनपर इस तरह आरोपित कर देती है कि किसी भी प्रकार के विकल्प की खोज के लिए उनमें कोई इच्छा ही नहीं बचती और उन्हें लगता है कि पिटे-पिटाये रास्तों के अलावा और कोई रास्ता ही नहीं है।
दुनिया में विकल्पों की खोज करनेवाले लोग भी हैं, उनके बताये विकल्पों का भी प्रयोग किया जाना चाहिए, यह बात ही उन्हें अव्यवहारिक और स्पष्ट शब्दों में कहें तो अहमकाना लगती है। ऐसा लगता है कि ये लोग एक क़िस्म के ऐतिहासिक नियतिवादके शिकार हैं जिसमें मानवीय स्वतंत्रता और पहल की कोई प्रासंगिकता नहीं है– यद्यपि यह ऐतिहासिक नियतिवाद अपने मार्क्सवादी संस्करण से बिल्कुल उलट है क्योंकि इसमें विचार के स्तर पर भी समता या शोषण-मुक्ति की कोई संभावना दूर-दूर तक नहीं दिखायी देती। इसलिए यह दुखद होते हुए भी आश्चर्यजनक नहीं लगता कि इन अवधारणाओं की शिक्षा देनेवाले विश्वविद्यालयों से निकले अर्थशास्त्र के अधिस्नातकों के बहुलांश को ऐसे अर्थशास्त्रियों या अवधारणाओं की न्यूनतम जानकारी भी नहीं होती जिन्होंने कुछ विकल्प प्रस्तावित किये हैं।
कितने विश्वविद्यालय ऐसे होंगे जो अपने पाठ्यक्रमों में अर्थशास्त्र की चालू पद्धति से असहमत होने और विकल्प प्रस्तावित करनेवाले गांधी, कुमारप्पा, शुमाकर, लीविस ममफोर्ड, लोहिया आदि ही नहीं, पाल बरन, आन्द्रे गुण्डर फ्रेंक और डडले सीयर्स जैसे अर्थशास्त्रियों के चिन्तन तो क्या नाम तक से अपने विद्यार्थियों को परिचित करवाते हैं? इसका एक परिणाम यह होता है कि हमारा नीति-निर्माता वर्ग और उन्हें चुननेवाला समाज, दोनों ही यह मानने लग जाते हैं कि आर्थिक उन्नति का एक ही रास्ता है, जिस पर चलने के सिवा कोई और विकल्प हमें उपलब्ध ही नहीं है। दूसरे शब्दों में, इसका नतीजा यह होता है कि सामान्य जनता के मन में भी विकल्प तलाश करने की आकांक्षा क्षीण होती जाती है और तब वह कोई वास्तविक विकल्प चुनने के बजाय सत्तारूढ़ और प्रतिपक्षी राजनीतिक दलों की अदला-बदली को ही परिवर्तन मानकर संतुष्ट होती रहती है – बिना यह जाने कि एक-सी आर्थिक प्रक्रिया को माननेवाले दो दलों में से किसी एक का चुनाव कोई वास्तविक चुनाव नहीं है।
पूँजीवाद यदि बहुदलीय या द्विदलीय संसदीय प्रणाली को समर्थन देता है तो इसीलिए कि इस तरह वह एक लोकतांत्रिक मुखौटे में अपनी आर्थिक तानाशाही चलाता रह सकता है। फुकुयामा जैसे विचारक यदि उदारवादी संसदीय लोकतंत्र की पूँजीवादी व्यवस्था में इतिहास का अंत प्रस्तावित करते हैं तो इसके पीछे उनका मुख्य तर्क है कि इस व्यवस्था के विकल्प की आवश्यकता ही अब अनुभव नहीं होती- और ऐसा अनुभव न होने का मुख्य कारण यही है कि हमारे बौद्धिक संस्थानों और मीडिया द्वारा एक ऐसा वातावरण बना दिया गया है जिसमें किसी विकल्प की संभावना तक को अव्यावहारिक और अहमकाना मान लिया जाता है। जो एकमात्र रास्ता बताया गया है उसी में यत्र-तत्र कुछ संशोधन-परिवर्तन करने से काम चलते रहने की उम्मीद जगाये रखी जाती है।
हमारे आर्थिक जीवन– और प्रकारान्तर से राजनीतिक-सामाजिक जीवन को भी– प्रभावित करनेवाली मुख्य अर्थशास्त्रीय अवधारणा विकास है। हमारे देश में विकास का सीधा-सादा मतलब पूँजी निवेश और उत्पादन में वृद्धि है। यह समझा जाता है कि इससे आय में भी वृद्धि होगी और आय में यह वृद्धि अठारहवीं शताब्दी में एडम स्मिथ द्वारा प्रस्तावित अदृश्य हाथद्वारा समाज के निम्नतम स्तर तक स्वयमेव रिस-रिस कर पहुँच जाएगी। यही कारण है कि आज भी हम सकल राष्ट्रीय उत्पाद और सकल राष्ट्रीय आय में वृद्धि को ही विकास मानते हैं और आँकड़ों की प्रस्तुति द्वारा बार-बार यह सिद्ध करने का प्रयास करते रहते हैं कि विकास हो रहा है।
लेकिन अर्थशास्त्रियों का एक वर्ग ऐसा भी है जो सकल राष्ट्रीय उत्पाद और सकल राष्ट्रीय आय में वृद्धि को विकास की एकमात्र कसौटी नहीं मानता। यह दुखद है कि हमारे अधिकांश बौद्धिक संस्थान उनकी आलोचना की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं देते और विकास की अवधारणा की अपनी व्याख्या में उनके विचारों को शामिल नहीं करते। डडले सीयर्स ने विकास की कसौटी जीएनपी और जीडीपी में वृदधि को मानने के बजाय यह मानी है कि गरीबी, बेरोजगारी और असमानता किस हद तक दूर हुई है।
सकल राष्ट्रीय उत्पाद या आय में वृद्धि के आँकड़े भ्रामक हो सकते हैं क्योंकि यदि दस व्यक्तियों के समूह में एक व्यक्ति की आय सौ रुपए प्रतिदिन और बाकी की एक रुपया या दो रुपया प्रतिदिन हो तो सकल आय का औसत तो नौ व्यक्तियों की आय से बहुत अधिक होगा, लेकिन इससे नौ व्यक्तियों की आय संतोषजनक नहीं होगी और यदि उनमें से कुछ व्यक्ति बेरोजगार हैं तो सकल आय का औसत उनके लिए अप्रासंगिक होगा। इसलिए डडले सीयर्स ने कहा था कि सकल राष्ट्रीय आय के दुगुना हो जाने पर भी गरीबी, बेरोजगारी और असमानता बनी रह सकती है और तब इसे विकास कहना सही नहीं होगा। सीयर्स जो बात अर्थशास्त्र की शब्दावली में कहना चाह रहे हैं, वह गांधी ने अपने तरीके से बहुत पहले कह दी थी कि आखिरी आदमी ही हमारे किसी भी कार्यक्रम की कसौटी हो सकता है।
इस दृष्टि से देखा जाए तो राष्ट्रीय उत्पाद और आय में निरन्तर वृद्धि के बावजूद शायद ही किसी देश को विकसित कहा जा सकता है क्योंकि विकसित माने जानेवाले देशों में भी गरीबी और बेरोजगारी तो मौजूद है ही, असमानता भी लगातार बढ़ती गयी है। यदि हम पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को एक मान लें, जिसका पुरजोर आग्रह हमसे किया जा रहा है, तो भिन्न-भिन्न देशों के बीच जो असमानता है और पूरी दुनिया में जो गरीबी और बेरोजगारी है, वह यही बताती है कि वास्तविक विकास अभी बहुत दूर है।
कहा जा सकता है कि आर्थिक भूमण्डलीकरण का असल तात्पर्य ही यही है कि गरीब और अविकसित देशों को भी विकास की प्रक्रिया में शामिल करके उनकी गरीबी और बेरोजगारी को मिटाया जाय। लेकिन यह कहते हुए डॉ. लोहिया द्वारा संकेतित इस बात को भुला दिया जाता है कि विकसित माने जानेवाले देशों की संपन्नता बहुत हद तक उनके द्वारा एशिया-अफ्रीका और लातिन अमेरिका के देशों के आर्थिक शोषण की वजह से है।
यहाँ पाल बरन और आन्द्रे गुण्डर फ्रेंक जैसे लोगों का यह निष्कर्ष भी उल्लेखनीय है कि पूँजीवादी विकास-प्रक्रिया के प्रसार में अन्य देशों या वर्गों के विकास का अवरुद्ध हो जाना हमेशा संभव रहता है और उच्चस्तर वाले बीस प्रतिशत और निम्न वर्ग वाले चालीस प्रतिशत लोगों के बीच असमानता निरंतर बढ़ती जाती है। आन्द्रे गुण्डर फ्रेंक ने तो अन्तरराष्ट्रीय पूँजीवादी विकास से जुड़े कुछ सांस्कृतिक दुष्परिणामों और बौद्धिक उपनिवेशवाद और अपने समाज की दृष्टि से अप्रासंगिक बल्कि संवेदनहीन शिक्षा-व्यवस्था का भी उल्लेख किया है, जिन पर अलग से विचार की जरूरत है। विकास की प्रचलित अवधारणा से हमारे शिक्षित वर्ग का अभिभूत होना एक प्रकार से बौद्धिक उपनिवेशवाद और संवेदनहीन शिक्षा का प्रमाण ही माना जा सकता है।
डॉ. मनमोहन सिंह अन्तरराष्ट्रीय स्तर के एक प्रख्यात अर्थशास्त्री हैं, इसलिए इस देश के साधारण जन का उनसे यह अपेक्षा करना स्वाभाविक ही था कि वह इस देश को उस वास्तविक विकास की मंजिल की ओर ले जाएंगे जिसकी बात महात्मा गाँधी और डडले सीयर्स ने की है। लेकिन अपनी सारी सदाशयता के बावजूद मनमोहन सिंह ऐसा नहीं कर सके। इसका स्पष्ट कारण यही है कि मनमोहन सिंह भी अन्ततः उन्हीं बौद्धिक संस्थानों के उत्पाद हैं जिनका प्रयोजन विकास की पूँजीवादी अवधारणा को उसकी एकमात्र अवधारणा के रूप में प्रचारित करना और स्वीकृत करवाना रहा है। यह नहीं भूला जा सकता कि लंबे अरसे से मनमोहन सिंह हमारी अर्थनीति के प्रस्तावकों में रहे और इस दीर्घ जीवन में उन्हें भारत की विशेष परिस्थिति के अनुकूल किसी वैकल्पिक मॉडल की प्रस्तावना का श्रेय नहीं दिया जा सकता।
जब मानवीय चेहरे के साथ सुधार की बात की जाती है तो इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि ये सुधार अपने आप में मानवीय नहीं हैं। यदि ये अपने आप में मानवीय नहीं हैं तो फिर इनकी जरूरत ही क्या है? क्या हमारे अर्थशास्त्री और नीति-निर्माता इतने अनुकरणधर्मी और अमौलिक हैं कि वे किसी ऐसे विकल्प का विकास नहीं कर सकते जो अपने आप में मानवीय हो और जिसे मानवीय चेहरे में दिखाने का कोई कृत्रिम प्रयास उन्हें नहीं करना पड़े?
यह उल्लेखनीय है कि मनमोहन सिंह के वित्तमंत्रित्व-काल में भारत गैट में सम्मिलित हुआ। इसका एकमात्र कारण विकास की उस अवधारणा को स्वीकार करना था, जिसका समर्थन अन्तरराष्ट्रीय पूँजीवाद और उससे प्रेरित गैट-प्रस्ताव कर रहे थे। यदि विकास की उसी अवधारणा और उससे जुड़ी प्रक्रिया में ही चलते रहते हैं तो सारे मानवीय चेहरे के बावजूद उसके परिणाम मानव-विरोधी ही होंगे। विकास की प्रचलित अवधारणा की आलोचना करते हुए महबूब उल हक़ जैसे अर्थशास्त्री ने कभी कहा था कि विकास जनता के लिए है, न कि जनता विकास के लिए और इसलिए वह बाजार की जरूरत से नहीं, मानवीय जरूरतों से निर्देशित होना चाहिए। महबूब उल हक़ के अनुसार वह तभी संभव है जब गरीबी पर सीधा प्रहार हो। बाजार का माध्यम होना तो बाजार को बढ़ाएगा और उस हद तक गरीबी और असमानता को भी। क्या हमारे पास विकास की कोई मौलिक और वैकल्पिक कल्पना है?