सुनील भाई से पीढ़ियां प्रेरणा लेंगी

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— बाबा मायाराम —

सुनील भाई को पीढ़ियां याद करेंगी और उनसे प्रेरणा लेंगी, यह मैं इसलिए नहीं कह रहा क्योंकि मैंने उनके साथ लम्बे अरसे तक काम किया है, उनके साथ रहा हूं। बल्कि इसलिए कह रहा हूं, अगर कबीर की भाषा में कहें तो उनकी कथनी और करनी में भेद नहीं था, जो कहा, जो माना, वो किया, वो जिया भी। ऐसी मिसाल कम ही मिलती है कि सिद्धांतों और मूल्यों का प्रचार करनेवाले उन पर अमल भी करते हों। इसलिए सुनील भाई विरले थे।

जब वे 80 के दशक में मध्यप्रदेश के होशंगाबाद आए थे, और केसला को कर्मक्षेत्र बनाया था तब भी गरीबी और गैरबराबरी थी, केसला जैसे आदिवासी प्रखंड में ज्यादा स्पष्ट तौर पर दिखती थी। उसपर चर्चा भी होती थी। इसी को आधार बनाकर राजनारायण भाई, सुनील भाई और स्थानीय ग्रामीणों ने किसान आदिवासी संगठन बनाया था और अपने हक व सम्मान की लड़ाई लड़ी थी।

लेकिन संगठन ने सिर्फ अधिकारों को लेकर ही लड़ाई नहीं छेड़ी, कई रचनात्मक काम भी किए। मछुआरों की लड़ाई लड़ी, तवा जलाशय में मछली का अधिकार पाया था, इसे न केवल अच्छे से चलाया था बल्कि निजीकरण व सरकारीकरण के बीच में सहकारीकरण की राह भी दिखाई थी।

संगठन के कामों की फेहरिस्त लम्बी है, उनके समाजवाद को लेकर मौलिक विचार भी उल्लेखनीय हैं। जिसमें से एक यह है कि लोहिया ने वोट, जेल और फावड़ा को संगठन का सूत्र बताया था। लेकिन सुनील भाई ने इसमें दो और सूत्र जोड़े विचार निर्माण व संगठन निर्माण। यह संगठन और विचारों के प्रचार-प्रसार की समग्र सोच थी।

लेकिन मैं यहां उनके दिनचर्या, उनकी सादगी, शारीरिक श्रम, बच्चों को पढ़ाना, झोले में पुस्तकालय, जैविक खेती की चर्चा करना चाहूंगा। उनकी दिनचर्या की शुरुआत में घर में झाड़ू लगाना, बिस्तर उठाने से लेकर चाय बनाना, भोजन पकाना, बर्तन साफ करना इत्यादि काम होते थे। हैंडपंप से खुद ही पानी लाते थे। वे स्वयं अपने कपड़े धोते थे। सुबह-सवेरे लेख लिखते थे, लिफाफे पर पता लिखते और पोस्ट करते।

सादगी और सुघड़ता की बात ही अनूठी थी, जो आज के दिखावे व तामझाम के दौर में बहुत ही दुर्लभ है। वे हर चीज को जगह पर रखते थे। इधर उधर बिखरी चीजों को समेटते थे। वे सफाईपसंद थे और उन्हें बेतरतीब ढंग से चीजें नापसंद थीं। पैदल चलना उन्हें पसंद था। वे केसला घरेलू व संगठन के काम से जाते थे तो पैदल ही।

संगठन के काम के लिए वे मीलों पैदल चलते थे। कई बार मुझे भी उनके साथ गांवों में जाने का मौका मिला है। प्रूफरेंज (सेना के बमों की टेस्टिंग का रेंज) के उस तरफ वाले गांवों में जाते थे तो दूसरे दिन ही आना होता था। दूरी बहुत होती थी। रात में गांवों में ही बैठक करते थे। बैतूल-सारणी के गांवों में भी कुछ बस से और ज्यादा पैदल ही जाते थे। एक बार हम दोनों गए थे और तीन दिनों में लौटे थे, कई गांवों का दौरा किया था। इनमें से बंजारी ढाल गांव भी था, जहां की महिलाओं ने अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी थी। संगठन के लोग आज भी नारा लगाते हैं- बाईचारा मत डरो, बंजारी ढाल को याद करो।

सुनील भाई न केवल जैविक यानी बिना रासायनिक खाद की खेती का महत्त्व समझते थे, बल्कि उनके घर के खेत में पूरी तरह बिना रासायनिक खेती ही होती थी। जिसे गांव की शांति बाई करती थी, लेकिन सुनील भाई खुद भी उसमें काम करते थे। सब्जी बाड़ी में कई तरह की सब्जियां होती थीं। फल भी।सेमी, टमाटर, केला, अमरूद, जामुन, बेर, नींबू इत्यादि। जो भी उनके घर आता था, वे केले खिलाते थे।

जब सुनील भाई के साथ मैं ‘सामयिक वार्ता’ में मदद करता था, तो वे अक्सर मेरे लिए घर से खाना ले आते थे। उसमें वे घर के नींबू व केले भी लाते थे। इसके अलावा, सुनील भाई के झोले में समाजवादी व जन मुद्दों से जुड़ी कई पुस्तिकाएं होती थीं, जिसे वे जहां भी जाते, लोगों को दिखाते और पढ़ने के लिए प्रेरित करते।

सुनील भाई लगातार सामयिक व आर्थिक मुद्दों पर लेख लिखते थे और लोक शिक्षण की दृष्टि से पुस्तिकाओं का प्रकाशन करते रहते थे। उनकी छोटी-छोटी पुस्तिकाएं लोगों को नयी जानकारी के साथ एक नजरिया भी देती थीं। इन पुस्तिकाओं में डंकल प्रस्तावों को कैसे समझें, भारत शिक्षित कैसे बने, उदारीकरण का असली चेहरा, याद करें हरिविष्णु कामथ को; गरीबी, भूख, और महंगाई कहां से आयी, मुसीबत के मार्ग, भ्रष्टाचार को कैसे समझें, इत्यादि। इनकी सूची लम्बी है। उन्होंने गहराई से गांवों, किसान, मजदूर, आदिवासियों व देश की समस्याओं पर चिंतन-मनन किया और सरल से सरल भाषा में लिखा भी और खूब लिखा।

उन्होंने गांव के कार्यकर्ता भी तैयार किए। उन्हें प्रशिक्षित किया, नयी दृष्टि दी। फागराम भाई, गुलिया बाई, बिस्तोरी, रावल सिंह, जुगन दादा जैसे कई कार्यकर्ता बने, जिन्होंने आज की भोगवादी सभ्यता के दौर में न केवल अपने आप को बचाए रखा है, बल्कि वे दूसरों के लिए प्रेरणा भी हैं। आज भी इन कार्यकर्ताओं का समर्पण व प्रतिबद्धता वैसी ही है।

व्यक्तियों की अपनी सीमाएं होती हैं। पर सुनील भाई ने बहुत ही कम समय में समाजवादी व जनांदोलनों को नए तेवर दिए, नए विचार दिए, नया हौसला दिया, नयी उम्मीद दी। उनके असामयिक निधन ने एक बड़ा झटका दिया पर उनके द्वारा जलाई गयी समर्पण की बाती जलती रहेगी, और सतपुड़ा की धरती ऐसे लोगों को पैदा करती रहेगी, ऐसी उम्मीद है।

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  1. आज के इस संत्रास युक्त दौर में हर संवेदनशील व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्तित्व को खोजता रहता है जहां उसे नैतिक मूल्य के साथ समाज के संरक्षण के लिए कोई आदर्श मिले, तब इस स्थिति में सुनील जी का स्मरण आना बहुत सामयिक लगता है।
    वैकल्पिक राजनीति के लिए कोई तो मॉडल होना चाहिए आज की राजनीति में ग्लैमर का होना अनिवार्य लगता है, परंतु जब सुनील जी के व्यक्तित्व को देखते हैं तो बड़ा सहज सरल आम आदमी से जुड़ कर समाज के लिए राजनीति करना एक उदाहरण ह।
    जेएनयू जैसे संस्थान से निकलकर मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के एक सुदूर कस्बे में रहकर अपनी विचारधारा के साथ लोगों से जुड़ कर जो सुनील जी ने किया वह हमेशा स्मरण रहेगा।
    उच्च शिक्षा लेना केवल ऊंची आए या ऊंचा पद लेना मानने वाले लोगों के लिए सुनील जी से सबक लेना चाहिए ऊंची शिक्षा से शिक्षा से यदि समाज को कुछ ना दे सके तो वह शिक्षा व्यर्थ हैं।
    समाजवादी आंदोलन भले ही आज उतना मुखर नहीं है परंतु उसकी प्रासंगिकता कभी भी कम नहीं हो सकती है।
    सुनील जी को जिन्होंने देखा है सुना है वह इस पीढ़ी को कैसे विश्वास दिलाएंगे कि ऐसे भी लोग होते हैं।
    बाबा मायाराम अपने लेखन से बहुत से उन पक्षों को सामने लाते हैं जिससे समाज की मुख्यधारा कटी हुई रहती है बाबा भाई आपका काम बहुत महत्वपूर्ण है आप लिखते रहिए।

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