— जबर सिंह —
मधु जी का नाम जून 1997 में 16 साल की उम्र में पहली बार उत्तराखंड के पहाड़ी जनपद टिहरी से देहरादून रेलवे स्टेशन पहुंचकर और वहां से सीधे मध्यप्रदेश के बैतूल स्थित डॉ लोहिया समता आदिवासी केंद्र में चल रहे युवा शिविर में समाजवादी नेता डॉ सुनीलम जी से सुना था। यह शिविर यूसुफ मेहर अली सेंटर के सहयोग से आयोजित किया गया था। इसमें प्रो. मधु दंडवते, श्री सुरेंद्र मोहन जी, श्री विनोदानंद सिंह जी आदि समाजवादी विचार के पुरोधाओं से मिलने, उनको सुनने-समझने का मौका पहली बार मिला। मुध लिमये जी के बारे में भी वहीं पहली बार सुना और उनका जीवन परिचय जाना, हालांकि तब मधु जी का निधन हो चुका था, अलबत्ता उनके निधन को ज्यादा समय नहीं बीता था, शायद इसलिए भी शिविर में पहुंचे वक्ताओं के भाषणों में उनका जिक्र हो रहा था। यह बात मुझे बाद में समझ आयी।
बहरहाल, इसके बाद भी दिल्ली के पड़पड़गंज स्थित सहविकास अपार्टमेंट में सुरेंद्र मोहन जी आदि के साथ घंटों और कई बार रात भर भी समाजवादी आंदोलन, समाजवादी नेताओं के आदर्शों, उनके त्याग पर बात छिड़ती, तो सबसे ज्यादा बात मधु लिमये जी पर होती। मुंबई जाने पर श्रद्धेय डॉ जीजी पारिख जी, तो पुणे में श्रद्धेय स्व भाई वैद्य जी सरीखे हमारे मार्गदर्शक नेता मधु जी के बारे में बताते। सभी उनकी जीवनी, उनके बोले व लिखे वाक्य अपने भाषणों में या व्यक्तिगत बातचीत में अक्सर उद्धृत करते थे। खासकर, सत्तापक्ष से उनके तीखे सवाल, आंदोलनों और समाजवादी विचारों से लोगों की जोड़ने की उनकी कला और उनके त्याग व ईमानदारी की मिसाल हम अक्सर सुनते रहे। पूर्व प्रधानमंत्री स्व. वीपी सिंह, स्व. चंद्रशेखर जी, स्व. मुध दंडवते जी भी अपने भाषणों में उनका नाम लेना नहीं भूलते थे। मुध लिमये जी के बारे में इतना सुनने के बाद मन में उनको ठीक से जानने-समझने की ललक बनी। उनको पढ़ना शुरू किया। तब मैं गांधीजी के इतर डॉ आंबेडकर के बारे में भी कुछ नहीं जानता था। जयप्रकाश नारायण, डॉ राममनोहर लोहिया जी के बारे में भी बैतूल के शिविर में ही पहली बार जाना था।
समता और लोकतंत्र के प्रहरी रहे श्री मधु लिमये महाराष्ट्र से बिहार जाकर वहीं से चार बार सांसद बने इस बात ने मुझे उनको नजदीक से जानने-समझने के लिए प्रेरित किया। वास्तव में ये काम वही कर सकते हैं। बाबासाहेब आंबेडकर – एक चिंतन, धर्म और राजनीति, चौखंभा राज जैसी उनकी पुस्तकें मेरे लिए हमेशा प्रेरणादायी रही हैं। 1982 में सक्रिय राजनीति से अलग होने के बाद अलग-अलग भाषाओं की 100 से अधिक पुस्तकें लिखना भी कम प्रेरक नहीं है। तार्किक, निर्णायक, निर्भीक और तथ्यात्मक लेखों के जरिए सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विकास पर उनका चिंतन और मार्गदर्शन मेरे जैसे नौजवानों के लिए हमेशा प्रेरणादायी रहा और रहेगा।
उत्तराखंड ने वर्ष 2000 में लंबे संघर्ष और बलिदानों के बाद जब एक छोटे पहाड़ी राज्य उत्तराखंड की शक्ल ली, तो पहली सरकार गठित होते ही पृथक राज्य के लिए लड़नेवाले महिला-पुरुषों में खुद को आंदोलनकारी घोषित करने और पेंशन-नौकरी के लाभ लेने की होड़ मच गयी। मैं भी 10वीं, 11वीं का छात्र रहते राज्य-आंदोलन के समर्थन में अपने स्कूल अक्सर बंद कराने में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता था। अलग उत्तराखंड बना तो यहां राज्य-आंदोलन की ही भांति नौकरी-पेंशन के लिए भी आंदोलन शुरू हो गए। तब हम अपने शिक्षकों, सहपाठियों और कई मर्तबा पेंशन आदि लाभ की मांग करनेवाले राज्य आंदोलनकारियों से मधु लिमये जी आदि का नाम लेकर बोलते थे कि उन्होंने तो देश आजाद कराया। सालोंसाल ब्रिटिश हुकूमत की जेलों में रहे। यातनाएं सहीं। तब भी मधु जी जैसे देशप्रेमी नेताओं ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सम्मान पेंशन की भारत सरकार की पेशकश अस्वीकार कर दी थी। हमें कहीं भी यह बोलने में गर्व होता है कि आज हमारे विधायक, सांसद देश और जनता-जनार्दन की बदहाली, उनके नारकीय जीवन की चिंता किए बगैर जहां जीवन भर अपने पेंशन-भत्ते हजारों से लाखों में बढ़ाने की जुगत में लगे रहते हैं, वहीं मधु लिमये जी ने कभी भी सांसद होने की पेंशन नहीं ली और न ही पूर्व सांसद होने की सुविधा। ऐसे चारित्र्य के लोग वास्तव में कर्तव्यनिष्ठा और स्वाभिमान से जीने की चाह रखनेवाले आज के नौजवानों के लिए आदर्श हैं। उनकी हिम्मत हैं।
1997 के बाद से लगातार डा. सुनीलम जी, युसुफ मेहर अली सेंटर और राष्ट्र सेवा दल के जरिए समाजवादी विचार से जुड़े, तो उस दौर के चोटी के समाजवादी नेताओं के मुख से इस दुनिया से विदा ले चुके जयप्रकाश नारायण, डा. राममनोहर लौहिया, मधु लिमये, एसएम जोशी, नाना साहेब गोरे जैसे नायकों के बारे में सुनकर और जानकर ही मैं और मेरे जैसे युवा प्रेरित होते रहे हैं। इन संस्थानों में लगी मुध लिमये आदि नेताओं की तस्वीरें हमारे मन-मस्तिष्क में उतरीं। मधु लिमये जी का जीवन और उनके द्वारा स्थापित प्रतिमान आज के युवाओं के लिए प्रेरणा हैं और रहेंगे।
देश भर में समाजवादियों द्वारा स्व. मधु लिमये जी की याद में मनाया जा रहा शताब्दी कार्यक्रम उनके द्वारा स्थापित आदर्शाें को जन-जन तक पहुंचाने का बेहतर जरिया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि मधु लिमये जैसे महापुरुषों के चिंतन व विचारों को सामने रखकर ही हम नयी पीढ़ी को समाजवादियों की समानता स्थापित करने और लोकतंत्र व संविधान को बचाने की लड़ाई से जोड़ सकते हैं। यह काम युवा प्रशिक्षण शिविर के माध्यम से भी करना चाहिए ताकि मेरी तरह ही अन्य युवा मधु जी के प्रेरणादायी जीवन से सीख ले सकें।