1 मई। अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस को लोक विद्या प्रतिष्ठा दिवस के रूप में मनाने के प्रस्ताव के साथ और नामवर सिंह की जयंती के अवसर पर अस्सी घाट पर ‘वाराणसी ज्ञान पंचायत’ का आयोजन किया गया। इस पंचायत का विषय ‘परंपरा की खोज’ रहा।
पंचायत की शुरुआत लोक विद्या सत्संग के पद से हुई। चित्रा सहस्रबुद्धे ने यह प्रस्ताव रखा कि 1 मई को लोकविद्या प्रतिष्ठा दिवस के रूप में मनाया जाए। यह दिवस मजदूर दिवस के नाम से मनाया जाता है। लोकविद्या प्रतिष्ठा का मतलब है भारतभूमि की बुनियादी ज्ञान परम्परा की प्रतिष्ठा। हिंदी साहित्य के दार्शनिक लेखक आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लोक परम्पराओं को सभ्यता और संस्कृति की बुनियादी परम्परा माना है। इन्हीं के शिष्य नामवर सिंह ने ‘दूसरी परम्परा की खोज’ नाम से एक पुस्तक लिखकर अपने गुरु को श्रद्धांजलि अर्पित की है। वाराणसी से इन दोनों ही विद्वानों का गहरा सम्बन्ध रहा। लोकविद्या की प्रतिष्ठा के रास्तों की खोज व निर्माण के संकल्प के लिए यह दिवस उचित ही है।
इस अवसर पर सुनील सहस्रबुद्धे ने कहा कि आज दुनिया के सभी देश एक बड़ी उथल-पुथल के दौर से गुर रहे हैं। 1 मई का दिवस 1880 में अमेरिका में कारखानों के मजदूरों के काम के घंटे घटाकर 8 घंटे किये जाने की मांग के संघर्ष की याद में मनाया जाता है। यह औद्योगिक युग के जमाने की बात है। आज सूचना युग में उत्पादन बड़े-बड़े कारखानों में नहीं होता। पूँजी का प्रकार, उत्पादन के तरीके और शोषण का रूप सभी कुछ बदल गया है। मनुष्य के श्रम, ज्ञान, विरासत और संसाधन, सभी के मूल्य को हड़पने की व्यवस्थाएं आकार ले चुकी हैं। मुनाफा उठाने के स्थान कारखानों की जगह बाजार बनाये गए हैं। अब औद्योगिक युग में किसानी और कारीगरी को तबाह कर कारखानों में काम करने के लिए जो सस्ते मज़दूर पैदा किये गए थे उन्हें वापस समाज में फेंक दिया गया और उन्हें वित्तीय पूँजी के जाल में फांस कर घर पर ही परिवार के साथ या छोटी-छोटी इकाइयों में काम के लिए मजबूर किया गया। इस प्रक्रिया में औद्योगिक युग का मजदूर आज कारीगर में बदल गया। लेकिन यह कारीगर आज की दुनिया का कारीगर है न कि औद्योगिक युग के पहले का।
सुनील सहस्रबुद्धे ने आगे कहा कि, आज का यह कारीगर छोटी पूँजी के प्रबंधन का ज्ञानी है। यह छोटा किसान है, बुनकर, लोहार, प्लंबर है, ट्रक-मोटर का ड्राइवर है या इनके मरम्मत और रखरखाव के कार्य करता है, यह ठेले-पटरी-गुमटी या छोटी दुकान करने वाला है, कंप्यूटर पर टाइप करता है या मरम्मत और रखरखाव करता है, यह मल्लाह, धोबी, या सफाईकर्मी है, कुम्हार, वनवासी और बढ़ई है, ऑटो-रिक्शा चालक है, आदि। ये सब मिलकर इस देश की आबादी का लगभग 80 फीसदी हैं। यह विशाल कारीगर-समाज सर्वहारा नहीं है। इन्हें मजदूर नहीं कहा जा सकता। इन्हें असंगठित क्षेत्र का कर्मी या अकुशल कर्मी कहना भी गलत होगा।
उन्होंने आगे कहा कि ये विविध समाजों के 80 फीसदी लोग ही आज लोकविद्या परम्परा के वाहक हैं। हजारीप्रसाद जी ने इन्हें ही बुनियादी परम्परा के वाहक कहा है। ये ही नामवर जी की ‘दूसरी परंपरा’ के नाम से चिह्नित किये गए हैं। 1 मई का दिवस इन्हीं के ज्ञान की प्रतिष्ठा का दिवस होना चाहिए। इनके ज्ञान की प्रतिष्ठा इन्हें ही नहीं बल्कि पूरे समाज को खुशहाली, भाईचारा और न्याय के पथ पर ला सकेगी।
कार्यक्रम में संजय श्रीवास्तव, रामाज्ञा शशिधर, प्रेमलता, रामजनम यादव, रविशेखर, हरिश्चंद्र बिंद, लक्ष्मण मौर्य, युद्धेश, कृष्ण कुमार क्रान्ति आदि वक्ताओं ने अपने विचार रखे। कार्यक्रम का संचालन रामजनम ने किया। कार्यक्रम के आयोजक लोक विद्या जन आंदोलन, मां गंगा निषादराज सेवा समिति वाराणसी, स्वराज अभियान, भारतीय किसान यूनियन, बुनकर साझा मंच रहे।