पश्चिम के साम्राज्यवाद के बारे में कुछ भ्रांतियाँ हमारे देश में कुछ विचारकों द्वारा फैलाई जा रही हैं। जैसे हमारे देश में जो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट हैं वे अक्सर कहते हैं कि अँग्रेजों ने यहाँ स्पर्धा यानी कंपीटीशन के आधार पर अपना व्यापार और उद्योग बढ़ाया। उनका यह कहना है कि चूंकि पश्चिम में औद्योगिक क्रांति हो गयी थी, विज्ञान का इस्तेमाल होने लगा था, यंत्रों का प्रयोग होने लगा था इसलिए वे लोग सस्ता माल बनाने की स्थिति में आ गए थे। यही सस्ता तैयार माल हिंदुस्तान के बाजार में बेचकर उन्होंने खुली स्पर्धा से हिंदुस्तान के पुराने हस्त-व्यवसायों द्वारा उत्पादित माल को पराजित किया। उन्होंने अपने सस्ते माल के बल पर हिंदुस्तान के बाजार को अपने कब्जे में ले लिया। इस तरह की भ्रांतियाँ मार्क्सवादियों द्वारा अक्सर फैलाई जाती हैं जिसका आधार वे कार्ल मार्क्स के लेखों में खोजते हैं। उदाहरणार्थ कार्ल मार्क्स का एक उद्धरण मैं देता हूँ। पश्चिम की पूँजीवादी व्यवस्था का विस्तार कैसे हुआ इसकी चर्चा मार्क्स ने अपने विख्यात ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ में करते हुए कहा है :
“पूँजीवादी वर्ग उत्पादन के सभी साधनों में तेजी से सुधार लाकर, आवागमन के साधनों को सुविधाजनक बनाकर अधिक से अधिक असभ्य देशों को सभ्यता के दायरे में ला रहा है। समस्त माल इसकी वे बड़ी तोपें हैं जिनकी मदद से वह चीनी दीवारों को तोड़ डालता है। विदेशियों के द्वेष से प्रेरित बर्बर लोगों को अपनी शरण में लाता है। ‘या तो पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली को स्वीकार करो या मर मिटो,’ का विकल्प उनके सामने रखता है, उन्हें आधुनिक सभ्यता को स्वीकारने के लिए मजबूर करता हैं। अर्थात् एक शब्द में सर्वत्र अपने किस्म की दुनिया बना लेता है।”
कहने का मतलब यह है कि यांत्रिक उत्पादन के जरिये सस्ता माल पैदा करके पूँजीवादी देशों ने, चाहे चीन हो, हिन्द-चीन हो, या भारत, एशियाई बाजारों को अपने कब्जे में खींचा। लेकिन वास्तविकता कुछ अलग थी। खुली और न्यायोचित स्पर्धा में हिंदुस्तान की अर्थव्यवस्था पर अंग्रेजों या दूसरे यूरोपीय लोगों ने सस्ता माल बेचकर अपना प्रभाव जमाया। उन्होंने अपने हथियार बल (फौजी तथा नाविक) और राजनीतिक सत्ता तथा साम्राज्यवादी तरीकों को इस्तेमाल करके यहाँ की जनता को पराजित किया और जबरदस्ती का प्रयोग करके हमारे देश के उद्योगों को मिटाया। प्रारंभ में ही नहीं बाद में भी राजनीतिक सत्ता का भारतीय हितों के खिलाफ और इंग्लैण्ड के उद्योगों के हित में इस्तेमाल अंग्रेजी हुकूमत का आधार स्तंभ था। न्यायपूर्ण स्पर्धा से अंग्रेजी पूँजीवाद कभी भारतीय बाजारों पर हावी नहीं हो पाता, अतः हमेशा साम्राज्य-सत्ता की वैशाखी का प्रयोग उन्होंने किया। वाइसराय एल्गिन ने 1895 में सभी आयातित वस्तुओं पर 5 प्रतिशत सीमा शुल्क आमदनी के स्रोत बढ़ाने का बहाना करके लगाया था। मगर लंकाशायर के सूती कपड़ों को इस सीमा शुल्क से छूट दे दी थी। बाद में कांग्रेस के आंदोलन के कारण इसे रद्द कर दिया गया था; मगर अंग्रेजों ने भारतीय कपड़ा मिलों के उत्पादन पर उत्पादन शुल्क लादकर अंग्रेजी कपड़ा उद्योग की अप्रत्यक्ष सहायता की थी।
अब अगर कोई कहे कि एशिया की फौजी तथा राजनीतिक दुर्बलता उन देशों के लिए लांछन थी, उनके समाज की जमी और जकड़ी हुई स्थिति का द्योतक थी तो उससे मैं इनकार नहीं करता। मैं सिर्फ व्यापारिक स्पर्धा की चर्चा कर रहा हूँ। इसको सिद्ध करने के लिए मैं अंग्रेजों या यूरोपीय लोगों के ही प्रमाण देना चाहता हूँ।
जिस समय ये पश्चिम के लोग हमारे देश में आए, उस समय हमारे देश की आर्थिक और राजनीतिक स्थिति क्या थी? सब लोगों को ज्ञात है कि पश्चिम यूरोप में विज्ञान की तरक्की 15वीं शताब्दी के बाद ही तेजी से हुई थी। सबसे पहले समुद्री जहाज बनाने की तकनीक में उनके यहाँ क्रांतिकारी परिवर्तन आया था। उन्होंने ऐसे जहाज तैयार कर लिये जो किसी भी मौसम में लंबी से लंबी समुद्री यात्रा बिना रुकावट कर सकते थे। पुर्तगाल और स्पेन आदि ने इसमें पहल की और उन्होंने इनमें कंपास का इस्तेमाल किया। कंपास से उन्हें दिशा-ज्ञान हो जाता था। चाहे बादलों की वजह से सितारे दिखाई न दें फिर भी किसी महासागर में उनके जहाज महीनों यात्रा करने में सक्षम थे।
उस समय यूरोपीय लोगों की कोशिश पूर्व (एशिया) से व्यापार करने के लिए कोई समुद्री रास्ता खोजने की थी। जमीन का रास्ता तुर्की ने बंद कर दिया था। 15वीं शताब्दी में तुर्की साम्राज्य महाशक्तिशाली साम्राज्य बन गया था। तुर्की द्वारा जमीन का रास्ता बंद कर देने के कारण हिंदुस्तान का पश्चिमी यूरोप के साथ जमीन-मार्ग से व्यापार का रास्ता बंद हो गया। यह जमीन का मार्ग इस प्रकार था– लालसागर (रेड सी) या फारस की खाड़ी (पर्शियन गल्फ) होकर मिस्र, इराक या सीरिया की मार्फत। इस इलाके पर जब तुर्की का कब्जा हो गया तो यह पुराना व्यापारिक रास्ता समाप्त हो गया। तब यूरोपियन लोग परेशान हो उठे क्योंकि हिंदुस्तान या हिंद-चीन (हिंद-चीन से मेरा मतलब है इंडोनेशिया, मलेशिया, थाईलैण्ड, वियतनाम– जिसको इंडोचायनीज पेनिन्सुला कहा जाता है) से इनको जो मसाले, रेशम आदि जो मिलते थे वे सब बंद हो गए। इस आवश्यकता ने यूरोपियनों को नए रास्तों की खोज के लिए प्रेरित किया। उन्होंने यह सुना था कि पृथ्वी गोल है। इसकी वैज्ञानिक शोध वे कर चुके थे। उनका विचार था कि अगर पश्चिम की ओर से हम समुद्र के रास्ते बढ़ते चले जाएंगे तो बढ़ते-बढ़ते हम पूर्व के देशों तक जरूर पहुँच जाएंगे क्योंकि पृथ्वी गोल है।
15वीं शताब्दी के अंत में पुर्तगाल और स्पेन के लोगों ने इस तरह समुद्री रास्ते की खोज का काम शुरू किया जिसके फलस्वरूप कोलंबस अमरीकी द्वीपसमूह पहुँच गया। इसी के साथ पुर्तगाली अफ्रीका के किनारे-किनारे बढ़ने लगे। उनका विचार था कि दक्षिण की तरफ बहुत दूर तक जाने पर कहीं न कहीं अफ्रीका खत्म हो जाएगा। उस बिंदु पर पहुँचकर वे लोग फिर उत्तर की ओर घूम गए। अफ्रीका के पूर्वी किनारे पर उन्हें कुछ हिंदुस्तानी नाविक मिले क्योंकि अफ्रीका के पूर्वी किनारे से हिंदुस्तान का व्यापार पहले होता ही था। इन नाविकों ने पुर्तगालियों को भारत में मानसून (बरसाती मौसम) के बारे में बताया। उन्होंने उन्हें अरब सागर में जो हवाएँ चलती हैं उनसे भी अवगत कराया। इसी हवा के रुख की सहायता से वे हिंदुस्तान पहुँच गए। इस तरह हिंदुस्तान के कुछ नाविकों को साथ लेकर पुर्तगाल का वास्को-द-गामा सबसे पहले केरल के कोझीकोड (वर्तमान कालीकट) नामक शहर पहुँचा था। उधर कोलंबस भी अमरीका पहुँच चुका था।
उस समय हमारे देश की क्या तस्वीर थी? 16वीं शताब्दी के मध्य से मुगल साम्राज्य हिंदुस्तान में फैल रहा था। इसी बीच ये पुर्तगाली आ गए। इन्होंने क्या कमाल किया? उनका नेता और गर्वनर जनरल अल्फांसो अल्बुकर्क था। ये लोग जानते थे कि पुर्तगाल जैसा छोटा देश हिंदुस्तान जैसे बड़े देश पर कब्जा नहीं जमा सकता है। मगर हिंदुस्तानियों के पास नौसैनिक शक्ति नहीं थी। पुर्तगालियों को समुद्र में कोई पराजित नहीं कर सकता था क्योंकि उनकी नौशक्ति बहुत ज्यादा थी, उनके नाविक बेड़े आधुनिक तोपों से सुसज्जित थे। अतः अल्फांसो अल्बुकर्क ने 1510 में सबसे पहले हिंदुस्तान से गोवा तक का एक टुकड़ा छीन लिया। इस तरह 1510 में पहली बार हिंदुस्तान पर पश्चिमी लोगों, यानी पुर्तगालियों का कब्जा हुआ। हमारे दुर्भाग्य की कहानी यहीं से शुरू होती है। यह वर्ष और घटना हमारे ध्यान में रहनी चाहिए कि 1510 में गोवा पर पहली बार पुर्तगालियों का कब्जा हुआ था।
पुर्तगालियों के पीछे-पीछे हालैण्ड के डच आक्रमणकारी आए। इनको उन दिनों महाराष्ट्र में वलंदी कहा जाता था। तत्पश्चात् फ्रांस के आक्रमणकारी भी आ गए जिन्हें फ्रांसीसी कहा जाता था। पुर्तगाली फिरंगी कहलाते थे। सबसे बाद में अंग्रेज आए थे। यह ध्यान देने की बात है कि 15वीं शताब्दी में पहली बार भारत पर सागरी आक्रमण हुआ। अब तक के पिछले सभी आक्रमण जमीन के रास्ते ही हुए थे। हिंदुस्तान में इतना बड़ा मुगल साम्राज्य था लेकिन उनके पास चूंकि नाविक बेड़ा नहीं था, अतः वे पश्चिम के शक्तिशाली नाविक बेड़े का सामना नहीं कर सके। पुर्तगाली लोग व्यापार के साथ-साथ धर्म प्रसारण भी करना चाहते थे। जबरदस्ती लोगों को ईसाई बनाना, पहले और दूसरे क्षेत्रों में शुरू कर दिए। इस धार्मिक दुरभिमान तथा असहिष्णुता के कारण पुर्तगालियों के प्रति हमारे देश में कोई अच्छी धारणा नहीं बन सकी।
(जारी)