अंग्रेजी हुकूमत की स्थापना के बाद बंगाल की जो हालत हुई उसके बारे में बेचर नाम के कलकत्ता कौंसिल के एक सदस्य ने 1769 में कहा था : ‘किसी भी अंग्रेज के लिए यह दुख का विषय हो सकता है कि कंपनी के हाथों बंगाल की दीवनी आने के बाद देशवासियों की हालत इतनी खराब हो गयी कि जैसी पहले कभी भी नहीं थीं। लेकिन मैं जो कुछ कह रहा हूं, वह बिल्कुल सत्य है। यह सुदंर देश जो अनियंत्रित और जालिम सरकारों के तहत भी समृद्धि के शिखर पर रहा था, वर्तमान प्रशासन में (जिसमें अंग्रेजों का बडा हिस्सा है) विनाश की ओर जा रहा है। अंग्रेजों ने दीवानी की सनद लेकर इस मुल्क से अधिक-से-अधिक पैसा हड़पने का काम किया है। इंग्लैण्ड से कंपनी संचालक अंग्रेज शासकों पर दबाव डाल रहे हैं कि वे हिंदुस्तान से अधिकाधिक पैसा भेजें। इधर कंपनी का खर्च चलाने के लिए भी पैसे की जरूरत है। इसलिए अंग्रेज अधिक-से-अधिक पैसा वसूल कर रहे हैं। बंगाल में लगान के उपलब्ध आंकड़ों से उनकी इस कार्यवाही की पुष्टि होती है।
वित्तीय वर्ष 1765-66 में जब उनकी हुकूमत प्रारंभ हुई, उससे पहले की पुष्टि होती है। वित्तीय वर्ष यानी 1764-65 में 8 लाख 17 हजार पौण्ड लगान वसूला गया था। लेकिन अंग्रेजों ने अपना शासन चालू होते ही 1765-66 में (यानी पहले ही वर्ष) इस रकम से काफी ज्यादा लगान वसूला। 1771-72 तक उन्होंने यह लगान वसूली का आंकड़ा 23 लाख 41 हजार पौण्ड तक पहुंचा दिया है। कार्नवालिस के स्थायी लगान पद्धति लागू करने तक यानी 1793 तक यह लगान वसूली 34 लाख पौण्ड तक पहुंच गई।’ (रमेश दत्त की किताब, खंड 1, 2)
अर्थात् यह रकम चार गुना से अधिक हो गयी। ऐसा जुल्म हिंदुस्तान के दो हजार साल के ज्ञात इतिहास में कभी नहीं हुआ था। इस कारण हिंदुस्तान में लगातार बहुत बड़े पैमाने पर अकाल पड़े। केवल 19वीं शताब्दी में, यानी 1800 से लेकर 1900 तक हिंदुस्तान में जितने अकाल पड़े उनमें दो करोड़ से भी अधिक लोग मारे गये थे। निम्न तालिका इस हृदय-विदारक तथ्य पर प्रकाश डालती है :
अंग्रेजी शासन में अकाल मृत्यु के आँकड़े
वर्ष मृत्यु संख्या
1800-25 1000000
1825-50 400000
1850-75 5000000
1875-1900 15000000
(बी.नारायण : पापुलेशन आफ इंडिया, पृ.11)
कुछ अंग्रेज शासकों का कथन है कि इस देश में जनसंख्या तेजी से बढ़ी जिसके कारण अकाल पड़े। लेकिन मेरा यह मानना है कि हिंदुस्तान में 1920 तक जनसंख्या तेजी से नहीं बढ़ी। जनसंख्या अगर तेजी से बढ़ी तो वह 1920 के बाद ही बढ़ी। इसके पहले के काल की यदि हम हमारी जनसंख्या वृद्धि की तुलना इंग्लैण्ड की जनसंख्या वृद्धि से करेंगे तो पता चलेगा कि जनसंख्या कहां तेजी से बढ़ी। निश्चित रूप से भारत में नहीं। अकबर के बाद की तीन शताब्दियों में हिंदुस्तान की जनसंख्या 200 प्रतिशत से अधिक बढ़ी। यदि यह मान लिया जाए कि अकबर के जमाने में हिंदुस्तान में 16 करोड़ आबादी थी तो इस हिसाब से वह बढ़कर 1931 से 35 करोड़ हो जानी चाहिए थी। अब इंग्लैण्ड की जनसंख्या वृद्धि देखिए। इंग्लैण्ड और वेल्स की आबादी 17वीं शताब्दी के प्रारंभ में 51 लाख थी जो 1931 तक बढ़कर 4 करोड़ 4 लाख हो गई। अर्थात् जहां हिंदुस्तान में इस अवधि में जनसंख्या वृद्धि की दर दो सौ प्रतिशत रही, वहां इंग्लैण्ड में यह आठ गुना ज्यादा थी। निम्न तालिका से यह तथ्य स्पष्ट होता है :
जनसंख्या वृद्धि की दर (1780-1910)
देश का नाम फीसद वृद्धि
भारत 18.9
इंग्लैण्ड तथा वेल्स 58.0
जर्मनी 59.0
बेल्जियम 47.8
हालैण्ड 62.0
रूस 73.9
यूरोप (औसत) 45. 4
(बी.नारायण : पापुलेशन आफ इंडिया, पृ.11)
जनसंख्या वृद्धि में तुलना मैंने यहाँ इसलिए की ताकि पाठकों के ध्यान में रहे कि हिंदुस्तान की बढ़ती गरीबी का कारण मुख्यतः यह नहीं था कि भारत में जनसंख्या वृद्धि की दर इंग्लैण्ड, जर्मनी या अन्य देशों की तुलना से अधिक थी। बल्कि एक माने में यहाँ यह वृद्धि का दर पश्चिमी यूरोप से बहुत कुछ हद तक कम ही थी। तब फिर यूरोप और हिंदुस्तान की आर्थिक स्थिति में कालान्तर में इतना परिवर्तन क्यों पैदा हुआ, यह सवाल उठ सकता है। इसका उत्तर यह है कि अंग्रेजी साम्राज्यवाद के आगमन के पहले हिंदुस्तान की अर्थव्यवस्था मिश्रित अर्थव्यवस्था थी। लेकिन अंग्रेजी प्रभुसत्ता स्थापित होने के बाद हिंदुस्तान के ग्रामोद्योग और हस्त उद्योग तेजी से नष्ट होने लगे और भारत कृषिप्रधान देश मात्र बन कर रह गया।
हिंदुस्तान की दरिद्रता का दूसरा कारण यह था कि जहाँ 18वीं और 19वीं शताब्दी में पश्चिमी यूरोप के लोग बड़े पैमाने पर अमरीका, कनाडा, लैटिन अमेरीका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड और दक्षिण अफ्रीका आदि जगहों पर जाकर बस गए थे, वहाँ हिंदुस्तान के लोगों को मारिशस, फिजी जैसे सीमित क्षेत्रों को छोड़कर निवास करने के लिए कोई बड़ा भौगोलिक क्षेत्र उपलब्ध नहीं करा सका। 19वीं शताब्दी में एक करोड़ से भी अधिक लोग यूरोप छोड़कर उपरोक्त देशों में जाकर बस गए थे। इसलिए यूरोपीय अर्थव्यवस्था पर जनसंख्या वृद्धि का इतना प्रतिकूल असर नहीं पड़ा।
यूरोप और भारत की आर्थिक स्थिति में विरोधाभास का तीसरा कारण यह रहा कि जहाँ 18वीं शताब्दी के अंतिम प्रहर और 19वीं शताब्दी में पश्चिमी देशों में द्रुत गति से पूँजीकरण हुआ वहाँ हिंदुस्तान में उतनी ही तेजी से निरुद्योगीकरण। उत्पादन के साधनों के विकास की गति जहाँ यूरोप-अमेरीका में अभूतपूर्व थी, वहाँ उसकी तुलना में उनके यहां जनसंख्या वृद्धि नगण्य थी। उपरोक्त कारणों जहाँ अर्थशास्त्री माल्थस का अति जनसंख्या वृद्धि का सिद्धांत यूरोप में गलत साबित हुआ, वहाँ हिंदुस्तान में वह सत्य-सा प्रतीत होने लगा। निष्कर्ष यही निकलता है कि हिंदुस्तान की अवनति का सबसे बड़ा कारण उसकी दासता और उसके फलस्वरूप उत्पन्न आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक शोषण था।