अंग्रेज और सैन्य प्रबंध
प्लासी की लड़ाई के बाद अंग्रेजों का राज सारे हिंदुस्तान में फैल गया। अंतिम स्वतंत्र राज्य सिख राज्य था जिसकी भी उन्होंने बाद में संप्रभुता छीन ली थी। डलहौजी के जमाने में पंजाब और पेशावर पर अंग्रेजों का कब्जा हुआ था। इससे अंग्रेजों के भारतीय साम्राज्य की सीमा अफगानिस्तान के साथ मिल गयी। बीच में एक पहाड़ी इलाका पठान कबाइलियों का था। इस इलाके पर अफगानिस्तान की भी संगठित हुकूमत नहीं थी। ये कबाइली लोग वास्तव में आजाद थे। सारा हिंदुस्तान इस प्रकार पहली बार अंग्रेजों की छत्रछाया में आ गया था। लेकिन जिन देशी रियासतों को डलहौजी ने बर्खास्त किया था (जैसे अवध आदि) उनमें अंग्रेजी हुकूमत के प्रति असंतोष बढ़ने लगा था। सेना में विद्रोह की फिजा बन रही थी।
मई 1857 में पहली बार अंग्रेजों के खिलाफ बड़े पैमाने पर बगावत हुई। सेना में असंतोष का विस्फोट पहले भी कई बार सीमित पैमाने पर हुआ था, लेकिन यह विद्रोह व्यापक था। इसको अंग्रेजों ने ‘सिपाहियों का विद्रोह’ की संज्ञा दी। लेकिन वास्तव में यह स्वतंत्रता का पहला संग्राम था। इसमें उत्तर प्रदेश, बिहार आदि राज्यों के साधारण लोगों ने भी सिपाहियों का साथ दिया था। मध्य भारत में भी यह विद्रोह की आग फैली थी। परंतु इस विद्रोह में एक बात की बड़ी कमी थी जो कि हिंदुस्तान में हमेशा पायी गयी है, और वह थी आदर्शवादी राजनैतिक संगठन का अभाव होना। विद्रोहियों के सामने कोई साफ तस्वीर नहीं थी, न ही कोई व्यापक व्यूह रचना। किसी तरह की व्यूह रचना के लिए आवश्यक वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी उनके पास नहीं था। जो हथियार उनको अंग्रेजों से मिले थे उनका ही इस्तेमाल उन्होंने किया। नए हथियार बनाने की विद्रोहियों में कोई क्षमता और साधन नहीं थे। जो हथियार उनके पास थे उनका ठीक इस्तेमाल भी वे नहीं कर पाए। फिर अंग्रेजों की नीति थी कि साधारण तौर पर हिंदुस्तानियों को तोपखाने में भरती न किया जाए। इसका नतीजा यह हुआ कि आधुनिकतम हथियारों से लैस अंग्रेज सिपाहियों का मुकाबला विद्रोही सेना सफलतापूर्वक नहीं कर पायी।
विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने सेना की पुनर्रचना की। इस बार उन्होंने इस बात का विशेष खयाल रखा कि तोपखाना यूरोपीय सैन्य टुकड़ी के साथ जोड़ दिया जाए। चूंकि बंगाल आर्मी के तोपखाने में काम करनेवाले देसी सिपाहियों ने विद्रोह में हिस्सा लिया था, इसलिए सरकार ने यह निर्णय किया कि आइंदा कोई देसी तोपखाना (नेटिव फील्ड आर्टिलरी) रहेगा ही नहीं। इस प्रकार धीरे-धीरे एक-दो अपवादों को छोड़कर देसी तोपखाना बर्खास्त कर दिया गया। (मैकमून : द आर्मीज ऑफ इंडिया : पृ.113)
पुरानी सेना में विभिन्न पलटनों (सेना विभाग) और कंपनियों में अनेक धर्मों, वंशों और जातियों का मिश्रण था। एकसाथ हिंदू, मुसलमान पूरबिये और पंजाबी कंधे-से-कंधा मिलाकर लाइन मे खड़े हो जाते थे और लड़ते थे। लेकिन अब अंग्रेजों ने सेना के नए संगठन में इस बात का कुछ हद तक खयाल रखा कि विभिन्न धर्म, जाति, वर्ग तथा नस्ल के लोगों को एक-दूसरे से अलग कर दिया जाए और उनमें अपनी जाति तथा कुल के प्रति अभिमान जगाया जाए। साथ ही साथ अकेले ही एक नस्ल या जाति की पूरी पलटन न बन सके, इसके लिए भी अंग्रेजों का प्रयास था। अगर अपवाद था तो कुछ सिख और गुरखा पलटनों का। (उपरोक्त पृ.119)
1857 के विद्रोह में केंद्रबिंदु बंगाल आर्मी थी। इस आर्मी ने न सिर्फ विद्रोह में पहल की थी, बल्कि आखिर तक जो लड़ाई हुई उसका नेतृत्व भी इसी के हाथ में था। सेना संबंधी अंग्रेजों की नीति का दूसरा पहलू यह था कि हिंदुस्तानियों को कोई कमान सँभालने की शिक्षा नहीं देनी चाहिए। उनको खतरा था कि इस तरह नेतृत्व सँभालने वाले हिंदुस्तानी अधिकारी यदि पैदा हो जाएंगे तो अन्य कोई विद्रोह होने पर अंग्रेजी राज का चलना मुश्किल हो जाएगा। एक जगह सर जॉन माल्कम ने कहा है- “भारतीय अफसरों को कमान सँभालने जैसे उच्च पदों से वंचित रखना ब्रिटिश सत्ता बनाए रखने की आवश्यक शर्त है। चूंकि इस तरह के उच्च पद वे नहीं पा सकते हैं अतः उनके लिए गैरफौजी जीवन में सम्मान पाने के लिए नए वैकल्पिक जरिए उत्पन्न करने चाहिए। हमें यह भी देखना चाहिए कि सेना में उच्च पद पाने की अभिलाषा ही उनके मन में उत्पन्न न हो। इसलिए हमें इस ढंग से काम करना चाहिए कि जिससे उनके अपने जनपद और उनकी अपनी जाति तथा कुल में उनको सम्मान की जगह मिले। उसी तरह उनके बाल-बच्चों के लिए रोजगार का जरिया उपलब्ध करा दिया जाए। ऐसा करने से उनमें गलत महत्वाकांक्षा, ईर्ष्या और असंतोष पैदा ही नहीं होगा और यथास्थिति से वे संतुष्ट रहेंगे।”(सर जॉन माल्कम : द पोलिटिकल हिस्ट्री ऑफ इंडिया)
इसीलिए पूरी भारतीय सेना के अंदर कमान सँभालने जैसे पदों पर भारतीय अधिकारी नहीं थे। विद्रोही सेना का नाम बंगाल आर्मी जरूर था, लेकिन बंगलाभाषी लोग इसमें ज्यादा नहीं थे। इसका नाम बंगाल आर्मी सिर्फ इसलिए रखा गया था कि ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार बंगाल से प्रारंभ हुआ था और बंगाल में पहले बिहार, उड़ीसा के प्रांत भी सम्मिलित थे। बंगाल आर्मी में ज्यादा उत्तर प्रदेश तथा बिहार के लोग थे। इस इलाके के लोगों को ब्रिटिश साम्राज्य के उत्तरकाल में लड़ाकू जातियाँ या ‘मार्शल रेसेज’ नहीं माना जाता था। अंग्रेजों ने मार्शल रेसेज की बात महज भारतीयों में दरार पैदा करने के लिए चलायी थी। विद्रोही इलाकों का मनोबल गिराने की चाल इसके पीछे थी।
अब हम पूछ सकते हैं कि अगर बंगाल आर्मी के सैनिक ‘मार्शल रेसेज’ नहीं थे तो अंग्रेजों ने अपना साम्राज्य दूर तक कैसे फैलाया? उत्तर स्पष्ट है कि उन्हीं सैनिकों के बल पर! अफगानिस्तान हो या बर्मा या चीन, साम्राज्य का विस्तार और व्यापार की रक्षा हेतु इसी बंगाल आर्मी को हमेशा हिंदुस्तान से बाहर भेजा जाता था। सिक्खों का स्वतंत्र राज्य बंगाल आर्मी द्वारा ही खत्म किया गया था। लेकिन 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने अपनी सेना संबंधी नीति में मौलिक परिवर्तन कर दिये। इस पुनर्रचना में उन्होंने उन्हीं इलाकों और जातियों के लोगों को भरती किया जिन्होंने विद्रोह में हिस्सा नहीं लिया था और जो अंग्रेजों के प्रति वफादार रहे थे। इसलिए ऐसी वफादार जातियाँ ही ‘मार्शल रेसेज’ घोषित हुईं। जो विद्रोही थे उनको नान मार्शल रेसेज घोषित किया गया था। सेना में अब उनके लिए कोई स्थान नहीं रहा।
अंग्रेजों के भारतीय साम्राज्य में सबसे आखिर में पंजाब मिलाया गया था। सिक्ख साम्राज्य की रचना रणजीत सिंह ने की थी। रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद सिक्खों में आपस में इतने झगड़े हो गए कि अंग्रेजों ने दो लड़ाइयों में ही सिक्ख साम्राज्य का सफाया कर दिया। सिक्ख साम्राज्य पर अंग्रेजों का कब्जा होने के एक दशक बाद ही 1857 का विद्रोह हुआ था। सिक्खों का मनोबल इतना टूटा हुआ था कि उन्होंने विद्रोहियों का साथ नहीं दिया। अन्य पंजाबी और बहुत सारे पठान भी अंग्रेजों के वफादार रहे थे। इन सबको ‘मार्शल रेसेज’ घोषित करके सेना में भर्ती में उन्हें वरीयता दी गयी।
जम्मू, हिमालय तथा उत्तर प्रदेश का जो पहाड़ी इलाका है, वहाँ के लोगों को भी मार्शल रेसेज घोषित किया गया और सेना में भर्ती किया जाने लगा। नेपाल के साथ भी अंग्रेजों की लड़ाई 19वीं शताब्दी के शुरू में ही हुई थी। मगर उसके बाद नेपाल अंग्रेजों का विश्वसनीय मित्र राज्य बन गया। तत्पश्चात् नेपाल के गुरखाओं को सेना में भर्ती किया जाने लगा। आज भी इंग्लैण्ड में गुरखा पलटनें हैं। अभी पीछे जो फाकलैण्ड युद्ध हुआ था उसमें अंग्रेजों ने इन गुरखा पलटनों का इस्तेमाल किया था। फाकलैण्ड पर अपना कब्जा जमाने के लिए उनका खून बहाया गया था।