— किशन पटनायक —
आश्चर्य की बात है कि अतिशिक्षित लोग भी अकसर कहते हैं कि धर्म एक निजी व्यापार है, इसलिए यह व्यक्तिगत चुनाव की बात है। लेकिन धर्म कभी भी निजी व्यापार नहीं रहा। 99.9 सैकड़ा से भी अधिक अनुपात उन लोगों का है जिनके लिए धर्म एक आकस्मिक यानी पूर्व-निर्धारित चीज है। जन्म के पूर्व धर्म निर्धारित रहता है। धर्मान्तरण को ही निजी व्यापार कहना चाहिए। सामूहिक धर्मान्तरण (या सामूहिक पुनःधर्मान्तरण) को एक विकृति माना जाना चाहिए और उस पर रोक लगनी चाहिए।
अगर ऊपर की बात सही है, यानी धर्म पूर्व-निर्धारित होता है, तो किसी भी धर्म को परिभाषित नहीं किया जा सकता। हिंदू परिवार में जन्म ग्रहण करना और धर्मान्तरण न करना ही हिंदुत्व है।
सच्चा हिंदू कोई भी नहीं होता है, क्योंकि ऐसा कहने पर बाकी सारे हिंदू नकली या घटिया हिंदू हो जाएँगे। आलंकारिक भाषा में ही किसी विशेष गुण को उभारने के लिए सच्चा हिंदू या सच्चा मुसलमान कहा जाता है।
सच्चा भारतीय कोई भी नहीं होता है। व्यक्ति को हम देशद्रोही या बहादुर भारतीय की उपाधि दे सकते हैं। न कोई सच्चा ब्राह्मण होता है, न कोई सच्चा यादव होता है, न कोई सच्चा चमार होता है। ये सारे दरजे जन्म के पूर्व निर्धारित होते हैं। इसलिए इनका गुणात्मक मापदंड नहीं हो सकता। विद्रोही हिंदू, स्खलित हिंदू, धर्मच्युत हिंदू हो सकते हैं, लेकिन असली-नकली हिंदुओं की चर्चा करना मूर्खता है।
आप यह न पूछें कि हिंदुत्व क्या है? आप यह पूछ सकते हैं कि हिंदू का सामान्य दर्शन क्या है या सामान्यतम आचार-विधि क्या है?
हिंदुओं का सामान्य दर्शन ब्रह्म से संबंधित है। ब्रह्म के नाम-रूप-कार्य के बारे में कोई सामान्य सिद्धांत नहीं है। ब्रह्म का ईश्वर होना भी जरूरी नहीं है। वह शून्य हो सकता है। जब वह ईश्वर होता है, वह शिव, विष्णु, बंदर, बिल्ली किसी भी रूप में पूजा जा सकता है। इसलिए हिंदू का दिमाग ऐसा हो गया है कि जब वह स्वाभाविक मुद्रा में रहता है तो उसका ईश्वर दूसरों के ईश्वर से टकराता नहीं। अतीत में कहीं-कहीं उसके संप्रदाय आपस में टकराए हैं– जैन-बौद्ध, शैव-वैष्णव लड़ाइयाँ हुई हैं।
लेकिन इन प्रक्रियाओं को हिंदू दिमाग पार कर चुका है। ईश्वर और मंदिरों का टकराव उसके स्वधर्म के विरुद्ध है। ब्रह्म के सिद्धांत के विपरीत यह बात होगी। ब्रह्म हिंदू समाज के स्थायित्व और व्यापकता का यही आधार है – देवी-देवताओं का और संप्रदायों का न टकराना। अगर वे टकराएँगे तो हिंदू-समाज छिन्न-भिन्न हो जाएगा।
हिंदुत्व को परिभाषित या सीमित करने की जहाँ भी अस्वाभाविक चेष्टा होगी, वहाँ हिंदू समाज सिकुड़ जाएगा, टूट जाएगा।
बौद्ध सम्प्रदाय के जरिए हिंदू धर्म विश्वव्यापी होने जा रहा था। लेकिन शंकराचार्य के बाद वाले युग में कट्टर जाति-प्रथा और अस्पृश्यतावाद के द्वारा विदेश जाना ही गैर-हिंदू कार्य हो गया। फलस्वरूप एक विश्वव्यापी धर्म के तौर पर हिंदू लुप्त हो गया। बौद्ध से हिंदू कट गया। आधुनिक काल में एक कट्टरपंथी हिंदू संगठन ने हिंदू को हिंदी भाषा द्वारा परिभाषित करने की कोशिश की जिसके फलस्वरूप सिख सम्प्रदाय को हिंदू समाज से लगभग अलग कर दिया- ‘अतः सावधान, हिंदुत्व को परिभाषित मत करो!’
इन बातों का मतलब यह नहीं है कि हिंदू का कोई विशेषत्व नहीं है। वह है और रहेगा लेकिन वह किसी भी परिभाषा के अनुकूल नहीं होता है। वह एक सामान्य बोध में अव्यक्त रूप में रहता है। उसको अव्यक्त ही रहने दिया जाए। व्यक्त करते ही वह गलत हो जाएगा।
संभवतः मुसलमान का भूगोल हमलों द्वारा बढ़ा है, सामूहिक धर्मान्तरण द्वारा बढ़ा है। लेकिन हिंदू धर्म का भूगोल गैरों को अपनाकर ही बढ़ा है। आधुनिक होकर धर्मान्तरण द्वारा हिंदू भूगोल को बढ़ाने की कोशिश करना हिंदू धर्म के ‘स्वधर्म’ के विपरीत है।
हिंदू एकता एक महान लक्ष्य है। इसको हासिल करने के लिए जाति-प्रथा और छुआछूत का सारा भेद मिटाना होगा। यह एक महान धार्मिक और सामाजिक कार्य है। सामाजिक रूप से एकताबद्ध हिंदू, भारतीय राष्ट्र का एक प्रचंड रक्षाकवच होगा। विडंबना यह है कि हिंदू एकता का कोई संगठन या आंदोलन नहीं है।
जो लोग हिंदू एकता का नारा दे रहे हैं, वे सामाजिक एकता नहीं चाहते, सिर्फ राजनीतिक संगठन चाहते हैं। एक राजनीतिक लक्ष्य के रूप में हिंदू एकता एक भ्रामक और विध्वंसक नारा है।
यह भारतीय राष्ट्र और हिंदू समाज को विभाजित करनेवाला है। शूद्र समूह के लिए यह एक निरर्थक नारा है। यह एक ब्राह्मण-बनिया नारा है। भारत अव्यक्त रूप में एक हिंदू राष्ट्र है। लेकिन जो इसको व्यक्त करना चाहेगा, वह इसको तोड़ेगा। वह राष्ट्र तोड़क होने के साथ-साथ हिंदू तोड़क भी होगा।
(नवंबर, 1989)