मेरे जीवन का एक तीर्थ सम्पन्न हुआ

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— ऋतु कौशिक —

पॉंच मई 1937 को एक बंगाली बाबू गाड़ी से उतरे और मई के महीने में भी भयानक सर्दी को झेलते हुए इस नए शहर को अनजान नजरों से चारों तरफ देखने लगे। तभी एक कुली इस उम्मीद के साथ कि शायद बाबूजी सामान उठाने के लिए किसी को ढूंढ़ रहे हैं उनके पास गया और पूछा, क्या आपका समान कहीं पहुंचाना है बाबू जी! बंगाली बाबू ने जवाब दिया, हां, क्या आसपास कोई होटल है? कुली ने बहुत सारे अंग्रेजी होटलों के नाम बताए लेकिन बंगाली बाबू थे कि इस बात की रट लगाए थे कि नहीं, मुझे तो किसी हिंदुस्तानी होटल में ही जाना है।

तब कुली ने बताया कि ठीक है बाबू जी, यहाँ पास ही एक मेहर्स होटल है आप वहाँ चलिए। जब बंगाली बाबू होटल पहुंचे तो उन्होंने कुली को 100 रुपये दिए। कुली हैरानी से उनकी तरफ देखते हुए बोला, बाबूजी मुझे तो सिर्फ छह पैसे ही चाहिए, वही मेरी मजदूरी बनती है। लेकिन बंगाली बाबू ने कहा कि नहीं, तुम 100 रुपये ही रखो। कुली ने मेहर्स होटल के कमरा नम्बर 109 में बाबूजी का सामान रखा और वो खुशी खुशी अपने घर चला गया और सभी को बताने लगा कि आज तो डलहौजी में कलकत्ता से सफेद धोती-कुर्ता पहन कर एक व्यक्ति आये हैं जो दिखने में भी बहुत सुंदर हैं। और उन्होंने छह पैसे की बजाय मुझे 100 रुपये दिए।

हालांकि सभी होटलों में 109 नंबर का कमरा होता है, लेकिन मेहर्स होटल का ये कमरा बहुत ही खास था क्योंकि हर कोई यहाँ आकर बंगाली बाबू को देखने के लिए बेताब था। ये बंगाली बाबू कोई और नहीं बल्कि इस देश के हर युवा दिल की धड़कन, हमारे देश के प्रिय नेता, नेताजी सुभाष चंद्र बोस थे। जब नेताजी से पूछा गया कि आपने सामान उठानेवाले मजदूर को छह पैसे की बजाय 100 रुपये क्यों दिये तो नेताजी ने कहा कि मैं आजादी की लड़ाई इसलिए ही तो लड़ रहा हूं कि मेरे देश के हर मजदूर को इतनी मजदूरी अवश्य मिलनी चाहिए जिससे वो अपना और अपने परिवार का गुजर बसर सम्मानजनक तरीके से कर सके।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस जब टीबी जैसी घातक बीमारी से ग्रसित थे तब वे अपने कुछ खास दोस्तों के सुझाव पर स्वास्थ्य लाभ के लिए डलहौजी गए थे और मई 1937 से अक्टूबर 1937 तक वहीं रहे थे। उनको डलहौजी जाकर स्वास्थ्य लाभ की सलाह देनेवाले उनके दोस्तों में से एक जवाहरलाल नेहरू जी भी थे। जब यह बात नेताजी सुभाष चंद्र बोस के एक मित्र डॉक्टर धर्मवीर और उनकी पत्नी जेन कैलब को पता चली कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस डलहौजी आकर रुके हुए हैं और एक होटल में रह रहे हैं तो जेन कैलब मेहर्स होटल आयीं और उन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस से आग्रह किया कि वे होटल में न रहकर उनके घर ‘कायनांस’ में रहें। तब नेताजी कायनांस बंगलो एस्टेट में जाकर उनके साथ रहने लगे।

कायनांस में आने पर डॉक्टर धर्मवीर और जेन कैलब ने उनका भव्य स्वागत किया। अपने पांच महीनों के डलहौजी प्रवास के दौरान नेताजी सुभाषचंद्र बोस हर रोज सुबह कायनांस से तीन किलोमीटर दूर पैदल चलकर पहाड़ी रास्तों पर सैर करते और पहाड़ों से निकलनेवाले प्राकृतिक झरने के निर्मल और ताजा पानी का सेवन करते और वहीं पानी की कल कल बहती धारा के पास बैठकर लेखन का कार्य करते और रास्ते में जा रहे स्थानीय लोगों से बातचीत करते थे।

आज प्राकृतिक पानी के इस स्रोत का नाम नेताजी के नाम पर सुभाष बावली रखा गया है तथा वहाँ पर नेताजी का एक स्मारक भी है। और जिस स्थान पर नेता जी 5 मई 1937 को सबसे पहले पहुंचे थे उस स्थान पर नेताजी की एक भव्य मूर्ति स्थापित की गयी है तथा उस स्थान का नाम नेताजी चौक रखा गया है। यह स्थान डलहौजी का सबसे प्रमुख चौक है जहाँ हर रोज देश-विदेश से हजारों सैलानी नेताजी सुभाषचंद्र बोस की इस प्रतिमा को देखने के लिए आते हैं। यह कोई नहीं जानता कि नेताजी यहाँ से कब गए कैसे गए और वे किस रास्ते से डलहौजी आए थे।

मेहर्स होटल के कमरा नम्बर 109 में जाकर वहां रखी कुर्सी, टेबल, बिस्तर, शीशा और अलमारी जिसे नेता जी ने इस्तेमाल किया था उसे देखकर मैं धन्य हो गयी और मेरे जीवन का एक और तीर्थ सम्पन्न हुआ। यह भी मेरे लिए बहुत सौभाग्य की बात है कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस 125वीं जन्मदिवस समारोह समिति के उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय शिक्षा बचाओ समिति के सचिव मंडल सदस्य श्री देवाशीष रॉय भी साथ में थे। इस तीर्थ को सम्पन्न करवाने का श्रेय मैं नेताजी सुभाषचंद्र बोस 125वीं जन्म दिवस समारोह समिति के सदस्य आदरणीय बड़े भाई श्री जगजीत आजाद जी और उनकी धर्मपत्नी सुमन जी को देती हूॅं। आप दोनों का बहुत बहुत धन्यवाद।

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