
— रामजनम —
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान किसान नेता सहजानंद सरस्वती ने कहा था कि “जो अन्न वस्त्र का काज करेगा, वही देश पर राज करेगा।” स्वतंत्र भारत में किसान समाज के सबसे मजबूत अर्थशास्त्री, किसान नेता चौधरी चरण सिंह का कहना था कि भारत की खुशहाली और दिल्ली की सत्ता का रास्ता खेत-खलिहान से होकर निकलता है ।
किसान आंदोलन न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर टिक गया है। न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग मूलतः किसान की आय में बढ़ोतरी की मांग है, खेती-किसानी को बदहाली से निकालने और किसानी में घाटा समाप्त करने की मांग है, किसान के श्रम और ज्ञान का न्यायसंगत मूल्य मिले इसकी मांग है। देश के अधिकांश किसानों की आय न्यूनतम है क्योंकि किसानी घाटे का धंधा हो गयी है। आजाद भारत में किसानी के घाटे का सवाल पहली बार डा. राममनोहर लोहिया ने उठाया था। आज किसानी से जुड़े अधिकांश लोग जीविकोपार्जन के लिए शहरों की तरफ भाग रहे हैं। किसानी से विस्थापित शहरी कामगारों के बल पर ही किसानों के परिवार जैसे तैसे चल रहे हैं। नोटबंदी, महामारी और बेरोकटोक आगे बढ़ती हमारी क्रूर आर्थिक व्यवस्था ने इन कामगारों की दशा को बंद से बदतर बना दिया है। किसानों की फसल का वाजिब दाम एवं कामगारों के श्रम का वाजिब मूल्य न मिलने से देश में आत्महत्याएं और विस्थापन लगातार बढ़ रहा है।
देश का पूरा राजनीतिक वर्ग सैद्धांतिक रूप से एकमत है कि किसानों को एमएसपी मिलना चाहिए। लेकिन सरकारी आंकड़े के हिसाब से देश के 6 फीसदी किसान परिवारों को ही एमएसपी मिल पाता है। जिसके लिए सभी दल राजी हों, फिर भी 6 फीसदी को ही मिलता हो यह भी एक आश्चर्यजनक बात है। किसान अपनी फसल घाटे में बेचने के लिए मजबूर हैं। जब कभी किसान अपनी फसल के वाजिब दाम के लिए खड़ा होता है उसे लाठी-गोली खाकर शहीद होना पड़ता है। चाहे मन्दसौर हो, हाल के दिल्ली बार्डर का किसान आंदोलन हो।
जब कभी किसानों की फसलों के थोड़े अच्छे दाम मिलते है उस समय आसपास के बाजारों में रौनक बढ़ जाती है, देश की इकोनॉमी में तेजी आने के साथ स्थानीय समाजों में खुशहाली भी बढ़ जाती है। इसलिए एमएसपी का जाहिर है। एमएसपी पर कानूनी गारंटी की मांग किसान आंदोलन की एक जायज मांग है। कानूनी गारंटी का मतलब चाहे सरकार खरीदे या बाजार।
रोजगार का महा संकट देश की उस आर्थिक व्यवस्था के चलते है, जो खेती और कारीगरी, दोनों को घाटे का बनाये रखने पर ही फलती-फूलती है। इस महा संकट का हल एमएसपी में है।
जैसे ही किसान की फसल और कामगार के श्रम व ज्ञान का न्यायसंगत मूल्य मिलना शुरू होगा वैसे ही किसानी में घाटे और देश में बढ़ती बेरोजगारी का समाधान दिखाई देने लगेगा। मेरी अपनी समझ है कि इस देश के कृषि उद्यम और वस्त्र उद्यम का वाजिब मूल्य मिले तो इस देश की बेरोजगारी 50 फीसदी तुरंत कम हो जाएगी। एमएसपी केवल किसान की आय का सवाल नहीं है बल्कि इस देश की बेरोजगारी का भी सवाल है।
छोटी पूंजी से जीविकोपार्जन एवं कारोबार करनेवाले समाज के 80 फीसदी लोगों को दुनिया की आर्थिक संरचना ने अपने जाल में फंसाकर इधर-उधर भटकने के लिए मजबूर कर दिया है। यह पूरी आर्थिक व्यवस्था लोभ और ईर्ष्या में विकास मर्म देखती है आर्थिक ढांचे की विडम्बना है कि जो स्थितियां लोगों की खुशहाली का आधार बन सकती थीं वे आज अनेक लोगों के लिए विपन्नता और हताशा से आत्महत्या की नौबत ला रही हैं।
किसानी के घाटे पर देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया चलती है बड़े शहरों की चमकीली कोठियां, हवाई जहाज उतारने वाले ये चौड़े चौड़े हाईवे वाले विकास माडल किसान-कारीगर-कामगार के श्रम एवं ज्ञान के मूल्य की लूट पर ही टिके हैं। लूट के इस खेल में आधुनिक ज्ञान केन्द्र विश्वविद्यालय, साइंस और पूंजी का गठजोड़ है जिसके चलते नैतिक मूल्यों के साथ चलनेवाले समाजों का ज्ञान तिरस्कृत हो गया है और लूट में शामिल मूल्य रहित ज्ञान पुरस्कृत हो रहा है। किसान आंदोलन का संकेत है कि न्याय, त्याग और भाईचारा के मूल्य के मार्गदर्शन में अगले समाज परिवर्तन और नयी व्यवस्थाओं के बारे में सोचा जाना चाहिए।
किसान के घाटे और लूट को खत्म करने की मांग देश और दुनिया को बदलने की आवाज है। यह छोटी पूंजी के विस्तार एवं संरक्षण की मांग है।
भारत के 70-80 फीसदी लोग छोटी पूंजी के व्यवसाय में लगे हैं। किसान कारीगर, बुनकर और तमाम ठेले, पटरी, गुमटी के दुकानदार और स्थानीय बाजारों के ज्यादातर दुकानदार छोटी पूंजी से जीविका एवं व्यवसाय चलाने के माहिर हैं। किसान समाज के साथ ही छोटी पूंजी का बृहत्तर समाज, बेरहम आर्थिक तानाशाही का दंश झेल रहा है। महामारी की तरह हमारे चारों तरफ फैली बेरोजगारी का हल भी छोटी पूंजी के संरक्षण में ही है। पर्यावरण एवं प्रकृति को बचाने की अद्भुत शक्ति भी इन्हीं समाजों के पास है। भारत में बराबरी और खुशहाली का एकमात्र रास्ता भी यहीं से निकालता है। भारत में सामाजिक विषमता के खिलाफ और सामाजिक न्याय के अगले चरण का सूत्र किसान आंदोलन मे ही है।
एमएसपी का संघर्ष इस दिशा मे आगे बढ़ने की शुरुआत है।
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सही कहा है कि किसानी के घाटे पर देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया चलती है बड़े शहरों की चमकीली कोठियां, हवाई जहाज उतारने वाले ये चौड़े चौड़े हाईवे वाले विकास माडल किसान-कारीगर-कामगार के श्रम एवं ज्ञान के मूल्य की लूट पर ही टिके हैं।
अभी पता चला है कि खाड़ी देशों में श्रम करने वाले श्रमिक वर्ग के लोग सर्वाधिक विदेशी मुद्रा भारत भेजते हैं।