स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा – मधु लिमये : 22वीं किस्त

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)

पाकिस्तान और जिन्ना

कालक्रम में हिंदुस्तानी राष्ट्रीयता, इण्डियन नेशन, हिंदू-मुसलमानों के समान हितों पर आधारित एक राष्ट्र जैसी संकल्पनाएं अधिकांश मुसलमानों को अमान्य होने लगीं। अब वे मुस्लिम इण्डिया शब्द प्रयोग करने लगे। हिंदू-मुसलमान दो राष्ट्र हैं, मुस्लिम इण्डिया एक भौगोलिक चीज मात्र है, ऐसा मुस्लिम लीग के नेता कहने लगे। मगर मुस्लिम इंडिया के क्या माने?मुसलमान तो सारे देश में फैले हुए हैं। वे हर प्रांत, जिले, शहर और ग्राम में हैं। फिर मुस्लिम इंडिया की क्या व्याख्या होगी, उसकी भौगोलिक परिधि क्या होगी? यह सवाल भी उत्पन्न हुआ। पश्चिमोत्तर और पूर्वी भारत में उनकी बहु-संख्या थी। उस इलाके को वे अपना वतन, मुसलमानों का होमलैंड कहने लगे। उनकी मांग थी कि हमें अपना वतन दो। पाकिस्तान में पश्चिमोत्तर तथा पूर्वी हिंदुस्तान आएगा यह तो स्पष्ट था परंतु यह स्पष्ट नहीं था कि पाकिस्तानी राष्ट्रीयता मुस्लिम समुदायवाचक होगी या भौगोलिक? क्या सभी मुसलमान पाकिस्तान के नागरिक होंगे? फिर पाकिस्तान में हिंदू-सिक्ख, ईसाई-बौद्धों का क्या स्थान होगा? क्या ये दूसरे दर्जे के नागरिक माने जाएंगे? क्या पाकिस्तान में सभी हिंदुस्तानी मुसलमानों को जाकर बसने का अधिकार मिलेगा? स्पष्ट ही पाकिस्तान निर्माण की संकल्पना में ये सब अंतर्विरोध थे और उनका समाधान न 1940 में, न 1947 में निकला और न ही आज तक कोई कर पा रहा है। विभाजन के कुछ वर्ष बाद भारतीय मुसलमानों के लिए पाकिस्तान का दरवाजा बंद हो गया था। पाकिस्तान माने मुस्लिम इंडिया वाली स्थिति नहीं रही।

पाकिस्तान बनने से पहले जनसंख्या के अदल-बदल का सुझाव कुछ लोगों के द्वारा दिया गया था। मगर करोड़ों लोगों को जबरदस्ती हटाने की कल्पना तक अमानवीय महसूस होती थी। पाकिस्तान बनते ही जिन्ना साहब ने फिर धर्म व्यक्तिगत बात है, राज्य से उसका कोई वास्ता नहीं है, सभी धर्म के लोग समान नागरिक माने जाएंगे अपने अभिभाषण में कहा। लेकिन जिन्ना साहब की मृत्यु के बाद आज तक पाकिस्तान धर्मनिरपेक्ष राज्य की ओर नहीं बल्कि निजाम-ए-मुस्तफा की तरफ ही तेजी से बढ़ा है।

भारत के नेताओं की दृढ़ मान्यता थी कि हिंदुस्तान में रहनेवाले हर निवासी को राष्ट्रीयत्व का समान अधिकार प्राप्त होगा, समान नागरिकता का दर्जा मिलेगा, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान हो, ईसाई हो या सिक्ख हो, बौद्ध हो या पारसी। और जहाँ तक पाकिस्तान का सवाल है, यह विचारणीय है कि पाकिस्तान के निर्माण के समय जिन्ना साहब ने पाकिस्तान की संविधान निर्मात्री परिषद में जो पहला अभिभाषण किया उसमें उन्होंने यह कहा कि पाकिस्तान में रहनेवाले जितने लोग हैं, वे सब पाकिस्तान के समान नागरिक हैं। हिंदू-ईसाई-मुसलमान आदि में जो आज भेद हैं, वह कालांतर में पूर्णतया मिट जाएंगे, धार्मिक अर्थ में नहीं, क्योंकि लोगों का अपना धर्म रहेगा। धर्म व्यक्ति की श्रद्धा की बात रहेगी, व्यक्ति के निजी जीवन की बात रहेगी और राज्य पर उसका कोई असर नहीं होगा। इसका मतलब हुआ कि जिन्ना साहब पाकिस्तान के संविधान की रचना महज भौगोलिक राष्ट्रीयता के आधार पर करना चाहते थे। फर्क इतना ही होता कि उसमें थोड़ा-सा इस्लाम का, मुस्लिम धर्म का रंग चढ़ जाता। लेकिन बाकी मामलों में जैसे आधुनिक धर्मनिरपेक्ष या सेकुलर राज्य होते हैं, पाकिस्तान भी उसी तरह का एक आधुनिक राज्य बनता। इस तरह पाकिस्तान के संस्थापक नेता, इस्लाम के अलावा एक भौगोलिक पाकिस्तानी निष्ठा और आस्था को भी जगाना चाहते थे।

पाकिस्तान की रचना में एक और विडंबना छिपी हुई थी कि पाकिस्तान के भूभाग की सीमाएं एक ही जगह नहीं थीं। एक हिस्सा पश्चिम के प्रांतों के समूह को और एक हिस्सा पूर्वी बंगाल के एक बड़े भाग और एक असम के एक जिले के अधिकांश हिस्से को लेकर पूरा राज्य बना था। इन दोनों हिस्सों के बीच हजार-बारह सौ मील की दूरी थी। इस दूरी के कारण जो भौगोलिक देशभक्ति की भावना दोनों हिस्सों में समान रूप से जगनी चाहिए थी, वह नहीं जग पायी। अकेला इस्लाम का बंधन अपर्याप्त साबित हुआ। जिन्ना साहब ने अपने इंतकाल के पहले पूर्वी पाकिस्तान का दौरा किया था और वहाँ पूर्वी पाकिस्तान की जनता के सामने कई भाषण भी किए थे। ढाका विश्वविद्यालय के छात्रों के सामने बोलते हुए जिन्ना साहब ने कहा था : मुझे यह स्पष्ट करना है कि पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू होगी, और कोई अन्य भाषा नहीं। इस मामले में जो आपको गुमराह करना चाहते हैं, वे पाकिस्तान के दुश्मन हैं। एक राजभाषा के बिना किसी भी देश में एकता कायम नहीं हो सकती है। न ही  वह ठीक ढंग से कार्य कर सकता है।

इसका यह मतलब हुआ कि जिन्ना साहब की राय में पाकिस्तानी राष्ट्रीयत्व के जो अनेक आधार थे, उनमें एक नंबर पर इस्लाम था। दूसरा भौगोलिक एकता या भौगोलिक देशभक्ति था और तीसरा समान राजभाषा या राष्ट्रभाषा, यानी उर्दू। पूर्वी पाकिस्तान की जनता इस्लाम के समान सूत्रों को तो अच्छी तरह समझती थी, धार्मिक एकता का भी अहसास करती थी, लेकिन पाकिस्तान की भौगोलिक एकता की जो बात पश्चिमी पाकिस्तान के नेता करते थे उसके प्रति उनके मन में कोई आकर्षण नहीं था। अगर उनमें किसी तरह की भौगोलिक देशभक्ति की भावना थी तो वह पूर्वी पाकिस्तान तक सीमित थी। और उनकी राष्ट्रीय भावना का संबंध बंगाली भाषा से था। पूर्वी पाकिस्तान में जनसाधारण के मन में बंगाली भाषा, साहित्य और सभ्यता के प्रति अत्यंत आदर की भावना थी इसलिए वह भौगोलिक पाकिस्तानी राष्ट्रीयता की तरफ जरा भी आकर्षित नहीं हो पाया। उर्दू से तो उन्हें कोई मोहब्बत ही नहीं थी। धीरे-धीरे उन्हें ऐसा महसूस होने लगा कि पाकिस्तान और इस्लाम के नाम पर पश्चिम पाकिस्तान के लोग, और विशेषकर पंजाबी लोग उनके ऊपर हावी हो रहे हैं।

जिन्ना साहब के इंतकाल के कुछ ही दिन बाद पाकिस्तान की असेंबली में जो चर्चा हुई थी, उसके दौरान एक सदस्य ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान में क्या समानता है एक इस्लाम के रिश्ते को छोड़कर? पाकिस्तान के लिए जो समान संघर्ष पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने किया उसके अलावा उनको एक सूत्र में बाँधनेवाली कोई भी शक्ति नहीं है। राष्ट्र के निर्माण के लिए जितनी आवश्यक बातें हैं चाहे भाषा हो, सभ्यता हो, इतिहास हो, रहन-सहन और रस्मो-रिवाज हों, इन सारे क्षेत्रों में पश्चिमी पाकिस्तान की जनता और पूर्वी पाकिस्तान की जनता में कोई समानता नहीं है।

इसलिए पाकिस्तान के जन्म के कुछ ही वर्षों के अंदर पाकिस्तान के कई नेता पाकिस्तान की एकता और एक राज्य के रूप में उसके भविष्य के प्रति संदेह व्यक्त करने लगे थे। आगे चलकर यह बात स्पष्ट होने लगी कि कृत्रिम ढंग से बना यह राज्य सिर्फ धर्म के नाम पर बँधकर ज्यादा दिन नहीं रह पाएगा। भारत के साथ 1965 के युद्ध के बाद पूर्वी पाकिस्तान की जनता को यह स्पष्ट हो गया था कि पश्चिमी पाकिस्तान के नेता अपने स्वार्थ के लिए, कश्मीर के लिए और अपने अन्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पूर्वी पाकिस्तान के जन-जीवन को खतरे में डाल सकते हैं। अतः पूर्वी पाकिस्तान की जनता को अपने भविष्य के बारे में एक अलग ढंग से सोचना चाहिए।

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