— मंजुल भारद्वाज —
मूलतः रंगकर्म एक राजनीतिक कर्म है। जो राजनीति और रंगमंच के अंतर्संबंधों को नहीं जानता वह ‘रंगकर्मी’ नहीं है। भारतीय मान्यताओं के अनुसार देव और दानव लगातार युद्ध में उलझे रहते थे। उनमें सुलह हो, शांति कायम हो इसलिए नाट्य का आविष्कार हुआ। जब जन्म ही राजनीतिक हेतु साधने के लिए हो तब जो तबका यह कहता है कि रंगकर्म का राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है, वह भ्रमित है। ऊपर से निरीह होकर दिन-रात यह राग अलापना कि हम तो कलाकार हैं। हमारा राजनीति से क्या लेना-देना! यह कहने और मानने वाले ‘नाच-गायन के हुनरमंद जिस्मों का समूह हैं’ जो नाचने-गाने वालों को कलाकार मानता है। दरअसल रंगकर्म चेतना और दृष्टि सम्पन्न कर्म है। जिसे पता है कि क्यों और कब नाचना है, गाना है, उसका उद्देश्य क्या है- वही कलाकार है।
रंगकर्म विद्रोह का सामूहिक कलाकर्म है। दुनिया में विविध रंग हैं, मसलन लाल, पीला, नीला आदि। ये रंग विचारों को सम्प्रेषित करते हैं। रंग यानी विचार। दरअसल रंगकर्म विचारों का कर्म है। विचार राजनीतिक प्रक्रिया है जो व्यवस्था का प्रशासनिक सूत्र है और कला उसका सृजनकर्म है जो मनुष्य को मनुष्य बनाने की प्रकिया है। राजा हरिश्चंद्र नाटक देखकर मोहनदास ने सत्य का मार्ग चुना। रंगकर्म गांधी को सत्य की डगर पर चलने के लिए प्रेरित करता है।
समता, बंधुता और शांति का पैरोकार हो रंगमंच, पर ऐसा हो नहीं रहा। रंगमंच सत्ता के वर्चस्व का माध्यम भर रह गया है और रंगकर्मी उसकी कठपुतलियां जो रंगकर्म के मूल उदगम के खिलाफ हैं। रंगकर्म का मूल है विकार से मनुष्य और मनुष्यता को मुक्त करना। मनुष्य के विचार को विवेक की लौ से आलोकित करना। रंगकर्म समग्र है, मनुष्यता का पैरोकार है। रंगकर्म की प्रक्रिया ‘स्वयं’ को आग में जलाकर जिन्दा रखने जैसी है।
आत्मविद्रोह का अहिंसात्मक, कलात्मक सौन्दर्य है रंगकर्म। सौंदर्य बोध ही इंसानियत है। सौंदर्य बोध सत्य को खोजने, सहेजने, जीने और संवर्धन करने का सूत्र है। सौंदर्य बोध विवेक की लौ में प्रकशित शांति की मशाल है जो तलवार से टपकते खून को निरर्थक साबित कर तलवारबाज़ों को मनुष्यता के योद्धा नहीं वरन शत्रु सिद्ध करती है। रंगकर्म के इसी सौंदर्य बोध को सत्ता ने लूट लिया। सौंदर्य बोध के अमूर्त विवेक को मूर्त शरीर तक सिमटा दिया। कलाकारों को विवेक सौंदर्य से चमकने की बजाय भोग और लिप्सा के वशीभूत कर सत्ता के गलियारों में रेंगते हुए प्राणियों में बदल दिया गया है। रंग यानी विचार के कर्म को नुमाइश बना दिया गया है।
दुनिया भर की सत्ताओं ने यही किया। सत्ता चाहे पूंजीवादी हो, मार्क्सवादी हो या दक्षिणपंथी। सामंतवादी सत्ता ने उसे नचनिया-गवनियां, बादशाहों ने दरबारी, पूंजीवादी सत्ता ने बिकाऊ और वामपंथी सत्ता ने प्रोपेगंडा बना दिया रंगकर्म को! सभी सत्ताओं ने कलाकारों को राजाश्रय देकर उनके मन में यह बात बिठा दी कि कलाकार बिना राज-आश्रय के जी नहीं सकता। सम्मान नहीं पा सकता। यही सोच सत्ता ने समाज के मानस में भर दी। दुनिया भर का जनमानस यही मानता है कि बिना बिके कलाकार जी नहीं सकता। सत्ता ने उन्हीं रंगकर्मियों को आगे बढ़ाया जो उनके वर्चस्व के लिए उपयोगी हों; चाहे वह शेक्सपियर हो, चेखव हो, गार्गी हो या अमेरिका के नवपूंजीवादी। शेक्सपियर ने अंग्रेजी भाषा और साम्राज्यवाद को आगे बढ़ाया, चेखव, गार्गी सर्वहारा के नाम पर तानाशाही के प्रोपेगेंडिस्ट बन गए और अमेरिका के नवपूंजीवादी प्रोफेशनल और कमर्शियल जुमलों से लिपटकर ‘खरीदने और बेचने’ के वाहक बनकर पूरी दुनिया को गर्त में ले गए।
इसका उदाहरण है रूस का यूक्रेन पर हमला। अमेरिका और रूस के वर्चस्ववाद की बलि चढ़ गया यूक्रेन। अमेरिका अपने एकध्रुवीय वर्चस्व को कायम रखना चाहता है। रूस अपने अतीत को वापस पाना चाहता है। बर्बाद हो रहा है यूक्रेन। यूक्रेन अपनी सार्वभौमिकता के लिए लड़ रहा है। एक स्वतंत्र देश होने के नाते उसे अपने निर्णय लेने का अधिकार है, जो रूस को मंजूर नहीं क्योंकि यूक्रेन के नाटो में शामिल होने से रूस डरता है। यूक्रेन दूसरा अफ़गानिस्तान बनने की राह पर है और दुनिया तमाशा देख रही है।
सोचिए, मानवाधिकारों की दुहाई देनेवाला अमेरिका कहां है? अमेरिका का अर्थ वहां की सत्ता नहीं जनता कहां है? यूक्रेन के लाखों बच्चे और महिलाएं दर-दर भटक रही हैं। कहां है यूरोप का रेनेसां? कहां है रूस की जनता? क्या सर्वहारा का कोई दर्द है रूस की जनता के मन में? क्या अमेरिका, रूस, यूरोप या दुनिया के किसी भी मुल्क में कोई पिता नहीं है, मां नहीं है, महिला नहीं है जो बच्चों और महिलाओं का दर्द जान सके?
कहां हैं वे वैज्ञानिक जिन्होंने विज्ञान के नाम पर परमाणु बम बनाए, मिसाइलें बनाईं, टैंक बनाये? क्या वे मनुष्यता के इन विनाशकारी हथियारों को बनाये बिना अपना पेट नहीं भर सकते थे? क्या उनका पेट मनुष्यता को मारकर ही भरता है?
विज्ञान मनुष्यता को नहीं बचाता। विवेक व ज्ञान ही मानवता को बचाता है। विवेकपूर्ण ज्ञान रंगकर्म से आलोकित होता है। रंगकर्म दर्शक के विवेक को जगाता है पर सत्ता ने तकनीक और प्रशिक्षण के नाम पर विवेक बुद्धि को हर लिया है। पूरी दुनिया में रंगकर्मियों को प्रशिक्षित कर बाजारू बनाने के नाम पर बढ़ई बना दिया गया है। नाचने-गाने वाले शरीर को दृष्टि शून्य बना दिया। सत्ता ने इन दृष्टि शून्य नाचने-गाने वाले जिस्मों को जीवित रखने के लिए ग्रांट, अकादमी सम्मान, फेलोशिप की भीख देकर जनता से काट दिया है। सत्ता बड़ी निपुणता से इन दृष्टि शून्य नाचने-गाने वाले जिस्मों की नुमाइश कराती है बड़े-बड़े थिएटर फेस्टिवल के नाम पर। भारत में इसके उदाहरण हैं- भारतीय रंग महोत्सव, जोनल फेस्टिवल आदि।
दुनिया में आज चार तरह का थिएटर होता है। एक सत्ता पोषित जो इन दृष्टि शून्य नाचने-गाने वाले जिस्मों की नुमाइश भर होता है। दूसरा प्रोपेगंडा होता है जिसमें दृष्टि शून्य नाचने-गाने वाले जिस्मों का उपयोग वामपंथी-दक्षिणपंथी प्रोपेगंडा के लिए होता है। तीसरा बुद्धिजीवी वर्ग का ‘माध्यम’ होने का शगूफा है जो रंगकर्म को सिर्फ माध्यम भर समझते हैं। चौथा रंगकर्म है ‘थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’। नाट्य सिद्धांत का रंगकर्म जो थिएटर को उन्मुक्त मानव दर्शन मानता है। थिएटर मानवता के कल्याण का वह दर्शन है जो किसी सत्ता के अधीन नहीं है। जो हर सत्ता को आईना दिखाता है। चाहे कोई भी सत्ता हो- राजनीतिक,आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक या सांकृतिक सत्ता- सभी को आईना दिखाता है।
आज विश्व को ऐसे ही रंगकर्म की दरकार है। ऐसे रंगकर्मियों की आवश्यकता है जो रंगकर्म के मूल को समझें, उसकी दृष्टि को आत्मसात कर एक उन्मुक्त मानवीय विश्व का निर्माण करें। उसके लिए सत्ता के हर षड्यंत्र के चक्रव्यूह को भेदना होगा। समाज के डीएनए में घुसे इस वायरस को मारना होगा कि ‘एक उन्मुक्त’ कलाकार बिना सत्ताश्रय के जी नहीं सकता। पेट भरने, शोहरत, मय, मदिरा और शबाब के सत्ता षड्यंत्र से बाहर आकर कलासाधक बनना होगा। क्या कहा, यह असम्भव है? कोरा आदर्शवाद है? इंसान और इंसानियत भी आदर्शवाद है, नहीं तो सब शरीर हैं जो पेट भरते हैं, अपने जैसे शरीर पैदा करते हैं और दुनिया से चले जाते हैं।
अनेक रंगकर्मी ‘थिएटर ऑफ रेलेवंस’ नाट्य सिद्धांत के रंगकर्म पर जिन्दा हैं। सत्ता, कॉर्पोरेट, राजनीतिक पार्टियों के आश्रय के बिना पूरे भारत में रंग आन्दोलन को उत्प्रेरित कर रहा है। विश्व के अनेक देशों में ‘थिएटर ऑफ रेलेवंस’ नाट्य सिद्धांत पर रंग कार्यशालाओं के साथ नाटकों का मंचन भी किया है। निर्णय आपका है- उन्मुक्त हों या गुलामी में रेंगते रहें ! एक और बात समझनी जरूरी है कि सरकार नहीं दर्शक रंगकर्म का आधार है !