मैकाले जैसे अंग्रेजी लेखकों और प्रशासकों ने बंगालियों की शारीरिक और मानसिक दुर्बलता के बारे में बहुत व्यंग्यात्मक तरीके से लिखते हुए उनकी खिल्ली उड़ाई थी। इस बात को लेकर भी शिक्षित बंगालियों में एक प्रतिक्रिया हुई और व्यायामशालाओं के जरिये शारीरिक बल प्राप्त करने की ओर बंगाली नौजवान अग्रसर होने लगे थे। दुर्गा या काली पूजा का मार्ग इसी विचारधारा और कार्य-प्रक्रिया का एक अंग था। बंगाल के नौजवान मानते थे कि काली माता खून और बलिदान की प्यासी है, जालिम अंग्रेजों का खून और शहीदों का बलिदान चाहती हैं।
इस प्रकार नए हिंसात्मक क्रांतिकारी आंदोलन का प्रारंभ माणिकतला षड्यंत्र और अनुशीलन समिति से होता है। मुजफ्फरपुर में एक जालिम अंग्रेज मजिस्ट्रेट, जिसको कलकत्ता से तबादला करके वहां भेजा गया था, को कत्ल करने का निर्णय क्रांतिकारियों ने किया। जब मजिस्ट्रेट का अपने क्लब से घर लौटने का समय हुआ तो क्रांतिकारी नौजवानों ने उसकी गाड़ी पर बम फेंके। मजिस्ट्रेट की गाड़ी चूंकि पीछे थी, इसलिए वह बच गया लेकिन दो यूरोपियन महिलाएं मारी गईं। यह पहल खुदीराम बोस नाम के एक सोहल वर्षीय नौजवान ने की थी जिसे बाद में फांसी की सजा हुई।
इस मजिस्ट्रेट का नाम किंग्सफोर्ड था। 27 अगस्त, 1907 को इसने सुशील कुमार सेन नाम के नेशनल कालेज के एक छात्र को पंद्रह बेंत लगाने की सजा इस बिना पर सुनाई थी कि उसने एक दिन पहले पुलिस पर हमला किया था। दूसरे दिन इस बहादुर छात्र का कालेज स्क्वेयर में हुई सभा में स्वागत किया गया और उसको फूल-मालाओं से लाद दिया गया। इसी मजिस्ट्रेट ने ‘वंदेमातरम्’ के खिलाफ भी एक मुकदमा सुनाया था। अंग्रेज मजिस्ट्रेट के इन सभी घृणास्पद क्रियाकलापों को लेकर क्रांतिकारियों के मनों में इसके प्रति द्वेष की भावना पैदा हो गई थी। मुजफ्फरपुर बम विस्फोट की घटना इसी भावना की परिणति थी।
खुदीराम बोस ने जान-बूझकर पुलिसवालों को अपने साथी का नाम गलत बताया था। लेकिन समस्तीपुर स्टेशन पर पुलिस ने उसके असली साथी प्रफुल्लचंद्र चाकी को गिरफ्तार करने का असफल प्रयास किया। पुलिस के हाथ लगने से पहले ही चाकी ने अपने आप पर गोली चलाकर आत्महत्या कर ली।
माणिकतला केस अलीपुर के जज के सामने चला और उसमें बारीनकुमार घोष सहित ग्यारह क्रांतिकारियों को सात से लेकर दस वर्ष तक कालेपानी की सजा हुई। मगर न्यायाधीश ने अरविंद घोष को रिहा कर दिया। कहा जाता है कि न्यायाधीश और अरविंद घोष इंग्लैण्ड में साथ-साथ पढ़े थे और दोनों ने एक समय ही परीक्षाएं दी थीं। यह भी अटकल लगाई जाती है कि न्यायाधीश को क्रांतिकारियों द्वारा यह धमकी मिली थी कि यदि वे अरविंद घोष को दोषी ठहराएंगे तो उनकी जान खतरे में पड़ सकती है। इसी माणिकतला केस में माफी के सरकारी गवाह (एप्रूवर) को क्रांतिकारियों ने उसके द्वारा किए गए विश्वासघात की सजा देते हुए कत्ल कर दिया।
मुजफ्फरपुर काण्ड का समूचे देश के नौजवानों पर जबरदस्त असर हुआ। इनकी प्रशंसा में कई गीत और कविताएं लिखी गईं। क्रांतिकारियों के इन साहसिक कामों को लेकर ‘केसरी’ में जो लेख लिखे गए उनका आधार बनाकर राजद्रोह का एक नया केस तिलक जी पर 1908 में चलाया गया। इसमें उनको छह साल की सजा दी गई और भारत से दूर बर्मा की मंडले जेल में भेज दिया गया।
अनुशीलन समिति के साहित्य में हिंदू-मुसलमानों के संबंधों के बारे में एक विचित्र बात पायी जाती है। इस साहित्य में जहां-तहां यह भी लिखा गया है कि क्रांतिकारी संगठन में मुसलमान सदस्यों को प्रवेश न दिया जाए। यदि हिंदू अपने उज्ज्वल राष्ट्रीयत्व और अपनी संकल्पशक्ति को न छोड़ें और मुसलमानों के सामने घुटने न टेकें तो सारा ‘मुस्लिम राष्ट्र’ हिंदुओं के चरणों में लीन हो जाएगा। साथ-ही-साथ उसमें यह भी कहा गया है कि मुसलमानों के प्रति बैर-भावना न दिखाई जाए, न ही मुस्लिम समाज के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार किया जाए।
अनुशीलन समिति के सदस्यों को एक छह सूत्री शपथ लेनी पड़ती थी। उन्हें यह प्रतिज्ञापूर्वक कहना पड़ता था कि हम गुप्त बातों को किसी के सामने प्रकट नहीं करेंगे, समय-समय पर समिति के प्रमुख द्वारा दिए गए आदेशों को अमल में लाएंगे। अपना निवास-स्थान प्रमुख से कभी नहीं छिपाएंगे और समिति के विरोध में यदि कोई षड्यंत्र रचने की जानकारी मिली तो उसकी सूचना अवश्य देंगे। सदस्यों को यह भी शपथ लेनी पड़ती थी कि प्रमुख के सभी निर्देशों को वे शिरोधार्य मानेंगे और किसी भी किस्म का काम लज्जास्पद नहीं समझेंगे; किसी प्रकार की प्रसिद्धि की आकांक्षा नहीं रखेंगे;अकारण वाद-विवादों में नहीं उलझेंगे और अपने कर्तव्यों को निःस्वार्थ भावना तथा निष्ठापूर्वक करेंगे। अंत में उन्हें यह भी वचन देना पड़ता था कि उनको जो गुप्त शिक्षा दी जाती थी (बम आदि बनाने या अन्य विध्वंसक कार्य करने की) उनकी जानकारी वे किसी के सामने प्रकट नहीं करेंगे।
अनुशीलन समिति की स्थापना के बीज रूप में विपिनचंद्र पाल और पी.मित्तर द्वारा ढाका में नवंबर 1905 में दिया गया भाषण था। पुलिनबिहारी दास के नेतृत्व में इस समिति का संगठन द्रुत गति से फैलने लगा। पुलिन ने प्रारंभ में लाठी, कवायद आदि की शिक्षा नौजवानों को दी। न्यायालयों ने इस अनुशीलन समिति का प्रेरणास्रोत महाराष्ट्र के राजद्रोही नेताओं की सीख में पाया था। रूस और जापान के बीच हुए युद्ध की वजह से भारतीयों में जापान के प्रति आकर्षण पैदा हुआ था। शारीरिक बल प्राप्त करने की कल्पना के पीछे भी जापान का उदाहरण मौजूद था।
ढाका अनुशीलन समिति का केंद्र था। जुलाई 1910 में जो ढाका षड्यंत्र का मुकदमा चलाया गया था, वह एक माने में अनुशीलन समिति के कार्य की व्यापक और गहरी सरकारी जांच के रूप में था। इसमें छत्तीस व्यक्तियों को सजा दी गई थी। लगभग दो साल बाद उच्च न्यायालय में अपील का फैसला हुआ। उसमें चौदह व्यक्तियों को दी गई सजाओं की पुष्टि कर दी गई, लेकिन शेष की सजाएं कुछ कम कर दी गईं। पुलिनबिहारी दास को सात साल की काले पानी की सजा हुई और उनके दो प्रमुख साथियों आशुतोषदास गुप्ता और ज्योतिर्मय राय को छह-छह साल की।
उसके बाद अनुशीलन समिति का केंद्र बारीसाल हो गया। वहां कई डकैतियों को लेकर बारीसाल षड्यंत्र केस चलाया गया। ढाका केस के नतीजे सरकारी दृष्टि से संतोषजनक नहीं थे इसलिए बारीसाल षड्यंत्र केस के आरोपियों के साथ सरकार ने समझौता कर लिया। इसके तहत बारह व्यक्तियों ने अपने जुर्म कबूल कर लिए और शेष चौदह को रिहा कर दिया गया। इसमें दो साल से लेकर बारह साल तक की कालेपानी की सजाएं हुईं।