सामाजिक आचरण और शिक्षा

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— नन्दकिशोर आचार्य —

शिक्षा के प्रयोजन और प्रकिया को लेकर विद्वानों में निरंतर विवाद होता रहा है और अन्य मामलों की तरह यहाँ भी किसी सर्वमान्य निष्कर्ष तक पहुँचना संभव नहीं हो सका है। लेकिन, यह विवाद मूलतः शिक्षा के प्रयोजन के नाम पर जीवन के प्रयोजन के बारे में होता रहा है और उसी कारण शिक्षा की प्रक्रिया को लेकर भी कोई निश्चित पद्धति विकसित नहीं की जा सकी है।

शिक्षा के माध्यम से हम अधिकांशतः अपने पूर्वग्रहों और मान्यताओं को नयी पीढ़ी तक संप्रेषित करना चाहते रहे हैं और यही आग्रह शिक्षा के प्रयोजन के प्रश्न पर मतैक्य नहीं होने देते, क्योंकि कई मामलों में हमारी मान्यताएँ एक-दूसरे से मेल नहीं खातीं और कई दफा तो वे बिल्कुल विपरीत ध्रुवों पर स्थित होती हैं। भौतिकवादी और आध्यात्मिक या आदर्शवादी दृष्टिकोण दो परस्पर विरोधी ध्रुव हैं– इसलिए इनसे प्रेरित शिक्षा की अवधारणा, प्रयोजन और प्रक्रिया का भी एक-दूसरे से उतना ही भिन्न होना स्वाभाविक है।

दिक्कत यह होती है कि शिक्षा पर विचार करते समय दोनों ही दृष्टियों के समर्थक जीवन की समग्रता पर विचार करने के बजाय अपनी-अपनी दृष्टि के औचित्य को सिद्ध करने पर अधिक बल देते हैं और शिक्षा को जीवन के समग्र विकास के उपकरण की तरह ग्रहण करने के बजाय अपनी दृष्टि को समाज पर आरोपित करने का उपकरण बनाना चाहने लगते हैं।

दूसरों पर अपने आग्रहों को आरोपित करने की प्रवृत्ति- चाहे उसके लिए बल का प्रयोग किया जाय या बारीक मनोवैज्ञानिक पद्धतियों का– सूक्ष्म स्तर पर एक अधिनायकवादी प्रवृत्ति है। अतः, यह अलोकतांत्रिक ही नहीं, अवैज्ञानिक भी है क्योंकि यह मानवीय चेतना के विकास की दिशा और विस्तार को अपने अधूरे ज्ञान की सीमाओं में बद्ध कर देना चाहती है।

ज्ञान का कोई भी स्तर चेतना के समग्र और संपूर्ण विकास की संभावनाओं के सम्मुख अधूरा और ओछा ही माना जाना चाहिए। इसीलिए यदि ज्ञान की दिशा सही है तो वह विनय की प्रवृत्ति का विकास करती है। विनय मूलतः एक वैज्ञानिक और लोकतांत्रिक प्रवृत्ति है क्योंकि यह अन्य पर अपनी धारणाओं को आरोपित करने से बचती है और उसमें अपनी ही मान्यताओं के प्रति अन्ध-आग्रह और दूसरे की धारणाओं के प्रति उपेक्षा या अवमानना की भावना नहीं होती– बल्कि सदा दूसरे की राय के सम्मान की प्रवृत्ति होती है।

इसलिए शिक्षा को लेकर किसी भी तरह का दुराग्रह, अन्ततः, एक अलोकतांत्रिक और इसलिए मानवविरोधी दृष्टिकोण को स्थापित करने का ही प्रयत्न सिद्ध होता है। बहुत से शिक्षा-शास्त्री और सांस्कृतिक विचारक यदि शिक्षा और संस्कृति को किसी एक ही संस्था पर– चाहे वह राजा हो या धर्म या बाजार– निर्भर कर देने को अनुचित मानते हैं तो इसका एक प्रमुख कारण यही होता है कि वे इनको किसी एक दृष्टिकोण या वर्ग के आग्रहों का माध्यम नहीं बनने देना चाहते क्योंकि वे मानवीय चेतना के विकास की संभावनाओं के रूपायन पर किसी तरह का एकांगी दबाव डालकर उसे विकृत नहीं करना चाहते।

शिक्षा के महत्त्व को रेखांकित करते हुए अक्सर यह कहा जाता है कि शिक्षा समाज का निर्माण करती है, शिक्षक राष्ट्र-निर्माता होता है और शिक्षा-पद्धति में परिवर्तन के द्वारा ही समाज में परिवर्तन लाया जा सकता है। ये सभी बातें गलत नहीं हैं, लेकिन ये पूर्ण सत्य नहीं हैं– बल्कि आंशिक सत्य के रूप में भी ये प्रभावहीन हैं। जिस शिक्षा से हम समाज के पुनः निर्माण की कामना करते हैं और वैसा न कर सकने पर उसे दोषी ठहराते हैं, उसके प्रयोजन और प्रक्रिया का निर्धारण स्वयं समाज या उसकी किसी प्रतिनिधि संस्था द्वारा किया जाता है।

अतः, यह कहना ज्यादा सही होगा कि शिक्षा समाज का वैसा ही निर्माण करती है जैसा समाज शिक्षा का निर्माण करता है– दूसरे शब्दों में, समाज जैसा बीज बोता है वैसा ही फल उसे प्राप्त होता है।

यह भी गौर करने की बात है कि शिक्षा की चर्चा करते समय हमारे मन में, अधिकांशतः, स्कूली या विश्वविद्यालयी शिक्षा अर्थात् शिक्षा का एक औपचारिक स्वरूप ही रहता है। साथ ही शिक्षा की परिधि को भी हम बालक या विश्वविद्यालयी नवयुवक तक ही सीमित रखते हैं। कुछ शिक्षाशास्त्री थोड़ा आगे बढ़कर परिवार को भी शिक्षा-संस्था का एक प्रकार मान लेते हैं। यह सही है, लेकिन, यह भी उतना ही सही है कि शिक्षा-प्रक्रिया में अब इन स्कूल या परिवार जैसी संस्थाओं का केंद्रीय महत्त्व नहीं रह गया है और वे जिस सीमा तक समाज को प्रभावित करती हैं, उससे कहीं अधिक स्वयं राजनीतिक–सामाजिक वातावरण से प्रभावित हो रही होती हैं।

मुद्रण एवं प्रसार माध्यमों के विस्तार और प्रभाव ने परिवार या स्कूल को शिक्षा के क्षेत्र में वास्तविक अर्थों में निर्देशक या नियंत्रक इकाई नहीं रहने दिया है। स्कूल अधिक से अधिक कुछ मामलों में कुछ बुनियादी सूचनाएँ देने का माध्यम होते जा रहे हैं और परिवार भी धीरे-धीरे भावनात्मक और सांस्कृतिक आवश्यकता की संस्था न रहकर वहीं तक अपने अस्तित्व को बचा पाने में सफल हो रहे हैं, जहाँ तक वे एक आर्थिक आवश्यकता बने रह पाते हैं।

पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों, रेडियो, टीवी और फिल्मों के माध्यम से सभी प्रकार की प्रवृत्तियाँ बिना किसी वरण-प्रक्रिया के परिवार या स्कूल में भी सीधे प्रवेश करती हैं और पारिवारिक प्रवृत्तियों या स्कूल के वातावरण पर अधिक प्रभावी होती हैं। दूसरे शब्दों में, आधुनिक समाज में शिक्षा शिक्षक या संरक्षक से कहीं अधिक उन अमूर्त शक्तियों पर निर्भर करती है, जिनकी प्रक्रिया किन्हीं मानवीय भावनाओं से अनुप्रेरित होने के बजाय पूर्णतया यांत्रिक है।

मुद्रण और प्रसार माध्यम अधिक व्ययसाध्य होने के कारण व्यावसायिक दृष्टिकोण से निर्देशित एवं नियंत्रित होते हैं। उनका उद्देश्य शिक्षापरक नहीं होता, इसलिए उनमें मानवीय उत्तरदायित्व की भावना का अभाव होता है– यद्यपि ये माध्यम अन्य किसी भी माध्यम की अपेक्षा शैक्षिक दृष्टि से भी पूरे समाज को सर्वाधिक प्रभावित करते हैं।

यह भी गौरतलब है कि इन माध्यमों में प्रत्यक्ष मानवीय संपर्क का अभाव रहता है क्योंकि इनका संप्रेषण मूलतः यांत्रिक संप्रेषण है– अतः, इनसे प्रभावित हो रहे व्यक्ति की चिंतन-प्रणाली पर भी इस यांत्रिकता का मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। बड़ी-से-बड़ी भयंकर दुर्घटनाओं की खबर को नाश्ते की मेज पर हँसी-मजाक के बीच जिस तरह सुना या पढ़ा जाता है, वह संवेदन प्रक्रिया पर इस यांत्रिकता के प्रभाव का स्पष्ट प्रमाण है। दूसरी ओर, बिना किसी प्रत्यक्ष खतरे के प्रसार-माध्यमों द्वारा प्रचारित खबरों से निर्मित एक आतंक, सांप्रदायिकता या बढ़ते हुए अपराधों का वातावरण किसी भी व्यक्ति को एक निरंतर तनाव में जीने के लिए बाध्य कर देता है।

परिवार या स्कूल का सुरक्षित समझा जाने वाला वातावरण इन प्रवृत्तियों से सुरक्षित नहीं रह सकता। इस प्रकार सामाजिक वातावरण ही अध्यापक और संरक्षक या स्कूल और परिवार की तुलना में शिक्षा का कहीं अधिक वास्तविक माध्यम हो जाता है।

बर्ट्रेंड रसेल ने कहीं कहा है कि अधिकांश बच्चे अनजाने ही अपने माता-पिता और अध्यापकों के असली विचारों को ग्रहण कर लेते हैं, लेकिन, आमतौर पर वे उनकी उन धारणाओं को ग्रहण नहीं करते जिनका वे प्रचार तो करते हैं, पर वास्तव में जो उनकी सच्ची धारणाएँ नहीं होतीं। माता-पिता और अध्यापक का स्थान सामाजिक वातावरण लेता जा रहा है, अतः यह स्पष्ट है कि समाज द्वारा औपचारिक रूप से घोषित विचारों के बजाय समाज का वास्तविक आचरण शिक्षा की प्रक्रिया में केंद्रीय महत्त्व प्राप्त कर लेता है।

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