स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा – मधु लिमये : 33वीं किस्त

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)

बंगाल के विभाजन के बाद समूचे देश में आतंकवादी आंदोलन का जाल फैलने लगा। लाहौर में पंजाबी नाम के समाचार पत्र को जाप्ता फौजदारी की धारा 153 ए के तहत सजा दी गई तो उस समय लाहौर तथा अन्य शहरों में छात्रों ने यूरोपियन लोगों के खिलाफ प्रदर्शन शुरू कर दिए। 1907 में बंगाल में मेदिनीपुर में लेफ्टिनेंट गवर्नर फ्रेजर को यात्रा करते समय ट्रेन के नीचे बम रखकर मारने का प्रयास किया गया था।

इस आतंकवादी आंदोलन का मुकाबला करने के लिए सरकार द्वारा कई दमनकारी कानूनों का इस्तेमाल किया गया। साधारण कानूनों के अलावा विस्फोटक पदार्थ-सामग्री कानून, राजद्रोही सभाओं पर रोक लगाने का कानून, बिना मुकदमा चलाए लोगों को जेल में रखने का कानून, 1918 का रेग्यूलेशन एक्ट, आतंकवादियों के खिलाफ तेजी से मुकदमे चलाने के लिए क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट एक्ट, उसी तरह अनुशीलन समिति जैसे क्रांतिकारी संगठनों पर पाबंदी लगाना जैसे सब कानून इसी दमनकारी योजना के अंग थे।

पेरिस मे उन दिनों एक रूसी क्रांतिकारी रहता था। उसका नाम साफ्रांस्की था। यह रूसी सेना में इंजीनियरी विभाग का अधिकारी था। इसी ने बंगाली क्रांतिकारियों को विस्फोटक पदार्थ बनाने की शिक्षा दी थी। लेफ्टिनेंट गर्वनर फ्रेजर की गाड़ी को उड़ाने का जो प्रयास किया गया था, उस बम में प्रयुक्त विस्फोटक द्रव्य साफ्रांस्की की सीख के अनुसार ही तैयार किए गए थे, ऐसा अंग्रेजी खुफिया विभाग का अनुमान था।

बंगाल की तरह महाराष्ट्र में भी आतंकवादियों का प्रभाव था और उसका केंद्र नासिक था। नासिक के कलेक्टर और डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट जेक्सन का कत्ल कान्हेरे नाम के एक नौजवान ने किया था। कान्हेरे और उनके साथियों को प्रेरक साहित्य और हथियार विनायक दामोदर सावरकर द्वारा इंग्लैण्ड से भेजे जाते थे। इसमें सावरकर भाइयों को सजा हुई थी। लंदन, पेरिस, सैन फ्रांसिस्को क्रांतिकारियों के विदेशी अड्डे थे। इन शहरों से श्यामजी कृष्ण वर्मा, मादाम कामा आदि नेता क्रांतिकारियों के संगठनों का सूत्र संचालन करते थे।

इसी जेक्सन-कान्हेरे केस के सिलसिले में विनायक दामोदर सावरकर को इंग्लैण्ड में गिरफ्तार किया गया था। जब उनका बोट फ्रांस में किनारे पर मारसाय के पास रुका हुआ था तो उस बोट से कूदकर सावरकर फ्रांस के किनारे लग गए। लेकिन वहां के पहरेदारों ने उनको अंग्रेजों के हाथों सौप दिया। इसको लेकर फ्रांस में एक आंदोलन चलाया गया था और सावरकर को वापस फ्रांस के कब्जे में लेने की कानूनी कार्यवाही भी की गई थी। लेकिन अदालत ने फैसला क्रांतिकारियों के पक्ष में नहीं किया।

1914 में जब प्रथम महायुद्ध शुरू हुआ तो उसका फायदा उठाकर जर्मनी से हथियार लाकर भारत में बगावत करने की कई योजनाएं बनाई गईं। वीरेंद्र चट्टोपाध्याय यूरोप स्थित क्रांतिकारियों की एक टोली के सदस्य थे और उन्होंने अपना संबंध जर्मन जनरल स्टाफ के साथ स्थापित कर लिया था। लेकिन भारत में बगावत करने के सारे प्रयासों को अंग्रेजों ने विफल कर दिया।

इसी दौरान कामागाटामारू नामक जहाज पर हथियार लादकर भारत भेजने का भी प्रयास किया गया। लड़ाई के दौरान क्रांतिकारी संगठन अत्यधिक सक्रिय हो गए। लेकिन साथ ही साथ अंग्रेजी हुकूमत का खुफिया विभाग भी उतना ही सचेत और सक्षम हो गया। खुफिया विभाग के कुछ अधिकारी क्रांतिकारियों के संगठनों और उनके क्रांतिकारियों का निर्ममतापूर्वक नाश करने में लगे हुए थे। स्वाभाविक है कि ऐसे पुलिस अधिकारियों को मारने का आतंकवादी भरसक प्रयास करते थे।

1917 में तिलक और एनी बेसेंट के स्वराज्य संघों की तहरीक तेज हुई। मुसलमानों में भी व्यापक असंतोष था। कानून के चौखटे में व्यापक पैमाने पर हिंदू-मुसलमानों का स्वराज्य का आंदोलन प्रारंभ हुआ। उससे बहुत सारे नौजवानों को, जो अन्यथा नए गुप्त क्रांतिकारी संगठनों के जाल में आ जाते, अभिव्यक्ति का एक संवैधानिक साधन मिल गया। आतंकवादी आंदोलन की उग्रता उससे कुछ हद तक कम हुई। आतंकवादी आंदोलन पर सबसे जबरदस्त असर गांधीजी के उदय का और उनके द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन का पड़ा। अंग्रेज खुफिया विभाग द्वारा 1917 से 1937 तक के क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास लिखा गया है। इस समीक्षा को तैयार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका एस.डब्ल्यू. हेल ने अदा की है, जो कि खुफिया विभाग के सहायक निर्देशक थे। उन्होंने अपनी इस किताब में कहा है कि 1919-20 में क्रांतिकारियों के कार्यकलाप नहीं के बराबर थे। उसका श्रेय वे अंग्रेजों के दमनकारी कानूनों और खुफिया विभाग की कार्रवाई को देते हैं। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि 1919-20-21 में पहली बार लाखों-लाख लोगों में राजनीतिक चेतना आई और खुले अहिंसात्मक जन आंदोलन की मार्फत नौजवानों को देशभक्ति, आदर्शवादिता, त्याग और सेवा की ओर प्रवृत्त करनेवाला पुरुषार्थ का एक नया रास्ता उपलब्ध हो गया। इसके चलते नौजवानों के मन में यह बैठ गया कि सामुदायिक आंदोलन अधिक कारगर सिद्ध होगा, न कि व्यक्तिगत हिंसा पर आधारित क्रांतिकारी आंदोलन और उसके द्वारा किए गए अन्य आतंकवादी कृत्य।

इस प्रकार सामुदायिक अहिंसक प्रतिकार का उजागर होना और आतंकवाद का प्रसार कम होना, दोनों में अन्योन्य संबंध था। 1930-34 के दौरान इस अन्योन्य संबंध की पुनः पुष्टि हुई। जब सामुदायिक आंदोलन और पुरुषार्थ का रास्ता खुल जाता था तो नौजवानों का मन आतंकवाद से हट जाता था और जब सामुदायिक आंदोलन समाप्त हो जाता था, राजनैतिक क्षितिज पर विफलता के काले बादल मँडराने लगते थे, जनता नैराश्य में डूब जाती थी और सांप्रदायिक दंगों की आग भड़कने लगती थी तो स्वाभाविक रूप से नौजवान हिंसा, बम और पिस्तौल का रास्ता अपनाने लगते थे।

20वीं शताब्दी के तीसरे दशक के मध्य में (1924-26) भारत की स्थिति कुछ इसी तरह की हो गई थी। इसका नतीजा यह हुआ कि उस समय के आदर्शवादी युवक फिर एक बार बहुत अधिक संख्या में गुप्त क्रांतिकारी संगठनों की ओर आकर्षित हो गए। काकोरी डकैती कांड, लाहौर कांस्पिरेसी केस, चटगांव आर्मरी रेड आदि जो कांड 1924-30 के दौरान हुए, उनका यही मुख्य कारण था।

काकोरी षडयंत्र में मुख्य आरोप डकैती सबंधी था। क्रांतिकारी लोग अपने संगठन और कार्य के फैलाव के लिए धन की आवश्यकता महसूस करते थे और इसके लिए सरकारी खजानों तथा धनी व्यक्तियों पर डाके डालकर धन इकट्ठा करने का प्रयास किया करते थे। काकोरी कांड में रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकुल्ला खाँ, राजेन्द्रनाथ लाहिरी तथा रोशनसिंह को फाँसी की सजा हुई और जोगेशचंद्र चटर्जी तथा अन्य चार साथियों को कालापानी की। सजायाफ्ता अभियुक्तों में से केवल दो बंगाली थे।

उसके बाद 1929 में जो लाहौर कांस्पिरेसी केस हुआ वह उस जमाने का सबसे विख्यात केस था। काकोरी कांड के लोगों और इस केस के अभियुक्तों का आपसी संबंध था। लाहौर कांस्पिरेसी केस में भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु को फांसी दी गई। लाहौर कांस्पिरेसी केस में अन्य सात व्यक्तियों को कालापानी की सजा दी गई। उसी वर्ष लाहौर षड्यंत्र का दूसरा केस भी हुआ जिसमें कालापानी या सात साल या उससे कम की सजाएं हुईं। किसी को फांसी पर नहीं चढ़ाया गया था। बिहार में देवघर में भी एक केस क्रांतिकारियों के खिलाफ चलाया गया था जिसमें इलाहाबाद से लेकर सिलहट और ढाका तक रहनेवाले क्रांतिकारी अभियुक्त थे। लगभग सभी बंगाली थे।

1930 का एक अत्यधिक रोमांचकारी केस चटगांव आर्मरी रेड का था। चटगांव के शस्त्रागार पर अत्यंत संगठित ढंग से तथा गुप्त और सावधानी बरत कर हमला किया गया और हथियारों को लूट लिया गया। चटगांव और आसपास की पहाड़ियों में कई दिन तक क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों का मुकाबला किया। उस समय चटगांव बंदरगाह में जो एक अंग्रेजों का जंगी जहाज था उसकी मदद उस विद्रोह का सामना करने के लिए ली गई थी।

खुफिया विभाग के सहायक निदेशक ने अपनी रपट में चटगांव शस्त्रागार पर हुए हमले को अद्भुत विद्रोह की संज्ञा दी है। इसमें युगान्तर पार्टी के लोगों का प्रमुख रोल रहा। इसके प्रमुख नेता सूर्यसेन को फांसी की सजा हुई थी। अन्य अभियुक्तों में गणेश घोष से लेकर कल्पना दत्त तथा दिनेश दासगुप्ता तक कई थे। इनमें से गणेश घोष और कल्पना दत्त ने बाद में कम्युनिस्ट पार्टी से अपना संबंध स्थापित कर लिया तथा दिनेश दासगुप्ता समाजवादी आंदोलन से जुड़ गए। चटगांव आर्मरी कांड केवल एक आकस्मिक और इकलौती घटना नहीं थी। यह कई घटनाओं की एक मालिका थी। सरकारी रपट के अनुसार चटगांव शस्त्रागार पर हमले की खबर से पूरे सूबे में क्रांतिकारी रोमांचित हो उठे थे। पहले तो लोगों को विश्वास ही नहीं हुआ कि इस तरह का काम बंगाल के आतंकवादी कर सकते हैं। लेकिन जब मालूम हुआ कि इसके पीछे बंगाली क्रांतिकारी ही थे तो इससे सारे वातावरण में एक बिजली-सी कौंध गई। मैकाले आदि की बातों को दुर्लब शरीर के बंगालियों द्वारा झुठला दिया गया।

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