स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा – मधु लिमये : 34वीं किस्त

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)

र्ष 1927 के बाद पं. जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस तथा कम्युनिस्ट पार्टी के तत्वावधान में समाजवादी विचारों का व्यापक प्रसार देश मे होने लगा। नए युग के क्रांतिकारी इन विचारों से अछूते नहीं थे। अगस्त 1928 में पंजाब, उत्तर प्रदेश और बिहार आदि प्रांतीय संगठनों को मिलाकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी की स्थापना की गयी। फिरोजशाह कोटला (दिल्ली) में 8-9 सितंबर को इसकी सभाएं हुईं और उसमें सात सदस्यों की एक केंद्रीय समिति कायम की गयी। इन सात सदस्यों के नाम थे– सुखदेव, शिव वर्मा, पी.एन.घोष, चन्द्रशेखर आजाद, कुंदनलाल विद्यार्थी, भगतसिंह और बी.के. सिन्हा। इस संस्था के नाम में सोशलिस्ट शब्द का जुड़ना नए युग का संकेत करता था। इस संस्था के घोषणापत्र में इन्होंने अपने आदर्शों और उद्देश्यों का इस तरह वर्णन किया था :

हम क्रांतिकारियों की मान्यता है कि देश को गुलामी से मुक्ति क्रांति के जरिये ही मिल सकती है। इस क्रांति का स्वरूप विदेशी हुकूमत और उनके सहायक एक तरफ और दूसरी तरफ जनता के बीच हथियारी संघर्ष तक सीमित नहीं रहेगा। यह क्रांति एक नयी सामाजिक व्यवस्था को जन्म देगी। इस क्रांति की बदौलत पूँजीवाद की मृत्यु की घण्टी बजेगी और सब वर्गभेद तथा वर्गीय विशेषाधिकार समाप्त हो जाएंगे। इस क्रांति के फलस्वरूप भूखों मरनेवाले करोड़ों लोगों के जीवन में आनंद और समृद्धि आ जाएगी और विदेशी तथा देसी शोषणकारियों से उनको राहत मिलेगी। राष्ट्र का पुनर्जन्म होगा। नयी राज्य-व्यवस्था का निर्माण होगा। मजदूर वर्ग की एकाधिकारशाही स्थापित होगी और समाज को चूसनेवालों को सत्ता स्थानों से पदच्युत किया जाएगा।

इस घोषणापत्र में न केवल पूँजीवाद को समाप्त करने की चर्चा है, बल्कि श्रमिकों, अपने साधनों और कार्यप्रणाली की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा था कि-मुल्क की वर्तमान दशा से क्रोधित नौजवान विदेशी जालिमों को मारने लगेंगे। आतंकवाद का मूल इसी गुस्से में है। आतंकवाद क्रांति के विकास का एक चरण है। उसे हम एक आवश्यक और अनिवार्य चरण समझते हैं। आतंकवाद अपने आप में परिपूर्ण नहीं है, बल्कि क्रांति का वह एक अंग है, उसके बिना क्रांति पूरी नहीं होगी। आगे चलकर आतंकवाद क्रांति में परिणत होगा और देश सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त करेगा।

उन्होंने यह भी कहा कि अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए हम खुलकर भी काम करेंगे और जहाँ जरूरी समझेंगे, गुप्त संगठन भी बनाएंगे। इस घोषणापत्र में अहिंसात्मक तौर-तरीकों की आलोचना और हिंसात्मक क्रांति का पुरजोर शब्दों में समर्थन है।

आतंकवादी आंदोलन का यह एक माने में आखिरी चरण था। महात्मा गांधी के नेतृत्व में 1930-34 के बीच जो व्यापक सिविल नाफरमानी का आंदोलन हुआ, उसमें हजारों नौजवानों को त्याग और बलिदान का, अपने गुस्से को अभिव्यक्त करने का, अपने उद्देश्यों को पूरा करने का सुनहरा मौका मिला और धीरे-धीरे क्रांतिकारियों के मन आतंकवाद के रास्ते से हटने लगे थे।

जैसा कि सरकारी रपट में खुलकर स्वीकार किया गया है, जेलों में क्रांतिकारियों ने समाजवाद, मार्क्सवाद और कम्युनिज्म का अध्ययन-मनन और पठन का सिलसिला जारी रखा। नए संवैधानिक कानून के अनुसार 1937 में विधानसभाओं के चुनाव हुए। ग्यारह में से छह राज्यों में कांग्रेस को बहुमत मिला। नयी सरकारें स्थापित हो गयीं और बड़े पैमाने पर क्रांतिकारी रिहा किये जाने लगे। जो क्रांतिकारी जेल से निकले थे या जिन्होंने गांधीजी के सामने समर्पण किया (पृथ्वीसिंह आदि) उनमें से कुछ लोगों ने गांधीजी के आदेशों के अनुसार अहिंसात्मक ढंग से रचनात्मक कार्य में अपने आप को झोंक दिया। शेष क्रांतिकारी या तो कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ गए या समाजवादी आंदोलन की विभिन्न धाराओं में सम्मिलित हो गये। समाजवादी दर्शन ने आतंकवादियों के सर्जन का स्रोत ही बंद कर दिया।

हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के घोषणापत्र में आतंकवाद को एक चरण की संज्ञा दी गयी थी, यह हमने अभी पढ़ा। शायद यह क्रांतिकारी मानने लगे थे कि यह चरण यह अध्याय अब पूरा हो गया है और जनता में इतनी जागृति, चेतना और शक्ति पैदा हो गयी है कि अब गुप्तता, बम और पिस्तौल की आवश्यकता नहीं रही है। लेकिन सत्य तो यह है कि गांधीजी के आंदोलन ने अंग्रेजी हुकूमत की जड़ों को इतना कमजोर कर दिया था कि अंग्रेजी प्रशासक भी समझने लगे थे कि अब अंग्रेजी साम्राज्य भारत में ज्यादा दिन नहीं टिक पाएगा।

इस बीच द्वितीय महायुद्ध शुरू हो गया। उसके कारण अंग्रेजों ने भारतीय प्रशासन पर एक ओर– युद्धकाल तक ही सही– अपना कब्जा जहाँ मजबूत किया वहीं दूसरी ओर इस महायुद्ध के परिणामस्वरूप अंग्रेजी हुकूमत अंदर से कमजोर होने लगी थी। जर्मनी-जापान के हाथों हुई अपनी पराजयों ने अंग्रेजों की धाक समाप्त कर दी थी। 1942 में क्रिप्स योजना फेल होने के बाद गांधीजी ने भारत छोड़ो का नारा दे दिया था। महात्मा गांधी तथा अन्य राष्ट्रीय नेताओं की गिरफ्तारी के बाद मुल्क के कई हिस्सों में जबरदस्त आंदोलन शुरू हो गए। इसको जन-विद्रोह की संज्ञा दी जा सकती है। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इसमें आतंकवादियों के तौर-तरीकों का भी, जैसे गुप्त संगठन, बम विस्फोट, रेल उलटना आदि का इस्तेमाल किया गया। लेकिन पुराने आतंकवाद और नए विद्रोह में एक बुनियादी फर्क था। जहाँ आतंकवादी गुप्तता और इने-गिने लोगों की बहादुरी पर ही विशेष रूप से निर्भर करते थे, वहाँ 1942 में खुले विद्रोह के कारण गुप्तता और कत्ल पर अधिक जोर न देकर जन-विद्रोह के जरिए ही अंग्रेजी हुकूमत को पंगु बनाने का प्रयास मुख्य रूप से किया गया। उत्तरप्रदेश में बलिया आदि और बिहार के इलाके, बंगाल में मेदिनीपुर और महाराष्ट्र में सातारा तथा आसपास के क्षेत्रों में अंग्रेजी हुकूमत लगभग नष्ट-सी हो गयी थी। यह तत्कालीन सरकारी रपट से स्पष्ट हो जाता है। इस तरह आतंकवादी आंदोलन, उसकी उपयोगिता समाप्त होने के बाद व्यापक राष्ट्रीय जन-विद्रोह में विलीन हो गया।

भारतीय क्रांतिकारियों का इतिहास एक रोमांचकारी इतिहास है। आश्चर्यजनक त्याग और बहादुरी की कई मिसालें इसमें मिलती हैं। लेकिन जैसा कि गुप्त संगठनों में अक्सर होता है, एक-दूसरे के प्रति अविश्वास, होड़ और स्पर्धा आदि के उदाहरण भी मिलते हैं। जहाँ इसमें नौजवानों की वीरता की अद्भुत कहानियों की मालिका हम देखते हैं, वहाँ सरकारी दमन की तीव्रता सहन न कर पाने के कारण जिनके दुर्बल मन टूट गए और जिन्होंने जाने-अनजाने आंदोलन के साथ गद्दारी की, ऐसी उद्धिग्रता पैदा करनेवाली कुछ घटनाएं भी इस आंदोलन में पायी जाती हैं। इनमें से कुछ लोगों को क्रांतिकारियों द्वारा मृत्युदंड की सजा भी फरमायी गयी थी और अधिकतर मामलों में इनका कार्यान्वयन भी हुआ था। यह सब देखकर कौन कह सकता है कि क्रांतिकारी गीत गाते हुए, वन्देमातरम् और इन्कलाब जिंदाबाद की उद्घोषणा करते हुए बलि की वेदी पर निर्भयतापूर्वक चढ़ जानेवाले इन नौजवानों का जीवन किसी संदेश का वाहक नहीं था?

जहाँ तक मेरा अपना खयाल है, मुझे इस बात में जरा भी शक नहीं था। हिंदुस्तान में राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में गांधीजी की असहयोग और सिविल नाफरमानी की धारा ही मुख्य धारा रही। लेकिन यह कहना कि देशभक्ति की भावना भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और गांधीजी के अनुयायियों की ही बपौती थी, अनुचित होगा। क्रांतिकारियों में न तीव्र देशभक्ति की भावना की कमी थी, न उज्ज्वल त्याग की। हाँ, हो सकता है कि उनके कुछ तौर-तरीके रोमांचकारी और वास्तविकता से हटकर थे परंतु सभी देशों में नवयुवकों में ऐसे तौर-तरीकों के प्रति आकर्षण रहा ही है। अतः उनके उदात्त उद्देश्यों के प्रति संदेह प्रकट नहीं किया जा सकता।

गांधीजी ने कई बार गुप्त संगठनों और हिंसात्मक कार्रवाइयों की कठोर शब्दों में निंदा की थी। वह इसलिए कि नौजवानों का मन वे बहादुरों की अहिंसाकी तरफ मोड़ना चाहते थे। वे सोचते थे कि इसी के जरिये जन-शक्ति को जागृत और प्रज्वलित किया जा सकेगा और भारतमाता की श्रृंखलाओं को तोड़ा जा सकेगा। लेकिन उन्होंने कई दफा कहा था कि भीरुता से हिंसा अच्छी है। इसी मापदंड से क्रांतिकारियों के कार्यों को तोला भी जाना चाहिए।

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