— श्रीगिरीश जालिहाल, पूनम अग्रवाल और सोमेश मिश्र —
(इलेक्टोरल बांड के बारे में यह खोजी रिपोर्ट ‘द रिपोर्टर्स कलेक्टिव’ नामक समूह से जुड़े उपर्युक्त तीन पत्रकारों ने तैयार की है। ‘द रिपोर्टर्स कलेक्टिव’सत्ता में बैठे लोगों की जवाबदेही दर्शाने और शासन पर नजर रखने का काम करता है, जो गुण आजकल की पत्रकारिता में दुर्लभ हो गया है।)
इलेक्टोरल बांड के जरिए, चोरी-छिपे, कंपनियों और व्यक्तियों के द्वारा दिया गया राजनीतिक चंदा हासिल करनेवाली पार्टियों की संख्या पूरे भारत में 19 से अधिक नहीं है। तीन साल को हिसाब में लें, तो अकेले भारतीय जनता पार्टी को, इलेक्टोरल बांडों की 68 फीसद रकम हासिल हुई। इसका खुलासा ‘द रिपोर्टर्स कलेक्टिव’ ने संबंधित व्यक्तियों से बातचीत और पार्टियों के सालाना आडिट रिपोर्टों के विश्लेषण के आधार पर किया है।
तथ्य इस आम धारणा को झुठलाते हैं कि 105 राजनीतिक दलों ने इलेक्टोरल बांड्स भुनाया। तथ्य भाजपा के इस दावे की भी तसदीक नहीं करते कि ‘इलेक्टोरल बांड स्वेच्छा से राजनीतिक चंदा देने का एक कारगर तरीका है।’
वर्ष 2017 और 2018 में सुप्रीम कोर्ट में, इलेक्टोरल बांड की वैधानिकता को चुनौती देने के लिए, याचिकाएँ दायर की गयीं। इलेक्टोरल बांड के जरिए यह प्रावधान किया गया है कि कंपनियां और व्यक्ति, अपना नाम गुप्त रखते हुए, अज्ञात राशि का चंदा दे सकते हैं। यह अज्ञात राशि चाहे जितनी हो सकती है, इस पर कोई अधिकतम सीमा नहीं लगायी गयी है। याचिकाएं दायर होने के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने 12 अप्रैल 2019 को निर्वाचन आयोग से कहा कि वह यह पता लगाए कि किन पार्टियों ने कितनी रकम इलेक्टोरल बांड के जरिए हासिल की है और फिर इस जानकारी से कोर्ट को भी अवगत कराए।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी आदेश दिया कि आयोग माँगी गयी जानकारी बंद लिफाफे में मुहैया कराए। बंद लिफाफे का यह चलन पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने शुरू किया था, ताकि माँगी गयी जानकारी की छानबीन सिर्फ जज कर सकें, कोई और नहीं।
निर्वाचन आयोग ने पार्टियों को पत्र लिखकर कहा कि वे अदालत के प्रश्न का जवाब दें। निर्वाचन आयोग के यहाँ 2,800 राजनीतिक दल पंजीकृत हैं, इनमें से सिर्फ 105 ने जवाब दिया है, हालांकि कुछ ने यह सवाल भी उठाया कि आयोग ने सभी से रिपोर्ट तलब क्यों की, चाहे उन्हें कोई इलेक्टोरल बांड मिला हो या नहीं।
फरवरी 2020 में निर्वाचन आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को ‘बंद लिफाफे’ (सील्ड कवर) में अपना जवाब सौंपा। आयोग द्वारा दी गयी सूची में सात राष्ट्रीय पार्टियों, 20 प्रांतीय पार्टियों, तीन राष्ट्रीय पार्टियों की राज्य इकाइयों, 70 पंजीकृत-गैरमान्यताप्राप्त दलों- जिन्हें चुनाव लड़ने के लिए एक निश्चित चुनाव चिह्न आवंटित नहीं किया जाता, और तीन किन्हीं अन्य दलों के नाम शामिल थे।
इस मामले में पिछली सुनवाई दो साल पहले हुई थी। याचिकाकर्ताओं की तरफ से बार-बार स्मरण दिलाए जाने के बावजूद, इस मामले में दो साल से कोई सुनवाई नहीं हुई है। अदालत ने अभी तक बंद लिफाफे भी नहीं खोले हैं।
बांड के जरिए सिर्फ 17 पार्टियों को चंदा मिला
‘द रिपोर्टर्स कलेक्टिव’ ने 70 पंजीकृत-गैरमान्यताप्राप्त दलों (जिन्होंने आयोग के निर्देश का जवाब दिया) में से 54 दलों के प्रमुखों से बातचीत और पार्टियों की तरफ से आयोग को भेजे गये पत्रों की समीक्षा करके तथा पार्टियों द्वारा जमा की जानेवाली सालाना ऑडिट रिपोर्टों के आँकड़ों को खँगालकर यह अंदाजा लगाया है कि आयोग ने बंद लिफाफों में जो जानकारी कोर्ट को दी उसमें क्या रहा होगा।
कुल मिलाकर, यह पता चलता है कि आयोग ने बंद लिफाफे में जिन 105 दलों के नाम दिये थे उनमें से सिर्फ 17 दलों को ही इलेक्टोरल बांड के जरिए चंदा मिला।
करीब 68 फीसद चंदा अकेले बीजेपी को
इलेक्टोरल बांड के जरिए चंदा हासिल करनेवाली 17 पार्टियों में सबसे बड़ा हिस्सा बीजेपी को मिला- 67.9 फीसद। वित्तवर्ष 2017-18 से 2019-20 के बीच कुल जितने इलेक्टोरल बांड खरीदे गये उसके हिसाब से उपर्युक्त अवधि में बीजेपी को मिली रकम 4,215.89 करोड़ रु. बैठती है।
दूसरे स्थान पर कांग्रेस रही, बीजेपी के मुकाबले काफी पीछे। कांग्रेस को उपर्युक्त अवधि में 706.12 करोड़ रु. हासिल हुए, भुनाए गए सारे बांडों का केवल 11.3 फीसद।
तीसरे स्थान पर बीजू जनता दल है, हालांकि बहुत पीछे। भुनाए गए कुल बांडों की 4.2 फीसद राशि उसके हिस्से आयी। शेष 16.6 फीसद राशि बाकी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों के हिस्से आयी, जो कि 1,016 करोड़ रु. थी।
इलेक्टोरल बांड के जरिए राजनीतिक चंदे का 83.4 फीसद सिर्फ तीन दलों- बीजेपी, कांग्रेस, बीजू जनता दल- के हिस्से आया।
कम-से-कम दो अन्य दलों- द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम और झारखंड मुक्ति मोर्चा- ने भी इलेक्टोरल बांडों के माध्यम से धन हासिल किया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के निर्देश का जवाब देनेवालों की जो सूची आयोग ने कोर्ट को सौंपी है उसमें इन दोनों दलों का नाम नहीं है।
सरकारी स्वामित्व वाला स्टेट बैंक आफ इंडिया (एसबीआई) एकमात्र बैंक है जिसे इलेक्टोरल बांड जारी करने और भुनाने का अधिकार है। लेकिन एसबीआई ने आरटीआई (सूचनाधिकार) आवेदनों के जवाब में उन 23 दलों के नाम बताने से मना कर दिया जिन्हें इलेक्टोरल बांड हासिल करने और भुनाने का अधिकार था।
इलेक्टोरल बांड का मसला सुप्रीम कोर्ट में क्यों है
इलेक्टोरल बांड योजना के तहत, जिसकी घोषणा 2017 में तब के वित्तमंत्री अरुण जेटली ने की थी, कंपनियों, व्यक्तियों, ट्रस्टों और स्वयंसेवी संगठनों को यह अधिकार है वे, अपना नाम गुप्त रखते हुए, मनमर्जी चाहे जितना इलेक्टोरल बांड खरीद सकते हैं और उसे किसी राजनीतिक दल के खाते में (जिसका स्टेट बैंक में खाता हो) जमा कर सकते हैं। इलेक्टोरल बांड 1 हजार, 10 हजार, 1 लाख, 10 लाख और 1 करोड़ की राशियों के खरीदे जा सकते हैं।
आलोचकों का कहना है कि धनी और शक्तिशाली व्यक्तियों की तरफ से राजनीतिकों को मिलनेवाले चंदे को छिपाने और पार्टियों के कोष बढ़ाने में इलेक्टोरल बांड मदद करता है। यह बात अभी बीजेपी पर खासतौर से लागू होती है। यह धन बेशुमार विज्ञापनबाजी समेत प्रचार-खर्च और अन्य चुनावी खर्चों में लगता है और इस तरह खर्च के मामले में और अपनी चुनावी मशीनरी के परिचालन में उस पार्टी के मुकाबले प्रतिस्पर्धी पार्टियां कहीं नहीं ठहरतीं।
4 सितंबर 2017 को एक गैर-लाभकारी स्वयंसेवी संगठन एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (एडीआर) ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल करके यह माँग उठाई कि वित्त अधिऩियम (फाइनेंस एक्ट), 2017 के तहत मुख्य नियमों में किये गये उन संशोधनों को रद्द कर दिया जाए, जिनके चलते इलेक्टोरल बांड का रास्ता साफ हुआ है। अप्रैल 2019 में कोर्ट ने पार्टियों को निर्देश दिया कि वे इलेक्टोरल बांड्स के जरिए प्राप्त किये गये धन का ब्योरा दें।
निर्वाचन आयोग भी चाहता था कि इलेक्टोरल बांड की योजना वापस ले ली जाए। आयोग ने याचिका के जवाब में दाखिल किये गए अपने हलफनामे के जरिए बांड को लेकर अपने एतराज दर्ज कराये।
निर्वाचन आयोग ने अपने हलफनामे में कहा था कि “जहाँ तक राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता का सवाल है, यह (इलेक्टोरल बांड) पीछे ले जानेवाला कदम है।” इसने कानून में किए गए चार संशोधनों को स्थगित रखने का सुझाव दिया। आयोग ने चेताया कि इन कानूनी संशोधनों के चलते फर्जी (शेल) कंपनियों के सहारे राजनीति में काला धन आएगा और भारत में राजनीतिक पार्टियों को बेहिसाब विदेशी धन मिलने का रास्ता साफ हो जाएगा, जिसका नतीजा यह होगा कि भारत की राजनीति को विदेशी कंपनियाँ प्रभावित करने लगेंगी।
निर्वाचन आयोग की चिंता के विपरीत भाजपा ने यह कहा कि इलेक्टोरल बांड “साफ-सुथरा धन लाकर राजनीति को स्वच्छ करने का एक अभिनव तथा नवाचारी कदम है।”
जब मई 2017 में प्रस्तावित योजना (इलेक्टोरल बांड) की बाबत वित्तमंत्री ने विभिन्न पार्टियों से अपनी राय बताने को कहा था, तो बीजेपी की प्रतिक्रिया काफी उत्साहपूर्ण थी, जबकि दूसरी पार्टियों ने अपनी शंकाएँ बताई थीं।
‘द रिपोर्टर्स कलेक्टिव’ ने 2019 में एक खोजी रिपोर्ट प्रकाशित की। यह रिपोर्ट यह दिखाती थी कि कैसे सरकार ने इलेक्टोरल बांड को लेकर रिजर्व बैंक की आपत्तियों को नजरअंदाज कर दिया, निर्वाचन आयोग की टिप्पणियों की बाबत संसद में झूठ बोला, कर्नाटक के विधानसभा चुनाव से पहले इलेक्टोरल बांड को भुनाने के लिए एक अवैधानिक ‘विशेष’ काउंटर (विंडो) खोलने की इजाजत देकर कानून तोड़ा और एसबीआई को बीती हुई तारीखों के (एक्सपायर्ड) बांड मंजूर करने के लिए विवश किया।
यह बात भी छिपी नहीं रह सकी है कि एसबीआई ने इलेक्टोरल बांड की बाबत आरटीआई आवेदनों के जरिए पूछे गए सवालों का जवाब देने के लिए वित्त मंत्रालय से इजाजत माँगी थी, बावजूद इसके कि इसकी कोई जरूरत नहीं थी, क्योंकि आरटीआई एक्ट, 2005 के तहत एसबीआई एक स्वतंत्र सक्षम प्राधिकार है।
एसबीआई ने आरटीआई आवेदनों के जवाब में झूठ बोला। उसने कहा कि उसके पास इस बात का कोई आँकड़ा नहीं है कि 2018 और 2019 में किसको कितने इलेक्टोरल बांड बेचे गए। एसबीआई के इस बयान को उसके ही तमाम आधिकारिक प्रमाण झुठला रहे थे। एसबीआई के पास वे सारे विवरण थे और वित्त मंत्रालय को नियमित रूप से भेजे भी गये थे।
हाल में एसबीआई ने सेवानिवृत्त कमोडोर लोकेश बतरा के आरटीआई आवेदन के जवाब में कहा कि निर्वाचन आयोग ने जिन 105 पार्टियों की सूची सुप्रीम कोर्ट को दी थी उनमें से सिर्फ 23 पार्टियाँ इलेक्टोरल बांड प्राप्त करने की हकदार हैं।
हालांकि एसबीआई ने उन 23 पार्टियों के नाम बताने से मना कर दिया, सूचनाधिकार अधिनियम की कुछ धाराओं का हवाला देते हुए, जिनके तहत यह छूट दी गयी है कि अगर संबंधित जानकारी को देने से विश्वासदायी संबंध और निजता का उल्लंघन होता हो, तो उसे देने से मना किया जा सकता है। लेकिन इस छूट का इस्तेमाल तभी किया जा सकता है जब उस सार्वजनिक प्राधिकार (पब्लिक अथॉरिटी) को यह लगे कि वह जानकारी देने से कोई सार्वजनिक हित नहीं सिद्ध होगा।
‘हमारे बैंक खाते में सिर्फ सात सौ रु. है’
निर्वाचन आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को जो सूची दी है उसमें जिन 70 पंजीकृत-गैरमान्यताप्राप्त दलों के नाम हैं उनमें उत्तर प्रदेश की लेबर समाज पार्टी भी है। एडीआर के एक विश्लेषण के मुताबिक उपर्युक्त 70 में लेबर समाज पार्टी और अन्य 68 पार्टियाँ इलेक्टोरल बांड के जरिए चंदा प्राप्त करने के योग्य नहीं हैं।
इस तथ्य ने बहुतों को चौंकाया है क्योंकि यह मानकर चला जा रहा था कि आयोग ने अपनी सूची में जिन 105 पार्टियों के नाम दिए हैं उन सभी ने इलेक्टोरल बांड के जरिए धन प्राप्त किया है। ऐसी खबरें जब तब आती रहीं कि मुख्यतः ग्रामीण इलाकों में आधार रखनेवाली, मामूली दफ्तर के साथ चलनेवाली कई पार्टियाँ, जिनकी गतिविधियों के बारे में शायद ही कभी मीडिया में कुछ आता हो, किस तरह गैर-पारदर्शी बांडों के जरिए धन जुटा रही थीं। इनमें से कभी न सुने गए नामों की तरफ मीडिया का ध्यान गया- जैसे कि- ‘आप और हम पार्टी’ या ‘सबसे बड़ी पार्टी’।
द रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने इन पंजीकृत गैर-मान्यताप्राप्त दलों में से 54 दलों के प्रमुखों से बात की। बाकी दलों से संपर्क नहीं हो सका।
लेबर समाज पार्टी के संस्थापक एडवोकेट बाबूराम ने कहा कि ‘मुझे पता ही नहीं है कि इलेक्टोरल बांड क्या होता है। हमें कोई चंदा नहीं मिला है। मैं आपको अपना (लेबर समाज पार्टी का) पासबुक दिखा सकता हूँ, उसके खाते में करीब 700 रु. ही हैं।’
उपर्युक्त जिन भी दलों के प्रमुखों से बात हुई, सबने यही कहा कि हमें इलेक्टोरल बांड के जरिए एक पैसा नहीं मिला है। यह भी बताया कि निर्वाचन आयोग को भेजे गए जवाब में उन्होंने क्या कहा है।
गुजरात की ‘राइट टु रिकॉल पार्टी’ के संस्थापक एवं अध्यक्ष राहुल मेहता ने ‘द रिपोर्टर्स कलेक्टिव’ को बताया कि जब उन्हें निर्वाचन आयोग का पत्र मिला तब तक उनकी पार्टी का बैंक में कोई एकाउंट भी नहीं था।
हमें कहा गया कि ‘जीरो-रिपोर्ट’ जमा कर दें। मैंने राज्य निर्वाचन आयोग से इसकी पुष्टि की थी। उन्होंने कहा कि निर्वाचन आयोग के पत्र का जवाब देना अनिवार्य है।
राहुल मेहता की ‘राइट टु रिकॉल पार्टी’ ने 30 मई 2019 को निर्वाचन आयोग को जबाव दिया और उसके बाद आयोग द्वारा सुप्रीम कोर्ट को सौंपी गयी सूची में वह पार्टी भी शामिल हो गयी।
यही किस्सा चार और पार्टियों का रहा, जिनसे हमारा संपर्क हुआ- दिल्ली में प्रजा कांग्रेस पार्टी, गाजियाबाद में हिंदुस्तान एक्शन पार्टी, लेबर समाज पार्टी और राष्ट्रीय पीस पार्टी। इनका भी एसबीआई में खाता तक नहीं था।
पचास पंजीकृत गैर-मान्यताप्राप्त पार्टियों के जवाब एक-जैसे थे, जिनसे हमने फोन पर बात की। “हमारे जैसे दलों को कौन चंदा देगा?” पटना की भारतीय बैकवर्ड पार्टी के विनोद कुमार सिन्हा का सवाल था।
(aricle14.com से साभार)
अनुवाद : राजेन्द्र राजन