1984 की गवाही एक शहर के मुख से

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— हर्षितेश्वर मणि तिवारी —

जैसा कि नाम से ही समझ आ रहा है, चौरासी, कुछ तो झोल है इस संख्यात्मक शीर्षक में!

इस किताब में एक शहर (बोकारो) को मुख्य किरदार के रूप में परोसा गया है जो अपनी ही जुबाँ से सन 1984 की आँखों देखी कहानी बतला रहा है। जाहिर सी बात है इस तरह की सामग्री उस किताब के लेखन को स्वतः ही थोड़ा आकर्षक बना देती है। किताब के लेखक सत्य व्यास ने बड़ी ही खूबसूरती से हर उस दृश्य को दर्शाया है जो पाठकों को, उस किताब के एक-एक अक्षर से, साक्षात प्रतीत करवाने को मजबूर कर दे। मानो उस किताब की कहानी उनकी नजरों के सामने ही चल रही हो।

सत्य व्यास

कहानी में लेखक द्वारा पाठकों के मनोविचारों को उन्हीं के सामने रख देने की क्रिया बड़ी ही चतुराई से की गयी है; जैसे सामान्य रूप में पाठक को कहानी का स्वरूप तीन-चार पन्नों में न मिल पाना और उसके कारण किताब को बन्द करके दराज में रख देना, ऐसी बातें जो एक पाठक की मानसिक दशा है उसका प्रारम्भ में ही ज़िक्र करके पाठकों का ध्यानाकर्षण कर लिया गया है। आप कहानी में खुद को ऐसे तल्लीन कर लेंगे कि पढ़ना पूरा किए बगैर छोड़ने का मन ही नहीं करेगा। किताब में बहुत ज्यादा पात्र न घुसेड़ कर सामान्य चार-पांच पात्रों के नाम हैं, जिनमें मुख्य रूप से छाबड़ा परिवार के इर्दगिर्द पूरी कहानी को मुख्यांश के साथ जोड़ा गया है।

अगर किताब की शुरुआत की बातें, जो अक्सर पाठक छोड़ देते हैं, वो न पढ़ी जाएं तो किसी भी पाठक को बीच कहानी तक यह समझ में नहीं आएगा कि इस उपन्यास का मुख्यांश और शीर्षक, सन उन्नीस सौ चौरासी में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या और उसके उपरांत हुए सिख विरोधी दंगों को संकेतित करने के लिए लिया गया है। जिस बोकारो शहर को इस किताब का मुख्य वक्ता या कथावाचक (नैरेटर) बनाया गया है वह शहर ही चीख-चीख कर उस वक्त की पूरी कहानी बयां कर रहा है।

कहानी की शुरुआत पात्र परिचय से होती है, जैसा कि सभी किताबो में होता है। पर चौरासी के पात्र परिचय, उन पात्रों की कहानियां सुनाते हुए सत्य व्यास ने करवाया है जो बोरियत न लगने देने की वजहों में से एक वजह हो सकती है। हर कहानी के दृश्यों को एक शीर्षक के साथ शुरू किया गया है। उत्तर भारत की बोलचाल की भाषा में लिखा गया वह शीर्षक, जो वास्तव में एक शीर्षक मात्र नहीं, बल्कि उस दृश्य से उपजी भावनाओं का अंतिम निष्कर्ष है।

कहानी के प्रति एक मीठा सा खिंचाव, उस कहानी के पात्र ऋषि और छाबड़ा साहब की बेटी मनु की कहानी से पाठकों को महसूस होगा। भाषा का आमफहम होना उस कहानी को और भी ज्यादा संप्रेषणीय बनाता है। चलन के अनुसार पाठकों की पसन्द पर ध्यान देते हुए कहानी में प्रेम कहानी के दृश्य को वर्णित किया गया है। शुरुआत में पाठक यह पूरी तरह भूल जाएंगे कि हम उस भीषण सिख विरोधी दंगों के घटनाक्रम पर आधारित कहानी पढ़ रहे हैं किताब में। हर पन्ने में आगे बढ़ने के साथ-साथ आप अपने मन में ऋषि का चरित्र, मनु का सौंदर्य और वेशभूषा, साथ ही छाबड़ा साहब के एक गम्भीर और भोले से पगड़ी बांधे हुए पिता के किरदार के रूप में कल्पना करना प्रारम्भ कर देंगे। कहानी का पूरा श्रृंगार, ऋषि और मनु के दृश्यों के इर्दगिर्द आपको पढ़ने के लिए मिलेगा।

उत्तर भारत के एक प्रमुख पर्व छठ पूजा से प्रारम्भ हुई ऋषि और मनु की प्रेम कहानी को इतनी बारीकी से दिखलाया गया है कि पाठक को कहानी का अंत जानने के लिए पूरा पढ़ने पर मजबूर कर जाएगा। बेहद खूबसूरती से छठ त्यौहार के रीति रिवाजों में सामान्यता दिखलाते और प्रत्यक्षता महसूस कराते हुए उपजती इस प्रेम कहानी को एक नाट्य रूपांतरण की तरह उतारकर जीवंत बना देने में लेखक सफल हुआ है।

कहानी में इसका सजीव चित्रण मिलेगा कि एक मध्यमवर्गीय परिवार का जीवन कैसा होता है, एक शहर के बीच चौक-चौराहों, नुक्कड़ पर कैसा माहौल रहता है। चाय की दुकानों पर किस तरह की राजनीतिक चर्चाएं होती हैं, इंसानों को किस तरह से राजनेताओं द्वारा भड़काया जाता है, कैसे-कैसे उन दंगों के अग्निताप से पूरे सिख समाज के लोगों के प्रति आक्रोश पैदा किया गया यह पढ़ने के साथ ही समझ आ जाएगा। कुछ भड़काऊ नारों को भी किताब में दर्शाया गया है यह समझाने के लिए कि सन चौरासी के दरमियान कैसे लोगों को दंगों की आग में झोंका गया था। गैर-सिख लोगों को समूचे सिख समाज के प्रति किस तरह से हथियार उठाने के लिए बाध्य किया गया।

कई स्थानों पर काफी सारे वीभत्स दृश्यों को इतनी सूक्ष्मता से लिखा गया है जो पाठको के रोंगटे खड़े कर देने के लिए काफी है। उपन्यास के मध्यांतर के साथ दंगों की शुरुआत तथा ऋषि द्वारा अपनी प्रेमिका मनु और उसके छाबड़ा परिवार के प्रति वफादारी को पढ़कर पाठक यदि पूरी तरह से कहानी को महसूस करेंगे तो उनकी आँखों को भीगने से कोई नहीं रोक पाएगा।

कहानी का अंत थोड़ा सुखद भी है, थोड़ा व्यथित करने वाला भी। पाठक अपने-अपने हिसाब से कहानी के अंतिम निष्कर्ष की कल्पना कर सकते हैं।

वैसे इस किताब के आधार पर बना एक वेब सीरीज “ग्रहण” डिजनी हॉटस्टार मौजूद है, फिर भी मेरी सलाह यही रहेगी कि ग्रहण सीरीज देखने के पूर्व ‘चौरासी’ को जरूर लें।

किताब – चौरासी (उपन्यास)
लेखक – सत्य व्यास
प्रकाशक – हिन्दी युग्म, 201 बी, पाकेट ए, मयूर विहार फेज-2, दिल्ली-91
मो.- 9873734048, 9968755908

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