स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा – मधु लिमये : 41वीं किस्त

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)

अगस्त क्रांति और आजाद हिंद फौज

ब तक हमने उदारपंथियों तथा उग्रपंथियों के वैध आंदोलन, आतंकवादियों के बम पिस्तौल और महात्मा गांधी के सामुदायिक सत्याग्रह और असहयोग आंतदोलन के तरीकों पर विचार किया। अब स्वतंत्रता आंदोलन के अंतिम चरण में जो दो महत्त्वपूर्ण प्रयोग किए गए, उन पर विचार करना बाकी है। एक प्रयोग था अगस्त 1942 के क्रांतिकारी आंदोलन का और दूसरा था नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज का। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के प्रयासों और आजाद हिंद फौज तथा आरजी हुकूमते आजाद हिंद के निर्माण के बारे में उस समय लोगों को विशेष जानकारी नहीं थी। द्वितीय विश्व-युद्ध समाप्त होने के बाद आजाद हिंद फौज के तीन अफसरों (शाहनवाज, ढिल्लों तथा सहगल) पर लालकिले में फौजी न्यायालय द्वारा जो मुकदमा चलाया गया था उसी से आजाद हिंद फौज की कार्यवाही प्रकाश में आयी जिसने हिंदुस्तानियों के मन को हिला दिया।

1942 की अगस्त क्रांति के जन्मदाता स्वयं महात्मा गांधी थे, हालांकि उनकी गिरफ्तारी के बाद कांग्रेसी, समाजवादी तथा अन्य क्रांतिकारी नेता और आम जनता उनके द्वारा दर्शाए गए रास्ते पर नहीं चले। क्रिप्स योजना असफल हो जाने के बाद महात्मा गांधी इस बात से अत्यधिक चिंतित थे। एक ओर अंग्रेजी हुकूमत सत्ता हस्तांतरण के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थी तो दूसरी ओर वह इतनी निकम्मी हो चुकी थी कि यदि उस समय जापान द्वारा भारत पर हमला कर दिया जाता तो यह भारत की रक्षा करने में सर्वथा अयोग्य सिद्ध हो जाती। साथ ही साथ जनता में राष्ट्र की रक्षा के प्रति व्यापक अनास्था ही नहीं बल्कि जापानियों के प्रति सुप्त प्रेम भी है, यह बात भी गांधीजी को स्पष्ट दिखाई दे रही थी।

क्रिप्स वार्तालाप फेल होने के बाद अंग्रेजों के प्रति साधारण लोगों में कटुता बढ़ गई थी। राजाजी जैसे नेताओं द्वारा मुस्लिम लीग की भारत के बँटवारे की माँग को कबूल कर अंग्रेजों से समझौता करने की जो बात चलाई जा रही थी, उससे राजनैतिक कार्यकर्ता और जनता क्षुब्ध थे। राजाजी एक माने में सारी जनता से कट गए थे। जवाहरलाल नेहरू और मौलाना आजाद भी मानसिक दृष्टि से फासिस्ट विरोधी गुट के थे। लेकिन सहयोग का कोई सम्मानपूर्ण रास्ता नहीं दिखाई दे रहा था। उसके बावजूद जवाहरलाल नेहरू ने जापानी आक्रमण की संभावना के खिलाफ हथियार उठाकर लड़ने की घोषणा एक-दो बार की थी। उन्होंने कहा था कि यदि सुभाष चंद्र बोस जापानियों की मदद लेकर भारत में आएंगे तो हाथ में तलवार लेकर मैं उनका प्रतिरोध करूंगा।

गांधीजी की व्यग्रता इन घटनाओं से बढ़ गई और उऩ्हें इस बात का खतरा महसूस होने लगा कि भारत अंग्रेज और जापानियों के बीच रणभूमि बन सकता है और भारत के दो सबसे ज्यादा लोकप्रिय नेता (नेहरू और सुभाष) एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हो सकते हैं। यह भय निराधार भी नहीं था। जवाहरलाल अहिंसा को छोड़ रहे है– महात्माजी ने सरदार पटेल को एक पत्र में कहा था। इस स्थिति से निकलने का कोई रास्ता गांधीजी निकालना चाहते थे। गांधीजी द्वारा अंग्रेजो भारत छोड़ो का नारा इसी परिप्रेक्ष्य में दिया गया था। उन्होंने सोचा था कि यदि जनता की अनास्था को दूर करना है, अंग्रेजों के प्रति नफरत की प्रतिक्रिया स्वरूप जापानियों के प्रति जो प्रेम उपजा है, उस दुश्चक्र से यदि भारत की जनता को निकालना है तो उन्हें कोई प्रत्यक्ष प्रतिकार का रास्ता दिखाना होगा। प्रतिकारशून्यता और अकर्मण्यता सर्वथा विनाशकारी साबित होगी। अतः उन्होंने संकल्प कर लिया था कि अब मैं देश को अंतिम और प्रखर संग्राम के लिए तैयार करूंगा।

अप्रैल 26 को गांधीजी ने अपनी भावना को अभिव्यक्त करते हुए अंग्रेजों को सलाह दी थी कि  “चूंकि अंग्रेज भारत की रक्षा करने में असमर्थ हैं, अतः उन्हें चाहिए कि वे हिंदुस्तान छोड़कर चले जाएं। अंग्रेजों का निकम्मापन बर्मा, मलाया, सिंगापुर की घटनाओं से स्पष्ट हो चुका है। अंग्रेजों का भारत छोड़ना न सिर्फ हिंदुस्तान के लिए बल्कि अंत में अंग्रेजों के स्वयं के लिए भी मुफीद होगा। जापान की लड़ाई अंग्रेजों से है। हिंदुस्तान से उन्हें क्या झगड़ा; शायद जापान हिंदुस्तान से बातचीत करने के लिए भी तैयार हो जाए।

गांधीजी के भारत छोड़ो के नारे से हिंदुस्तान की जनता, विशेषकर नौजवान आंदोलित और प्रेरित हुए। कांग्रेस का एक गुट (नेहरू और मौलाना आजाद) ने गांधीजी की नयी नीति और कार्यक्रम का जरूर थोड़ा विरोध किया लेकिन गांधीजी के लेखों और बयानों से देश में चेतना और उत्साह की जो नयी लहर दौड़ी, उसको देखते हुए धीरे-धीरे जवाहरलाल ने अपना विरोध छोड़ दिया। वह भी इस नतीजे पर पहुंचे कि भारतीय जनता की उदासीनता जापानियों के लिए एक न्योता साबित हो सकती है, अतः इससे यह बेहतर होगा कि जनता को झकझोर कर प्रतिकार के लिए उद्यत किया जाए।

गांधीजी ने इस प्रकार जनता के अंदर नए प्राण भरने की चेष्टा की और अपने साथ जवाहरलाल को भी लेने का भरसक प्रयास किया। इसका नतीजा हुआ कि बंबई में गवालिया टैंक मैदान में जब अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का जलसा हुआ तो कम्युनिस्टों को छोड़कर एक राय से भारत छोड़ो का प्रस्ताव पारित हो गया। गांधीजी को आशंका थी कि शायद शीघ्र ही मुझे गिरफ्तार कर लिया जाएगा। अगर मुझे आंदोलन के आरंभ में ही गिरफ्तार कर लिया जाता है तो जनता और कार्यकर्ताओं का क्या कर्तव्य होगा? अतः उऩ्होंने घोषणा की कि इस बार हर कार्यकर्ता और नागरिक को अपना नेता स्वयं बनना है तथा करो या मरो का निश्चय करके अपनी आत्मा की पुकार सुनकर काम करना है। उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि अहिंसा के दायरे में रहकर प्रतिकार करने के सिवाय इस बार आंदोलन पर किसी तरह की रोक नहीं रहेगी।

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