मूलत: मनुष्य एक संवेदनायुक्त विवेकशील प्राणी है। एक आदर्श मनुष्य के आचरण का सनातन आधार न्याय और प्रेम रहता आया है। इन्हीं दो मूल्यों से ‘मानवता’ (मनुष्यता, इंसानियत, आदि) की परिभाषा बनी है। इसका विलोम दानवता और पशुता हैं। ‘न्याय’ समाज का एक प्रमुख सद्गुण है। व्यक्ति-हित और समाज-संचालन के स्वस्थ समन्वय के लिए न्याय-व्यवस्था हमारे कर्तव्य और आचरण का पथ—प्रदर्शन करती है। इसके तीन स्वरूप हैं – राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक। इसी प्रकार ‘प्रेम’ में संवेदना और सक्रिय सरोकारिता की केन्द्रीयता होती है जिससे हम एक दूसरे के प्रति जिम्मेदारी का व्यवहार करते हैं और सहज मददगार बनते हैं। इससे ‘अन्यता’ कम होती है और ‘अपनत्व’ तथा सामुदायिकता बढ़ती है।
अहिंसा ही समाज, स्वतंत्रता और मानवता की आधारभूमि
मानव समाज में स्वतंत्रता और मानवता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसीलिए मानवीय आचरण के लिए स्वराज और स्वराज के संवर्धन के लिए मानवीय आचरण की अनिवार्यता स्वीकारी गयी है। अपने अंदर स्वतंत्रता, न्यायप्रियता और प्रेम के आधार पर विवेकशीलता को लगातार प्रवाहित बनाए रखना किसी भी व्यक्ति का, समाज का और देश का सहज लक्ष्य है। न्याय और प्रेम ही अहिंसा की नींव होती है। इन्हीं दो के संयोग से ‘मैं’ का विलय होता है। व्यक्तित्व में करुणा और संवेदना पनपती है। ‘स्व’ का जीवमात्र को समेटने वाला विस्तार होता है। अन्याय तथा ‘अन्यता’ हिंसा का औचित्य होते हैं और न्याय और प्रेम की भावना ममत्व और मैत्री की जननी है।
प्रेम ही एकता, बंधुत्व और आत्मीयता की नींव है। अपनत्व अहिंसा का आधार है। न्याय और प्रेमभाव मानव के आचरण में हिंसा के प्रबल प्रतिरोधक रहते आए हैं। लेकिन बिना प्रेम की प्रेरणा के अहिंसा प्रबल नहीं हो पाती है। न्याय और प्रेम के स्तंभों पर ही सक्रिय सकारात्मकता के जरिये अहिंसक समाज की रचना का सच साकार किया जा सकता है।
यह भी महत्त्वपूर्ण सच है कि इक्कीसवीं सदी की दुनिया में हिंसा से अहिंसा की ओर प्रगति के लिए चौतरफा नागरिक-प्रयास चल रहे हैं। इसमें यूरोप-अमरीका के वैज्ञानिकों, लेखकों और युवजनों की अगुवाई है। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने 2007 से 2 अक्टूबर को विश्व अहिंसा दिवस के रूप में मनाना शुरू कर दिया है। 2030 तक पूरी दुनिया में सामुदायिक जीवन में शांति और सद्भाव की टिकाऊ व्यवस्था स्थापित करना इसके 17 सूत्री स्थायी प्रगति प्रयास (‘17 सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स’) का एक प्रमुख लक्ष्य है। व्यक्तिगत आहार से लेकर अंतरराष्ट्रीय व्यापार तक अहिंसा-आग्रह से प्रभावित हो रहे हैं। खान-पान में शाकाहार ने आन्दोलन का रूप ले लिया है। एक अनुमान के अनुसार, दुनिया की कुल 775 करोड़ आबादी में से 73 फीसदी लोग ही मांसाहारी हैं। कम से कम 3 फीसदी मनुष्य अपने को ‘वेगान’ (पशुओं द्वारा उत्पादित दूध, अंडा आदि किसी भी प्रकार के पदार्थ को न खानेवाले), 5 फीसदी लोग शाकाहारी, 5 फीसदी लोग मांस परहेजी (मत्स्याहारी) और 14 फीसदी स्त्री-पुरुष आहार में लचीलापन अपनाते हैं। इससे मनुष्यों द्वारा अपनी क्षुधा-पूर्ति के लिए पशु-पक्षियों और अन्य जीवों की ह्त्या और मांस-व्यापार के खिलाफ माहौल बन रहा है। मांसाहार के विरुद्ध नयी पीढ़ी का दबाव बढ़ रहा है। मांस-व्यापार पर रोक पर्यावरण आन्दोलन की एक मुख्य मांग बन गयी है।
उधर, अंतर-राष्ट्रीय संबंधों को युद्ध-मुक्त बनाने के लिए वैश्विक सहमति बढ़ रही है। पिछले दशक में ही कई संधियाँ की जा चुकी हैं। राष्ट्रीय सेनाओं को सुसज्जित करते रहने और वैश्विक सैनिक गठबन्धनों के बढ़ते व्यय के बावजूद पिछले पांच दशकों से किसी भी आधार पर तीसरे विश्व-युद्ध को नहीं होने दिया गया है। युद्ध हो रहे हैं लेकिन किसी भी युद्ध को लेकर वैश्विक या राष्ट्रीय सहमति असम्भव हो चुकी है।
हमारी दुनिया में हिंसा का तानाबाना
हिंसा से मुक्ति हर मनुष्य की स्वाभाविक जरूरत है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति आनंद चाहता है। जिसमें शांति और संतोष दो बुनियादी शर्तें हैं। इसीलिए 1648 को जर्मनी के वेस्टफेलिया शहर में हुए यूरोपीय समझौते के आधार पर नागरिकता और भौगोलिक सुनिश्चितता आधारित राष्ट्र-राज्य को वास्तविकता बनाया गया और राष्ट्रों को दुनिया की बुनियादी इकाई के रूप में मान्यता देते हुए मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय विश्वव्यवस्था की रचना हुई है। इसमें एक तरफ हर राष्ट्र में हिंसा का एकाधिकार राज्यसत्ता को सौंप दिया गया है और दूसरी तरफ 1945 से आगे विश्व को अन्तरराष्ट्रीय हिंसा से मुक्त रखने के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना की गयी।
फिर भी हिंसा की क्षमता ही, (क) देशों में व्यक्तियों और समुदायों के बीच, और (ख) दुनिया में देशों के बीच के रिश्तों का खुला आधार है। हथियार-उद्योग मुनाफे के सबसे बड़े धंधों में बना हुआ है। इसमें दुनिया का 1822 अरबी डालर प्रतिवर्ष लगाया जाता है। संयुक्त राज्य अमरीका, रूस, फ़्रांस, जर्मनी और चीन दुनिया के सबसे बड़े हथियार निर्यातक देश हैं। दुनिया भर में 98 देशों की 1135 कंपनियाँ छोटे हथियारों का उत्पादन और व्यवसाय करने में जुटी हैं और इन्होंने विश्व भर में 87.5 करोड़ छोटे हथियारों को बेचा है। अमरीका का सैनिक खर्च 778 अरब डालर प्रतिवर्ष का है जो पूरी दुनिया के सामरिक व्यय का 33 फीसदी है। जबकि अमरीका में पूरी दुनिया की कुल 4.3 फीसदी जनसंख्या का निवास है। सकल विश्व-सम्पत्ति के 40 फीसदी हिस्से पर जरूर अमरीका का स्वामित्व है।
इन पांच देशों द्वारा विश्व-शस्त्र निर्यात का 75 फीसदी धंधा किया जाता है। लेकिन इसका सबसे ज्यादा लाभ उठानेवाले किसी यूरोपीय देश में सैनिक तैयारी पर खर्च बढ़ने का, विशेषकर परमाणु अस्त्रों के संग्रह का कोई समर्थन नहीं करता। सिर्फ चीन, भारत, दक्षिण एशिया और मध्य एशिया के देशों में हथियारी होड़ का नशा बचा हुआ है और अफ्रीका के देशों में कबायली पहचान के नाम पर हजारों निर्दोष स्त्री-पुरुष बलि चढ़ाये जा रहे हैं। दुनिया के पांच सबसे बड़े शास्त्र-आयातक देश कौन हैं? इसका उत्तर चौंकानेवाला है – सऊदी अरबी, भारत, मिस्र, आस्ट्रेलिया और अल्जीरिया के बीच दुनिया के कुल शस्त्र निर्यात का 33 फीसदी खरीदा जा रहा है! चीन का सैनिक व्यय 252 अरब डालर का है। इसके मुकाबले में भारत अपनी राष्ट्रीय आय का 13.7 फीसदी सेना पर खर्च करता है और यह राशि 2018 में 72.9 अरब डालर थी। यह खर्च स्वास्थ्य और शिक्षा पर हो रहे कुल व्यय का ढाई गुना जादा है।
भारत का सैनिक व्यय रूस (61 फीसदी) और ब्रिटेन (59 फीसदी) से आगे निकल चुका है और इसमें पड़ोसी चीन की सामरिक तैयारियों का बड़ा योगदान है। अब सैनिक तैयारियों में पाकिस्तान कैसे भारत से पीछे रहेगा? पाकिस्तान अपनी सकल राष्ट्रीय आय का 18 फीसदी फौज पर खर्च करता है और हाल में इसने 6 फीसदी की बढ़ोतरी करके कुल 10 अरब डालर खर्च किया। जबकि भारत का क्षेत्रफल 3,287,283 वर्ग किलोमीटर और सरहदों की कुल लम्बाई 13,888 किलोमीटर है और पाकिस्तान का क्षेत्रफल 794,095 वर्ग किलोमीटर और सरहदों की कुल लम्बाई 7,257 किलोमीटर है। भारत की 1,339 करोड़ जनसंख्या का 25 फीसदी और पाकिस्तान की 23 करोड़ जनसंख्या का 40 फीसदी निरक्षरता और निर्धनता के दो पाटों में विदेशी राज से आज़ादी के बावजूद पिस रहा है। जानकार लोग यह व्यंग्य भी करते हैं कि जहां दुनिया के हर देश की अपनी सुरक्षा के लिए एक सेना है वहां पाकिस्तान की सेना की अपनी हितरक्षा के लिए एक देश है!
अहिंसा उन्मुख भारतीय चिन्तन परम्परा
पूरी दुनिया में महावीर और बुद्ध को अहिंसा और मैत्री का प्राचीनतम शिक्षक माना गया है। दोनों की शिक्षाओं के आधार पर दो महान धर्म-धाराओं का प्रवाह हुआ है – जैनधर्म और बौद्धधर्म। भारत में अहिंसक जीवन और समाज-व्यवस्था के आदर्श के उद्गम को महावीर (599 वर्ष ईसापूर्व – 527 वर्ष ईसापूर्व) और गौतम बुद्ध (583 वर्ष ईसापूर्व – 483 वर्ष ईसापूर्व) की शिक्षाओं से जोड़कर देखा जाता है। जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी ने पांच गुणों (‘पंचशील’) के विकास की जरूरत बतायी है – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। आज दुनिया में 60 लाख लोग महावीर स्वामी के अनुयायी हैं। इनमें से अधिकांश भारतीय हैं। इसी प्रकार महात्मा बुद्ध ने तीन क्लेशों को पहचानने पर जोर दिया है – मोह, राग और द्वेष। इनके निर्मूलन से दु:खों से मुक्ति का रास्ता बनता है। दुनिया के 53 करोड़ से अधिक (8 प्रतिशत) स्त्री-पुरुष अपने को बौद्ध मतावलंबी मानते हैं।
भारतीय संस्कृति में वेदान्त, जैन और बौद्ध शिक्षाओं का संगम हुआ है। इसलिए भारतीय चिन्तन में मनुष्य मात्र की मैत्री के दो महामंत्रों के रूप में निम्नलिखित श्लोकों को अक्सर दुहराया ही जाता है :
ऊँ सर्वेभवन्तु सुखिन:
सर्वे सन्तु निरामया:
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
मा कश्चित् दु:ख भाग्भवेत..
(सभी सुखी होवें। सभी निरोग रहें। सभी का जीवन मंगलमय हो। कोई भी दु:ख से त्रस्त न हो।)
अयं निज: परोवेति गणना लघुचेतसाम्
उदारचरितानां वसुधैव कुटुम्बकम्
(यह मेरा है और यह पराया है – ऐसी सोच संकुचित चित्त वाले व्यक्तियों की होती है। इसके विपरीत, उदार चरितवालों के लिए संपूर्ण धरती ही एक परिवार है।)
गांधीजी का अहिंसा-विमर्श
महात्मा गांधी समकालीन दुनिया में अहिंसा और प्रेम के सबसे महत्त्वपूर्ण पथप्रदर्शक रहे हैं। गांधीजी ने अपनी संघर्षमय जीवन यात्रा को ‘सत्य के प्रयोग’ बताया था और सत्य के लिए अहिंसा की अनिवार्यता पर बल दिया है। उन्होंने भारत, ब्रिटेन और दक्षिण अफ्रीका के अपने विविध अनुभवों के सारांश के रूप में लिखा है कि आर्थिक अन्याय आधारित असमानता को दूर करने के लिए काम करना अहिंसक स्वराज की मुख्य चाबी है। इसका अर्थ यह होता है कि एक ओर जिन मुट्ठीभर पैसेवालों के हाथ में राष्ट्र की सम्पत्ति का बड़ा भाग इकठ्ठा हो गया है, उनकी सम्पत्ति को कम करना और दूसरी ओर जो करोड़ों लोग अधपेट खाते हैं और नंगे रहते हैं उनकी संपत्ति में वृद्धि करना। जबतक मुट्ठीभर धनवानों और करोड़ों भूखे रहनेवालों के बीच बेइंतहा अंतर बना रहेगा, तब तक अहिंसा की बुनियाद पर चलनेवाली राज्य-व्यवस्था कायम नहीं हो सकती। अगर धनवान लोग अपने धन को और उसके कारण मिलनेवाली सत्ता को खुद राजी-ख़ुशी से छोड़कर और सबके कल्याण के लिए सबके साथ मिलकर बरतने को तौयार न होंगे, तो यह तय समझिये कि हमारे देश में हिंसक और खूंख्वार क्रान्ति हुए बिना न रहेगी। (देखें : रचनात्मक कार्यक्रम (1946) (अहमदाबाद, नवजीवन प्रकाशन; पृष्ठ 40-41)
इससे पहले उन्होंने यह प्रश्न भी उठाया था कि अहिंसा के द्वारा आर्थिक समानता कैसे लायी जा सकती है ? पहला कदम यह है कि इस आदर्श को अपनाने वाले अपने जीवन में आवश्यक अपरिवर्तन करें। हिन्दुस्तान की गरीब जनता के साथ तुलना करके अपनी आवश्यकताएं कम करें। जो धन कमायें उसे ईमानदारी से कमाने का निश्चय करें। अपनी आवश्यकताएं पूरी करने के बाद जो पैसा बचे उसका वह प्रजा की ओर से ट्रस्टी (संरक्षक) बन जाए। जब मनुष्य अपने-आपको समाज का सेवक मानेगा, समाज के खातिर धन कमाएगा, समाज के कल्याण के लिए उसे खर्च करेगा, तब उसकी कमाई में शुद्धता आएगी। उसके साहस में भी अहिंसा होगी। इसके बाद अपने संपर्क के लोगों में समानता के आदर्श का प्रचार करें। अहिंसक आर्थिक समानता की जड़ में ‘ट्रस्टीशिप’ (संरक्षकता भाव) निहित है (देखें: हरिजनसेवक, 24.8.’40).
गांधीजी ने यह भी रेखांकित किया है कि यदि मनुष्य-जाति आदतन अहिंसक नहीं होती, तो उसने युगों पहले अपने हाथों अपना नाश कर लिया होता। हम लोगों के ह्रदय में इस झूठी मान्यता ने घर कर लिया है कि अहिंसा व्यक्तिगत रूप से ही विकसित की जा सकती है और यह व्यक्ति तक ही मर्यादित है। अहिंसा सामाजिक धर्म है और इसे सामाजिक धर्म के तौर पर विकसित किया जा सकता है। भारत में अतीत में युगों तक आम जनता को जो शिक्षा मिलाती रही है वह हिंसा के खिलाफ है। इससे भारत में मनुष्य स्वभाव का विकास इस हद तक हो चुका है कि आम लोगों के लिए हिंसा की बजाय अहिंसा का सिद्धांत ज्यादा स्वाभाविक हो गया है (देखें : यंग इंडिया, 26.1.’22; 2.1.30).
गांधीजी के शब्दों में, ‘इस हिंसामय जगत में जिन्होंने अहिंसा का नियम ढूँढ़ निकाला, वे ऋषि न्यूटन से कहीं जादा बड़े आविष्कारक थे। वे वेलिंगटन से जादा बड़े योद्धा थे। वे शस्त्रास्त्रों का उपयोग जानते थे और उन्हें उनकी व्यर्थता का निश्चय हो गया था। और तब उन्होंने हिंसा से ऊबी हुई दुनिया को सिखाया कि उसे अपनी मुक्ति का रास्ता हिंसा में नहीं बल्कि अहिंसा में मिलेगा। अपने सक्रिय रूप में अहिंसा का अर्थ है ज्ञानपूर्वक कष्ट सहन करना। उसका अर्थ अन्यायी की इच्छा के आगे दब कर घुटने टेकना नहीं है; उसका अर्थ यह है कि अत्याचारी की इच्छा के खिलाफ अपनी आत्मा की सारी शक्ति लगा दी जाए। जीवन के इस नियम के अनुसार चलकर तो कोई अकेला आदमी भी अपने सम्मान, धर्म और आत्मा की रक्षा के लिए किसी अन्यायी साम्राज्य के सम्पूर्ण बल को चुनौती दे सकता है और इस तरह उस साम्राज्य के नाश या सुधार की नींव रख सकता है। ( यंग इण्डिया; 11.8.’20)
‘अहिंसक स्वराज’ अर्थात गांधी विमर्श की अगली कड़ी
गांधीजी के अहिंसक स्वराज विमर्श को आचार्य विनोबा ने 1940 के सत्याग्रह के दौरान कारावास की दुनिया में ‘स्वराज-शास्त्र’ के रूप में निरुपित किया है। इसमें यह माना गया है कि बालिग़ मताधिकार पर आधारित लोकतांत्रिक राज्य-व्यवस्था मनुष्य के राजनीतिक प्रयोगों की श्रृंखला में एक नयी कड़ी है। लेकिन इस प्रयोग में भी गांधी के ‘हिन्द-स्वराज’ की प्रस्तुति काल (1909) में ही कई अन्तर्विरोध उभर चुके थे। इसीलिए ग्राम-स्वराज के रूप में अगले प्रस्थान की जरूरत पर बल दिया गया।
विनोबा के अनुसार, ‘राज्य’ एक बात है और ‘स्वराज्य’ दूसरी बात। राज्य हिंसा से प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु ‘स्वराज्य’ बिना अहिंसा के असम्भव है। इसीलिए जो विचारशील हैं वे ‘राज्य’ को नहीं चाहते, बल्कि यह कहकर तड़पते रहते हैं कि ‘आओ, हम सब स्वराज्य के लिए जतन करें।’’ न त्वहं कामये राज्यं’ यह उनका निषेधक है और ‘यतेमहि स्वराज्य’ – यह विधायक राजनैतिक उद्घोष होता है।’ विनोबा यह भी जोर देते हैं कि स्वराज्य-शास्त्र नित्य-वर्धिष्णु है; अत: उसकी पद्धति देश-कालानुसार सतत परिवर्तनशील है। परन्तु उसके मूल्य शाश्वत है।’ (देखें : स्वराज्य शास्त्र – विनोबा (1942/ 2000 (पांचवां संस्करण) (वाराणसी, सर्व सेवा संघ प्रकाशन; पृष्ठ 4-5)
यह उल्लेखनीय है कि सर्वोदय जगत में विनोबा के ‘स्वराज्य-शास्त्र’ को गांधी के ‘हिन्द-स्वराज’ की ही अगली कड़ी का दर्जा दिया गया है। क्योंकि इस विश्लेषण में गाँधी के अहिंसा-विमर्श से जुड़े पांच बुनियादी प्रश्नों को संबोधित किया गया है : 1. आज संसार में कितने और किस प्रकार के राजनीतिक विचार प्रचलित हैं? 2. नाज़ीवाद, फासिस्टवाद और समाजसत्तावाद क्या हैं और इनमें कौन सा वाद श्रेष्ठ है? 3. अगर प्रचलित पद्धतियाँ दोषपूर्ण हैं तो निर्दोष पद्धतियों का स्वरूप कैसा होना चाहिए? 4. क्या अहिंसा पर अधिष्ठित राज्यपद्धति टिक सकती है? और 5. दूसरे सभी हिंसावादी राष्ट्रों के बीच क्या कोई एक राष्ट्र अकेला अहिंसावादी रह सकता है?
यह पाँचों प्रश्न जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में 1973-’79 में हुए ‘सम्पूर्ण क्रांति अभियान’ के बाद सहभागी लोकतंत्र की रचना के सवाल पर नयी प्रासंगिकता से उभरे थे। लेकिन इमरजेंसी राज, जनता पार्टी सरकार के बनने और बिखरने और संसदीय प्रतिनिधिमूलक लोकतंत्र का अस्मिता की राजनीति से गंठजोड़ हो जाने के बाद यह चर्चा 2011-’13 के जन-लोकपाल आन्दोलन तक स्थगित हो गयी। अब 2011 से विश्व राजनीति में आतंकवाद की धमक बढ़ रही है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की आड़ में सामाजिक हिंसा को संरक्षण मिल रहा है। बाजारी वैश्वीकरण के बहाने 1 प्रतिशत लोगों के हाथों में 40 प्रतिशत संपदा के स्वामित्व से बढ़ते आर्थिक और राजनीतिक अन्यायों से टकराहटों की बारंबारता है। इस सब के बीच ‘वैकल्पिक राजनीति’ की जरूरत बढ़ने से इसका फिर से नया महत्त्व है।
गांधी में अहिंसा-आस्था का पल्लवन कैसे हुआ?
मैत्री और करुणा, परोपकार और परमार्थ, वीरता और क्षमा, प्रेम और सहिष्णुता – इन्हीं मूल्यों और आदर्शों के बीच सर्वत्र अहिंसा अंकुरित होती है। विश्व के सभी धर्म और सभी देशों के राष्ट्रीय संविधान इसी की संभावना को इंगित करते हैं। लेकिन यह शोचनीय सच है कि मानव समुदाय आज तक हिंसा से अहिंसा की ओर निर्णायक प्रस्थान करने में असमर्थ रहा है। वस्तुत: एक सामान्य मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन और सामुदायिक गतिविधियों में व्यक्तिगत और सामूहिक वर्चस्वता, स्वार्थ, लोभ, असुरक्षा, भय, अहंकार और क्रोध का बड़ा योगदान रहता आया है। यह सही है कि गांधीजी का जन्म एक वैष्णव परिवार में हुआ था और उनकी माँ महामति प्राणनाथ प्रवर्तित प्रणामी सम्प्रदाय से सम्बद्ध एक धर्मनिष्ठ महिला थीं। पिताजी भी धर्मचर्चा की प्रबल प्रवृत्ति रखते थे। लेकिन गांधीजी तो एक तरुण के रूप में पश्चिमी शिक्षा और आधुनिक पेशों की चमक से आकर्षित थे। अपनी जाति-पंचायत की बंदिशें तोड़कर जाति-निष्कासन (अप्रत्यक्ष धर्म-निष्कासन) के बावजूद ब्रिटिश शिक्षा के लिए तीन बरस लंदन में रहे। फिर भी गांधीजी के व्यक्तित्व और विचार में अहिंसा-आस्था का प्रकाश कैसे उत्पन्न हुआ ? उनकी आध्यात्मिक खोज को किसने संरक्षण दिया? वह 1891 और 1906 के बीच एक ‘विलायत में पढ़े बैरिस्टर’ से ‘भारतीय महात्मा’ कैसे बने?
यह एक विचित्र सच है कि हमारी दुनिया में आस्था, संस्कृति और अस्मिता के आग्रहों ने हिंसा की गुंजाइश और अहिंसा की श्रेष्ठता दोनों को बनाए रखा है – महाभारत के शांतिपर्व में यह सूत्र दिया गया है कि ‘अहिंसा परमो धर्म: धर्म हिंसा तथैव च.’. एक तरफ निजी और सामाजिक जीवन हिंसामय है। दूसरी तरफ, विश्व में अहिंसा की तलाश जारी है। अहिंसक जीवन और सभ्यता की रचना के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन से हिंसा को निर्मूल करने की चुनौती को भी पहचानने का दबाव है। इस सन्दर्भ में अहिंसा का सामाजिक आधार निर्मित करने का कौशल विकसित करना गांधी का युगांतरकारी योगदान है। इसलिए यह जानना-बताना जरुरी है कि गांधीजी में यह क्षमता कैसे फली-फूली?
वस्तुत: आज से 130 साल पहले 1891 में एक 22 वर्षीय भारतीय युवक इंग्लैंड से सुशिक्षित होकर भारत लौटा और स्वदेश वापसी के पहले दिन ही संयोगवश उसकी मुलाक़ात एक 24 वर्षीय ‘शतावधानी’ युवक से हुई। पहली भेंट में ही दोनों में निकटता हो गयी और अगले दस बरसों में यह विशिष्ट सम्बन्ध ब्रिटेन से वकालत की ऊंची पढ़ाई करके वयस्क जीवन में प्रवेश करने वाले युवक के आध्यात्मिकता के शिखर की ओर बढ़ने का कारण बना। इनमें से पहला युवक अगले पांच दशकों में क्रमश: रंगभेद, उपनिवेशवाद, जातिवाद, और साम्प्रदायिकता के निवारण का मंत्रदाता सिद्ध हुआ। दूसरा युवक कुल 34 बरस की आयु-अवधि के बावजूद एक महासिद्ध के रूप में अहिंसा, अनासक्ति और अपरिग्रह के लिए प्रसिद्ध जैन धर्म का आधुनिक मार्गदर्शक बना। उन्होंने दिगम्बर और श्वेताम्बर पंथ के गहन विमर्शों की सहज व्याख्या के जरिये ‘आत्मसिद्धि’ के मार्ग को प्रशस्त किया।
यहाँ हम गांधीजी (1869-1948) और श्रीमद् राजचंद्र जी (1867-1901) की अद्वितीय आध्यात्मिक मैत्री की चर्चा कर रहे हैं। गांधीजी के जीवन मार्ग निर्धारण में इस रिश्ते की ऐतिहासिक भूमिका के कई आयाम था।
एक, जैन साधक श्रीमद् राजचंद्र ने ही पश्चिमी शिक्षा और सभ्यता के कारण दुविधाग्रस्त हो चुके गांधीजी के भ्रमित मन में अपने ज्ञान-प्रकाश से ‘आत्मार्थी’ बनने का संकल्प पैदा किया।
दूसरे, भारतीय चिन्तन परम्परा के परिचित होने के लिए ‘षडदर्शन’ समेत कई जरूरी ग्रंथों के पाठ की प्रेरणा दी।
तीसरे, 1891 औए 1901 के बीच निरंतर शंका-समाधान के जरिये भारतीय अध्यात्म परम्परा अर्थात वैदिक विमर्श, जैन धर्म साधना और बौद्ध धर्म दर्शन से बनी ‘आर्य-धर्म की सनातन धारा’ के प्रति विश्वास को मजबूत किया। इसमें दक्षिण अफ्रीका में ‘आत्ममंथन’ से गुजर रहे गांधीजी और भारत में‘आत्मसिद्धि’ कर चुके श्रीमद राजचंद के बीच हुए प्रश्नोत्तरों की बहुत प्रासंगिकता थी।
चौथे, श्रीमद् राजचंद्र की आध्यात्मिक ज्योति के आलोक में गांधी जी ने हिन्दू धर्म के बहुचर्चित दोषों से ऊबकर एक बेहतर धर्म के रूप में ईसाई धर्म अपनाने के निर्णय को बदला। सर्वधर्म समभाव की राह को पहचाना और सत्य-अहिंसा और प्रेमबल की त्रिवेणी के साक्षात् प्रतीक बने।
इसी ज्ञान-सम्बन्ध की बुनियाद पर गांधीजी 1891 और 1906 के कठिन वर्षों के बीच की 15 बरसों की अवधि में अनेक व्यक्तिगत और सार्वजनिक प्रयोगों में जुटे। श्रीमद् राजचंद्र द्वारा मिले मार्गदर्शन से उन्हें अपनी आध्यात्मिकता की डगमगाती नाव के लिए आत्मबोध की पतवार मिली। इससे विकसित हुए आत्मविश्वास और स्थिरता से गांधीजी अपने चिन्तन और कर्म में लियो तोलस्तोय की शिक्षाओं, जान रस्किन के सूत्रों और थोरो के सिद्धांतों का समावेश करते हुए सर्वोदय के अन्वेषी बने। अन्यायग्रस्त विश्वव्यवस्था के बदलाव के लिए प्रयासरत स्त्री-पुरुषों के लिए रचनात्मक सुधार और सत्याग्रही प्रतिरोध के अहिंसक पथ का निर्माण किया। इसीलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा की गांधीजी के विचारप्रवाह को श्रीमद् राजचंद्र की शिक्षाओं से दिशा मिली। अर्थात् गांधीविमर्श को समझने के लिए श्रीमद् राजचंद्र को जानना जरूरी है।