— रामप्रकाश कुशवाहा —
गत एक जुलाई को ही प्रसिद्ध समालोचक और विमर्शकार डॉ .पी.एन. सिंह का जन्मदिन मनाने तथा उनकी रचनावली के लोकार्पण समारोह के बहाने उनका कुशलक्षेम जानने पहुँचा था। उस दिन नयी किताब प्रकाशन से अपनी रचनावली आने की खुशी उनके चेहरे पर साफ-साफ देखी जा सकती थी। बीमारी से उबरने की भी आश्वस्ति उनके चेहरे पर थी।वाराणसी, आजमगढ़, मऊ, गाजीपुर आदि जनपदों से स्वत:स्फूर्त ढंग से आए बुद्धिजीवियों की सहज श्रद्धा उनके जन बुद्धिधर्मी होने को प्रमाणित कर रही थी। उस दिन ऐसा बिल्कुल नहीं लगा था कि उनका खराब स्वास्थ्य उनके पक्षाघात वाली समस्या से अलग तेज बुखार की सामान्य सी समझी जानेवाली बीमारी से प्राणान्त कर उनके प्रशंसकों को स्तब्ध कर देगा।
वर्ष 2008 में पक्षाघात का शिकार होने के बाद मृत्यु की तारीख कल दिनांक 10 जुलाई 2022 तक कुल 14 वर्ष यानी राम के वनवास की पूरी अवधि तक उन्होंने महाभारत के प्रसिद्ध संकल्पी चरित्र भीष्म पितामह की शैली में रोग शैया पर लेटे-लेटे ही हिन्दी साहित्य के समालोचना और विमर्श के क्षेत्र में अपूर्व सेवा की। इस बीच उनका व्याख्यान तो बन्द हो गया था लेकिन पहले के बोले और लिखे गए का सम्पादन कार्य जारी रखा और कुल 28 पुस्तकों में शामिल विपुल चिन्तन हिन्दी के परिष्कृत रुचि वाले प्रबुद्ध पाठकों को दिया। इसके पहले वर्ष 1989 में ही गाजीपुर से उन्होंने नए प्रबुद्ध समाज के निर्माण और परिष्कार के लक्ष्य के साथ ‘समकालीन सोच’ पत्रिका का सम्पादन आरम्भ किया था।
‘समकालीन सोच’ नागरिक बोध और दायित्व के साथ अपने समय और समाज को समझने-समझाने तथा सम्बोधित करने का उनके एकल व्यक्तित्व केन्द्रित एक संस्थागत प्रयास था। ‘समकालीन सोच’ की नियमित गोष्ठियों ने एक अलग तरह की वैचारिकी का परिवेश निर्मित किया। यह वैचारिकी मार्क्सवाद के शोषण मुक्त समाज का सपना लेकर चली थी और फिर भारत की बेहतरी के लिए सभी विचारधाराओं के पुनर्मूल्यांकन, समावेश और निवेश के आधार पर नए उदार और समझदार लोकतांत्रिक समाज बनाने का सपना देखती थी।
1 जुलाई 1942 को गाजीपुर के वासुदेवपुर में जनमे डॉ.पी.एन.सिंह रामविलास शर्मा की तरह ही अंग्रेजी के विद्वान प्राध्यापक रहे और हिन्दी के लिए सेतु भी। पी.एन. सिंह का शोधकार्य लन्दन के प्रोफेसरों की दृष्टि में भी अपने विषय का मानक संदर्भ था। 2001 में प्रकाशित ‘नायपाल का भारत’ उनकी सर्वाधिक प्रशंसित पुस्तक है। गांधी, आम्बेडकर, नेहरू और लोहिया सभी का पुन:पाठ उन्होंने किया। वे शीतयुद्धोत्तर काल के ऐसे विचारक के रूप में सामने आते हैं जो आधुनिक मानव जाति की व्यवस्था को भूमंडलीकरण की माँग और चुनौती के अनुरूप आधुनिकीकृत करना चाहता है ।
अध्यापन से लेकर चिंतन तक उनके पास समाज को बताने के लिए भी बहुत कुछ रहा है। जीवनानुभव भारतीय होते हुए भी उनके पाठकीय अनुभव का क्षितिज विस्तृत और हिंदी से लेकर अंग्रेजी तक फैला रहा है। यही कारण है कि उनके संसमरणों में आकर स्थानीय चरित्र भी वैश्विक परिदृश्य और विमर्श का एक माध्यम बन जाते हैं। उन्होंने हर मनुष्य को सार्थक और महत्त्वपूर्ण मानने वाली आंख पा ली थी। उनके लिए कोई भी महत्त्वहीन और अप्रतिष्ठित किया जाने योग्य नहीं था। किसी सामाजिक-राजनीतिक इतिहास पुरुष की तरह वे भी अपने समकालीन अस्तित्वों को आलोकित और अवलोकित किए जाते हैं। हर जीवन और हर मृत्यु उनके लिए एक महत्वपूर्ण परिघटना थी। मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों से लेकर राष्ट्रीय ख्याति के नायकों तक उनका समदर्शी संस्मरणात्मक विमर्श चलता रहता। कुछ नितान्त पारिवारिक तो कुछ अंतरंग मित्र, कुछ साहित्यिक नायक तो कुछ सामाजिक और राजनीतिक। इस तरह इसमें साहित्यिक, राजनीतिक और व्यक्तिगत- तीनों ही कोटियों के व्यक्तियों की स्मृति-चर्चा शामिल है।
डॉ. पी.एन. सिंह में रूढ़ियों से बाहर के सच की खोज करने की प्रवृत्ति आरम्भ से ही रही। पश्चिम बंगाल में प्रवास की मार्क्सवादी पृष्ठभूमि के साथ सर्वजन हिताय एवं समावेशी को ही महत्त्वपूर्ण मानने के कारण उनका चिंतन सभी प्रकार की संकीर्णताओं का अतिक्रमण करता है। यद्यपि उनकी जाति-निरपेक्ष उदार संवेदनशीलता का रहस्य उनकी माँ से मिले वे संस्कार तथा परिवार में पगली माई के नाम से प्रतिष्ठित उस शूद्र महिला की उपस्थिति भी रही होगी जिनका आजीवन निर्वाह उनके परिवार ने किया था। उनका दलितों एवं आम्बेडकर से सम्बंधित चिंतन, जो उनकी जाति देखनेवाले दलित चिंतकों को भी अवसरवादी या ओढ़ी हुई लग सकती है – वस्तुतः उनकी ऐसी संवेदनशीलता की पाण्डुलिपि उनके पारिवारिक पर्यावरण ने ही लिखी है। यही कारण है कि उनके लेखक और व्यक्ति की संवेदनात्मक उदारता हमेशा ही एक व्यापक नागरिक वृत्त का चयन करने के पक्ष में रही।
प्रतिबद्ध मार्क्सवादी होने के बावजूद उनका लेखकीय विवेक किसी भी वाद की जड़ताओं एवं प्रभावात्मक तात्कालिकताओं को भी समझने और समझाने का प्रयास करता रहा। ऐसी दृष्टि उन्हीं विचारकों के पास संभव है जिनके पास वैज्ञानिक तटस्थता तथा तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य वाला इतिहासबोध हो।
यह एक सच्चाई है कि अनुयायी मानसिकता के बुद्धिजीवी किसी बड़े आन्दोलन का हिस्सा बन सकने की क्षमता यानी संगठनात्मक ईकाई होने के कारण, प्रायः समकालीनता में प्रासंगिक किसी विचारधारा का राजनीतिक पाठ प्रस्तुत करने की दृष्टि से ही उपयोगी होते हैं। असहमत बुद्धिजीवी प्रतिगामी भी हो सकते हैं और प्रगतिशील भी। समकाल में उपस्थित उचित-अनुचित गतिशीलता की पहचान इतिहास-बोध से सम्पन्न कोई समय-संवेदी विचारक ही कर सकता है। पी.एन. सिंह की आलोचना में भी उनकी अनौपचारिक एवं खुली संवेदनशीलता तथा व्यापक सामाजिक सरोकार ही विशेष ध्यान आकर्षित करते हैं। उनके लेखक में उचित-अनुचित के विवेक और साहस का संगम है।
पी.एन.सिंह का जाना हिंदी साहित्यालोचना के लिए अपूरणीय क्षति है।राम प्रकाश कुशवाहा ने उनके विचार व व्यक्तित्व बनने के पीछे के कारणों और उनके होने के महत्त्व को बहुत अच्छे से रेखांकित किया है।पी.एन.सिंह को सादर नमन!
गुरुदेव को नमन और मेरी श्रद्धांजलि।एक जन्मजात विचारक का न रहना कठिन परिघटना है।उनके जीवन का हर व्यवहार एक विचार था।अब एक शून्य है जो अपने भरने की लम्बी प्रतीक्षा करेगा।