— अनिल अश्वनी शर्मा —
महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के आदिवासी तीन दशक से स्वयं के प्रयास से 7 जीवनशाला स्कूल चला रहे हैं।
15 जुलाई। ‘जीवनशाला’ की सच्चाई क्या है? इसे जानने के लिए किसी को बहुत दूर तलक तक जाने की जरूरत नहीं। बस अपने आसपास काम करनेवाले दिहाड़ी मजदूरों को देख लें। इनमें से हजारों या कहें लाखों की संख्या में दो वक्त की रोटी या पेट की आग बुझाने के लिए हाड़तोड़ मेहनत-मशक्कत कर रहे हैं। ये कोई जन्मजात मजदूर नहीं हैं। इनकी अपनी एक खुशहाल दुनिया थी लेकिन शहरी चकाचौंध को बनाए रखने के लिए इनके जंगल, जमीन और उनके गांव को बड़े बांधों में डुबो दिया गया।
चूंकि इनको नहीं मालूम था कि हमारे जीवन जीने के क्या अधिकार हैं? क्योंकि वे “कागद कारे” यानी पढ़ाई-लिखाई नहीं जानते थे, ऐसे में उनके जीवन का अधिकार बिना इनको बताए सरकारों ने जोर-जबरदस्ती से छीन लिया। पिछले तीन दशक से “जीवनशाला” ऐसे निरक्षरों को साक्षर बनाने की कोशिश में जुटा हुआ एक अभियान है। यह बात वर्तमान में महाराष्ट्र के नंदुरबार जिले के भांवरी गांव स्थित जीवनशाला स्कूल में पढ़ा रहे शिक्षक सुखलाल भाई ने कही। इस स्कूल में लगभग 140 आदिवासी छात्र-छात्राएं पढ़ रहे हैं।
सुखलाल ने डाउन टू अर्थ को बताया कि इन आदिवासी गांवों में स्वतंत्रता से लेकर अब तक कभी सरकारों ने माध्यमिक या हायर सेकंडरी तो छोड़िए प्राइमरी स्कूल तक खोलने के बारे में नहीं सोचा। यह जीवनशाला इन क्षेत्रों में खुलने वाला पहला स्कूल था।
सुखपाल बताते हैं कि यह भी सरकार को मंजूर नहीं था और उसने हमें नोटिस देकर पूछा कि आपने अपने मन से कैसे स्कूल खोल लिया? उन्होंने बताया कि सरकारी अधिकारी का कहना है कि यह तो सरकार का कर्तव्य है, आप इसे कैसे पूरा कर सकते हैं? वह कहते हैं कि सरकार ने तो स्वयं इतने बरस स्कूल नहीं खोला और जब हमने अपनी इकन्नी-दुकन्नी जोड़ जोड़ कर यह स्कूल खोला तो उन्हें यह मंजूर नहीं। आखिर हमारे भी कुछ जीवन के अधिकार है कि नहीं?
उनके साथ के शिक्षक गिरधर भाई कहते हैं कि ठीक है, जब तक हम नहीं जानते थे अपने जीने के अधिकार को, तब तक तो हम मूक थे और सारी सरकारी मनमानियों को सहन कर लिया तभी तो आज हम नदी के किनारे न रहकर शहर की झुग्गियों में रहने पर मजबूर हैं। लेकिन अब हम जाग गए हैं और हर हाल में अपने भील आदिवासी बच्चों को अक्षरज्ञान कराकर रहेंगे।
जब स्कूल ही नहीं था, तब उनके घर-द्वार बांध में डुबाए जाने का नोटिस आता था तो इन भील आदिवासियों को मालूम ही नहीं पड़ता था कि किस बात का सरकारी कागज है। जब स्कूल ही नहीं तो फिर कैसे मालूम हो? इस पर मध्य प्रदेश के अलीराजपुर जिले के आदिवासी गांव ककराना स्थित जीवनशाला के शिक्षक निंगा कहते हैं, “जब हमारे घर, गांव और जमीन सरदार सरोवर बांध की डूब में आ रहे थे, तब बार-बार जमीन खाली करने के लिए सरकारी नोटिस आते थे, लेकिन हम उन्हें पढ़ नहीं पाते थे, क्योंकि हमसे से कोई भी पढ़ा-लिखा नहीं था, उसी समय हमें अपने बच्चों को पढ़ाने की जरूरत महसूस हुई। हमने सोचा हमारी तो जिंदगी कट गई लेकिन बच्चों को पढ़ाना जरूरी है। इसलिए हमने स्कूल शुरू किया।”
क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि आज भी देश के आदिवासी इलाकों में सरकारी स्कूल कागजों पर ही अंकित हैं। इसका नंदूरबार (महाराष्ट्र) के भील आदिवासी गिरधर नूरापावरा एक जीता जागता उदाहरण है। बात उस समय (1991) की है जब तक गिरधर क्या उनके जैसे आसपास के सैकड़ों लोग कोई बात या खबर को पहुंचाने के लिए स्वयं पैदल चलकर ही एक गांव से दूसरे गांव जाते थे। क्योंकि भील आदिवासी समाज में सभी निरक्षर थे।
गिरधर अपने समाज के पढ़नेवाले पहले लड़के थे और पढ़ने के बाद ही उन्होंने मन में यह बात गांठ बांध ली थी कि कुछ भी हो जाए वह अपने भील समाज के बच्चों को अंगूठाछाप नहीं रहने देंगे। गिरधर ने डाउन टू अर्थ को बताया कि 1991 की बात है, गांव चिमलखेड़ी (धुलिया, महाराष्ट्र) में गांव के बजुर्गों के सामने हमने यह बात रखी कि सरकार तो हमारे बच्चों को पढ़ाने से रही। ऐसे में आज तक अंधेरे में रहे हमारे बच्चे, भविष्य में भी उनके पल्ले में अंधेरा ही रहनेवाला है।
ऐसे में गांव के बुजुर्गों ने इस बात की अनुमति दी कि हम गांव में स्कूल चला सकते हैं। तब गिरधर ने अपने साथी केशुभाई के साथ छह अगस्त, 1993 को एकसाथ दो स्कूल शुरू किए। पहला चिमलखेड़ी दूसरा निमगवां गांव में। और इन दोनों स्कूलों में अकेले इन्हीं गांवों के ही बच्चे ही नहीं आ रहे थे बल्कि आसपास के एक दर्जन से अधिक गांव के बच्चे पढ़ने आने लगे। दोनों स्कूलों में क्रमश: 50 और 60 की संख्या में छात्र पढ़ने आने लगे।
यहां चौथी कक्षा तक ही पढ़ाना शुरू किया गया। गिरधर बताते हैं कि सबसे बड़ी मुसीबत तब शुरू हुई, जब इन दोनों स्कूलों को बंद करवाने में महाराष्ट्र सरकार के आला अधिकारी से लेकर मंत्री तक ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया कि इन स्कूलों को हर हाल में बंद किया जाना चाहिए। उन्होंने आदिवासियों को धमकी दी कि यह गुनाह है, कोई भी ऐसे ही स्कूल नहीं चला सकता।
चूंकि सरकार ने तो कभी इन गांवों में स्कूल खोला नहीं और खोला भी था तो वह कागजों पर ही चल रहा था। ऐसे में जब आदिवासियों ने स्कूल खोला तो उन्हें लगा कि उनके मुंह पर आदिवासियों ने एक तमाचा जड़ दिया है। इस पर सुखलाल कहते हैं कि ऊपर से उनके लिए तो हम अभी जंगली ही ठहरे।
उनकी सोच तो अभी भी ऐसे ही है कि हमारे रहते ये जंगली कैसे स्कूल चला सकते हैं। वहीं जीवनशाला को शुरू करनेवाले दो शिक्षकों में से एक गिरधर बताते हैं कि अगले चार सालों तक तमाम सरकारी अधिकारियों ने हर प्रकार के हथकंडे अपनाए कि जैसे भी हो हमारे स्कूल बंद हो जाएं, लेकिन हुआ इसके ठीक उलट। क्योंकि हमारे स्कूल की देखा-देखी गुजरात के तुरखेड़ा आदिवासी गांव (पूर्व में बड़ौदा जिला अब पिपला) में भी हमने एक और स्कूल खोल दिया। इसके बाद मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के जलसिंधी गांव में भी खोल दिया। इस तरह से हमारे स्कूलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही थी।
जहां तक स्कूल में पढ़ाने का तौर-तरीका है वह है जल, जंगल और जमीन के बारे में छात्रों को बताना। जंगल में पाई जाने वाली तमाम जड़ी-बूटियों से लेकर खाने, जंगलों में मिलनेवाले कंदमूल से उनका परिचय कराना और उनका उपयोग व उपभोग। अकेले जंगल ही नहीं, जल और जमीन की सच्चाइयां। यहां पर बहुत कुछ पढ़ाने का ढंग जापानी छात्रा की आत्मकथा “तोत्तो चान” जैसा ही है। हालांकि गिरधर ने बताया कि यह किताब उन्हें बहुत साल बाद पढ़ने को मिली।
वह कहते हैं कि तब पढ़ा तो ऐसा लगा कि दुनिया के हर हिस्से में ऐसे छात्र मौजूद हैं, जहां पढ़ने के लिए बम से दुर्घटनाग्रस्त हुई रेल के डिब्बे कक्षा के रूप में उपयोग में लाए गए और बच्चे इन टूटे डिब्बों में पढ़कर बहुत खुश हुए। हमारे बच्चे भी अभी किसी पेड़ के नीचे ही पढ़ते नजर आते हैं। और शिक्षक जब तब उन्हें अपना विषय समझाने के लिए बाकायदा उसी जगह पर ले जाता है। जैसे पानी की महत्ता समझाने के लिए वह नर्मदा नदी के किनारे बच्चों की कक्षाएं लगाता है और दिन भर वहीं कक्षा चलती रहती है। यदि उसे जमीन के बारे में बताना है तो छात्रों को वह खेतों में लेकर तमाम सच्चाई से अवगत कराता है।
शुरुआती सालों में जीवनशाला में पढ़े छात्रों को सामान्य स्कूल में बैठने की अनुमित राज्य सरकार नहीं दे रही थी। उनके अधिकारियों का कहना था कि आदिवासी लोग अपने सारे स्कूल के रिकॉर्ड हमें सौंप दें तो हम इसे सरकारी स्कूल का दर्जा दे देंगे। लेकिन आदिवासियों ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। इसके बाद कई बार आदिवासियों ने शिक्षा विभाग के सामने धरना-प्रदर्शन किया तब जाकर आदिवासी बच्चों को सामान्य स्कूलों में परीक्षा देने की अनुमति मिली।
गिरधर बताते हैं कि पहली बार तो पूरे के पूरे हमारे 110 बच्चे पास हो गए। जबकि जिस सरकारी स्कूल में सामान्य बच्चों ने परीक्षा दी थी, सभी के सभी फेल हो गए थे। इस प्रकार से हमारे बच्चों को शहर के सामान्य स्कूल में कक्षा पांचवीं में प्रवेश मिला। गिरधर कहते हैं कि हमारे स्कूल के नाम को लेकर कई जिज्ञासाएं होती हैं। हमने इस स्कूल का नाम दिया “जीवन शाला” यानी जो जीवन की सच्चाई से रुबरू कराए।
(डाउनटुअर्थ से साभार)