— संजय गौतम —
बनारस में गंगा के बिल्कुल किनारे राम छाटपार शिल्पन्यास। पूरा परिसर पत्थरों में तराशी गई विभिन्न आकृतियों से जीवंत। हरी-भरी घास से भरा हुआ छोटा सा लॉन। एक तरफ पत्थर से गढ़ा हुआ छोटा सा मंच। इसी मंच से प्रयाग शुक्ल अपनी धीमी, मंथर आवाज में बोल रहे हैं, रामकुमार और वाराणसी के बारे में। अपने जीवन पर विहंगम दृष्टि डाल रहे हैं, बद्री विशाल पित्ती से लेकर हुसेन, तैयब मेहता, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, रघुवीर सहाय, अशोक सेकसरिया, उनके भाई-बहन यानी तमाम कलाकार-साहित्यकार आवाजाही कर रहे हैं। बगल में गंगा की लहरें उठ रही हैं, आकाश में आषाढ़ के न बरसने वाले छिटके हुए सफेद बादलों के फाहे डूबते हुए सूर्य के सिंदूरी रंग में रँग उठे हैं। धीरे-धीरे सांझ सिंदूरी रंग से स्याह हो रही है……
और इसी झुटपुटे में रामकुमार : कला कथा लोक को सौंपी जा रही है। इसे लिखा है प्रख्यात कला समीक्षक प्रयाग शुक्ल ने, संपादित किया है चर्चित कथाकार अभिषेक कश्यप ने। अभी-अभी हमने रामकुमार के बारे में प्रयाग शुक्ल को सुना है। बनारस से रामकुमार के गहरे संबंध के बारे में सुना है। बनारस ने उनकी कला पर कितना प्रभाव छोड़ा, कैसा प्रभाव छोड़ा, यह जाना है। इस किताब से रामकुमार की कला के बारे में तो हम जानते ही हैं, बनारस से उनके संबंध को भी ठीक से जानते हैं और उनके साहित्यिक रूप को भी जान पाते हैं।
इस किताब को पांच खंडों में प्रस्तुत किया गया है। पहले खंड में प्रयाग शुक्ल की वे रपटें हैं, जो उन्होंने विभिन्न अवसरों पर उनकी प्रदर्शनियों को देखते हुए लिखी हैं। प्रयाग शुक्ल अत्यंत कम उम्र से रामकुमार के पूरे काम को देखते रहे, उनके स्नेहभाजन रहे, उनके स्टूडियो में रहने का अवसर पा सके, उन्हें चित्र बनाने से लेकर प्रदर्शनी की तैयारी करने तक देखते रहे,उनके लेखन को पढ़ते रहे। इसलिए उनकी रपटें केवल सामान्य कला समीक्षक द्वारा लिखी गई रपटें नहीं हैं, बल्कि किसी कलाकार के भीतर पैठकर उसके बारीक परिवर्तनों को दर्ज करती हुई रपटें हैं। रामकुमार को याद करते हुए, रामकुमार का चित्र संसार, अथाह चुप्पियां, रामकुमार और पेरिस, एक बार फिर बनारस, ध्यान भूमि की रचना इत्यादि शीर्षकों से लिखी गई इन रपटों से हमें रामकुमार के चित्रों को देखने-समझने की एक दृष्टि मिलती है। वैसे चित्रों को देखना और उससे बोधित होना धीरज का कार्य है। प्रयाग शुक्ल ने ‘क’ कला दीर्घा में बोलते हुए चित्रों को घंटों खड़े होकर देखते रहने की एक झांकी भी प्रस्तुत कर दी और कहा कि वे बयासी साल की उम्र में लगभग बीस सालों तक चित्रों को देखने के लिए खड़े रहे हैं।
दूसरे खंड में रामकुमार के साथ प्रयाग शुक्ल की वार्ता प्रस्तुत है। वार्ता भी आराम से कई बैठकों में की गई है और प्रस्तुति में सवालों का क्रम आगे-पीछे कर दिया गया है। अपने बारे में बहुत कम बोलनेवाले रामकुमार ने कला पर कुछ विचार रखे हैं। इसी संवाद में उन्होंने रंगों के बारे में बोलते हुए कहा कि ‘लाल रंग भी उदास हो सकता है’। यह वाक्य बहुत चर्चित हुआ और उनकी कला पर जो फिल्म बनी उसका नाम भी यही रखा गया। इस संवाद में रामकुमार ने किसी भी कला के लिए पूरी शक्ति लगाने की बात कही है, जिसे साहित्य और कला के क्षेत्र में काम करनेवाले हर व्यक्ति को समझना चाहिए। ‘मेरे विचार में होना यह चाहिए कि एक उम्र के बाद दूसरी उलझनों से बाहर निकलकर एक कलाकार को अपनी पूरी शक्ति और समय केवल अपने काम में ही लगाना चाहिए। इसलिए नहीं कि उसे अधिक प्रसिद्धि या धन या सम्मान और पुरस्कारों की जरूरत है- क्योंकि ये तो उसके काम के गिरते हुए स्तर के बावजूद उसे मिल जाएंगे- बल्कि इसलिए कि केवल अपने लिए, अनुभवों के आधार पर वह उस कला की रचना करे, जिसकी सामर्थ्य उसमें है। एक जगह जाकर सब संघर्ष समाप्त हो जाते हैं और केवल एक ही सबसे बड़ा संघर्ष शुरू हो जाता है और वह होता है केवल अपने आप से, जब कलाकार सब सीमाओं को तोड़कर नए आयामों की नींव डालता है। यह बात यूरोप और अमेरिका में आमतौर से देखी जा सकती है। हमारे यहां इससे ठीक उल्टा ही हो रहा है।‘ (पृ.-87)
तीसरे खंड में वाराणसी से संबंधित रामकुमार के दो आलेख दिए गए हैं। पहला– वाराणसी : एक यात्रा, दूसरा- वाराणसी और मेरे चित्र। रामकुमार पहली बार हुसेन और श्रीपतराय के साथ वाराणसी आए और श्रीपतराय के गोदौलिया स्थित घर पर रुके। शाम को पहुंचे थे, ‘वह सर्दियों की एक शाम थी। खाली-खाली सी सड़कें, सड़कों पर लगी धुंधली बत्तियां, गलियों में भूंकते हुए लावारिस कुत्ते– पहला अनुभव बहुत निराशाजनक रहा’। लेकिन जब उन्होंने सुबह-ए-बनारस देखा तो, ‘पहला परिचय ही इतना वशीभूत करनेवाला, बहुत दबाव से भरा, विस्मयकारी था कि उसे समझने के लिए कम से कम कुछ दिनों का समय जरूरी था, लेकिन जिस स्केचबुक को साथ लाए थे, उसके पन्नों पर अपने प्रभावों को चित्रित करने की चिंता भी थी। अकेले घाटों का चक्कर लगाते समय कितनी ही पुरानी स्मृतियां मन को घेरने लगती थीं। शिमला में, स्कूल में पढ़े गए शरत के उपन्यासों में कई बार ‘काशीवास’ का जिक्र पढ़ा था, जिसकी अमिट छाप अब भी बनी हुई थी, सत्यजित राय की फिल्म ‘अपराजित’ में वाराणसी में घटी दुर्घटनाएं और अब वाराणसी सामने था, गंगा का तट, घाटों की सीढ़ियां, जो भीतर शहर की अंधेरी सुरंगों में खो जाती थीं, सर्दियों की उजली धूप और अँधेरे में घूमती परछाइयां। कुछ रेखाएं खींचकर वाराणसी की एक झलक उभारने की असफल कोशिशें करता रहा, जो दिखाई दे रहा था, उसकी छाप मन पर भी बनाने की कोशिश की।’ (पृ.98)
इस तरह पहली ही बार में बनारस उनके मन में ऐसा धँस गया कि वे बार-बार बनारस आए, जब अवसर मिला तब आए। बनारस ने उनके चित्रों में नए रंग भरे। उन्होंने ‘बनारस श्रृंखला’ के तहत चित्र बनाए, जिसकी आभा पूरी दुनिया में फैली। बनारस के अनुभव के बारे में वे कहते हैं : ‘वाराणसी के अनुभव भी कहीं बहुत गहरे थे। घाटों पर घूमते हुए लोगों की भीड़ में कुछ चेहरे सदा के लिए अंकित हो गए। सफेद दीवारों पर बनी काली खिड़कियां, ऊपर से नीचे तक बनी हुई सीढ़ियां, जिनके रहस्य का आभास पहली बार ही हुआ। प्रकाश और छाया के बीच खिंची एक स्पष्ट रेखा। वे सब अनुभव स्पष्ट रूप में अपनी छाप छोड़ गए, जिनसे शायद अभी तक पूर्ण रूप से अपने चित्रों को मुक्ति नहीं दिला सका हूं’। (पृ 83)
चौथे खंड में रामकुमार के चित्रों के प्रभाव में लिखी गई श्रीकांत वर्मा, राजेश जोशी, गगन गिल और नवीन सागर की कविताएं हैं। श्रीकांत वर्मा लिखते हैं- ‘छायाएं/ न हिलती, न डुलतीं, न मिलतीं/ एक दूसरे की उदासी में घुलतीं/ केवल/ खड़ी हैं।’ दूसरी कविता में सिर्फ एक पंक्ति ‘स्याही के धब्बे सोचते खड़े हैं’। राजेश जोशी की कविता है ‘रामकुमार का लैंडस्केप’। वह कहते हैं, भटकते हुए अचानक मैं रामकुमार के एक लैंडस्केप में चला आया/ मुझे क्या मालूम था कि इसके हल्के और धूसर रंग/ कुत्ते जैसी कच्ची नींद में सोये हैं/ मेरे पैरों की हल्की आवाज से ही सारे रंग जग गए/ और इधर–उधर बहने लगे’। गगन गिल को रामकुमार के टखने में एक नन्हीं सी पृथ्वी घूमती हुई लगती है। आगे वह कहती हैं ‘तुम्हें नहीं मालूम/ कि कभी–कभी तुमसे छिपकर/ तुम्हारे चित्रों के बादल/ और पहाड़/ आते हैं टहलने/ तुम्हारे टखने वाली पृथ्वी पर’। नवीन सागर रामकुमार के लैंडस्केप में ही रहना चाहते हैं- ‘लैंडस्केप बहुत अपने और भीतर/ चला जाता है कितने भीतर जाने के बाद/ रुकने के असंभव संयोग में/ कहां होता हूं/ वहां भूलकर रह जाता हूँ संसार।’
पांचवे खंड में रामकुमार के कहानी संग्रह ‘एक लंबा रास्ता’ पर प्रयाग शुक्ल की टिप्पणी के साथ ही रामकुमार की एक लंबी कहानी ‘शिलालेख’ प्रस्तुत है। अपनी टिप्पणी में प्रयाग शुक्ल कहानीकार रामकुमार की विशेषताओं को रेखांकित करते हैं। वास्तविकता यह है कि कई कहानी संग्रहों के बावजूद चित्रकार रामकुमार के बरक्स कहानीकार रामकुमार को कम याद किया जाता है, जबकि एक समय उनकी कहानियों ने नगरीय जीवन की विडंबनाओं और संबंधों की त्रासदी को बिल्कुल नए रूप-रंग में प्रस्तुत किया था। इस पुस्तक में दी गई कहानी ‘शिलालेख’ भी स्त्री-पुरुष संबंधों के एक बिल्कुल नए संसार में ले जाती है और इतनी मंधर गति से,धीरे-धीरे बिना चौंकाए, ठंडेपन से कि पाठक अंत में विस्मित हो जाता है, चिंतन और विचार के भंवर में फंस जाता है।
यह किताब रामकुमार के चित्रों के बारे में, उनकी सृजन प्रक्रिया के बारे में, उनकी चिंतन प्रक्रिया के बारे में, उनके जीवन के बारे में, उनके कथालेखन के बारे में जानने-समझने के दरवाजे खोलती है। समझने की प्रक्रिया पर भी हमारा ध्यान जाता है, ‘रामकुमार की कला की बात शब्दों में दूसरों तक पहुंचाना कुछ इसलिए मुश्किल है कि उनमें भाव और भावनाएं, कुछ इस तरह समाहित हैं कि उनकी अंतर्ध्वनियां एकदम से, सतह पर आकर प्रकट नहीं होती हैं- या अपने को तत्काल नहीं ‘सुना’ देतीं। धीरे-धीरे, प्रेम से, अपने किन्हीं भी आग्रहों को पीछे रखकर जब आप उनके चित्रों को देखने लगते हैं, ‘सुनने’ लगते हैं तो जरूर कानों में किसी बोध की तरह बजने लगती हैं।’
दर्शकों के लिए प्रयाग शुक्ल ने एक ध्यान देने की बात कहीं है, उसी के साथ अपनी बात को समाप्त करता हूं- ‘लेकिन जाहिर है कि चित्र अपनी प्रत्यक्ष या कुछ अमूर्त छवियों, रंगाकारों आदि तक ही सीमित नहीं होते, वे सब तो एक संकेत मात्र होते हैं- अपने विवरणों में। उसके आगे तो फिर उन्हें ‘बोध’ और ‘अनुभव’ से अपने लिए खोलना पड़ता है- सबको अपनी तरफ से, उनको भी, जो कलाकार से प्रत्यक्ष रुप से, आमने सामने होकर आत्मीय ढंग से परिचित होते हैं, और उनको भी जो कलाकार को बस उसके नाम काम से दूर से जानते हैं। (पृ.18)
पुस्तक : रामकुमार की कला कथा; लेखक : प्रयाग शुक्ल; संपा. अभिषेक कश्यप; प्रकाशक : इंडिया टेलिंग, धनबाद, झारखंड, संपर्क नं. 8986663523, 8340441712; ईमेल : [email protected] मूल्य: रु. 300.00 मात्र।