— अरुण कुमार त्रिपाठी —
दिल्ली स्थित ‘गांधी दर्शन और स्मृति’ नामक संस्थान ने अपनी पत्रिका ‘अंतिम जन’ का सावरकर विशेषांक निकाला है। एक तरफ इसका चारों ओर यह कहते हुए प्रचार किया जा रहा है कि इतिहास में गांधी से कम नहीं हैं सावरकर तो दूसरी ओर तमाम गांधीवादी संगठन इस प्रयास की निंदा कर रहे हैं। पत्रिका निकालने वालों का कहना है कि आजादी के अमृत महोत्सव के मौके पर स्वाधीनता संघर्ष में सावरकर के योगदान की चर्चा करते हुए विशेषांक निकालना लाजिमी है। दूसरी ओर गांधीवादियों का कहना है कि यह गांधी की विरासत को नष्ट करने का प्रयास है।
इसलिए यह समझना बहुत जरूरी है कि मोहनदास करमचंद गांधी यानी महात्मा गांधी की विरासत क्या है और विनायक दामोदर सावरकर यानी स्वातंत्र्य वीर सावरकर की विरासत क्या है? साथ ही यह भी जानना जरूरी है कि आज का समाज दोनों को कैसे देखता है? आज के समाज या भारत के मध्यवर्ग की मानसिकता तेजी से गांधी विरोधी हो रही है और वह सावरकर के पक्ष में झुक रही है। इसी भावना पर सवार होकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी नए किस्म का हिंदू तैयार कर रही है और उसके भीतर अपना जनाधार बढ़ाते हुए सत्ता पर लंबे समय तक काबिज रहने की योजना बना रही है। मध्यवर्ग के तमाम लोग यह कहते हुए मिल जाएंगे कि आज अगर गांधी होते तो नाथूराम गोडसे की बजाय वे ही गांधी को गोली मार देते। वे लोग यह कहते हुए भी नहीं चूकते कि सावरकर का द्विराष्ट्र सिद्धांत ही सही था।
ऐसे में यह बता देना जरूरी है कि महात्मा गांधी अभय थे और सावरकर भय से ग्रसित। अभय का अर्थ वही नहीं होता जो स्वयं किसी से न डरे बल्कि वह होता है जो दूसरों को भी न डराए। ऐसे में गांधी न तो गोली मारनेवाले से डरनेवाले थे और न ही उन्हें ताकतवर राज्य से किसी तरह का भय था।
बल्कि गांधी तो अपने जीवन के आखिरी दिनों में गोली मारनेवाले को ढूंढ़ते हुए उसके पीछे पीछे घूम रहे थे। गांधी के जीवन के आखिरी दिन `तीसरी मंजिल’ फिल्म के उस गाने की याद दिलाते हैं कि `दीवाना मुझ सा नहीं इस अंबर के नीचे, कातिल मेरे आगे है और मैं उसके पीछे पीछे।’ लेकिन गांधी से भयभीत था आधुनिक राष्ट्र-राज्य। हिंसा और छल कपट पर टिकी यूरोप से आयातित यह संस्था गांधी की नैतिकता को झेल नहीं पा रही थी। गांधी ने अनशन करके न सिर्फ हिंदू मुस्लिम दंगों को शांत कराया बल्कि भारत से पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए भी दिलवाए। गांधी की इस ‘नैतिक सनक’ को सरकार में बैठे तमाम लोग बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे। वे गांधी को बड़ा खतरा मानते थे इसलिए उनसे छुटकारा पाना चाहते थे। इसीलिए गांधी की हत्या की आशंका साफ साफ सामने देखकर भी उसे रोकने का इंतजाम करने में ढिलाई की गई। गांधी अपनी हत्या की आशंका स्वयं देख रहे थे और इस बात को लगभग महीने भर पहले बम फेंकनेवाले मदनलाल पाहवा ने पुलिस की पूछताछ में बता भी दिया था।
फिर भी गांधी ने कहा था कि मैं चाहता हूं कि जब मुझे गोली लगे तो मेरे चेहरे पर हत्यारे के प्रति किसी प्रकार की कटुता का भाव न हो और मेरे मुख से राम निकले। गांधी ने अपने पूरे राजनीतिक जीवन में न तो किसी के पीछे से वार किया और न ही स्वयं पीछे से वार झेला। उन्होंने अंग्रेजी साम्राज्य को चुनौती देकर और बताकर सारे आंदोलन किए और बाद में अपने सीने पर तीन गोलियां खाकर दम तोड़ा। गांधी ने अपने किसी भी ‘अपराध’ से बचने की कोशिश नहीं की। वे सत्य पर डटे रहे और कभी झूठ नहीं बोला। उन्होंने जीवन में जो भी `अपराध’ किए उसका बचाव करने की कोशिश नहीं की। इनमें उन पर 1922 में लगा राजद्रोह का आरोप भी है जिसे उन्होंने खुलकर स्वीकार किया, कोई बचाव नहीं किया और छह साल की सजा पायी। क्योंकि वे जानते थे कि वैसा करना जायज है। वीरता और अभय होने की यही निशानी है।
इसके ठीक विपरीत सावरकर हत्या के तीन मामलों में लिप्त होते हुए भी अपने को बचाते और झूठ बोलते रहे। पहली बार उन्होंने लंदन में अंग्रेज अधिकारी विलियम हट कर्जन वाइली की हत्या के लिए मदनलाल धींगरा को उकसाया और उन्हें फांसी पर चढ़ जाने दिया लेकिन उसमें अपनी लिप्तता होने को स्वीकार नहीं किया। दूसरी बार उन पर लंदन के इंडिया आफिस में क्रांतिकारी समूहों में लिप्त होने और नासिक के कलेक्टर जैक्सन की हत्या की साजिश का आरोप लगा। इन अपराधों को स्वीकार करने की बजाय उन्होंने उसका असफल बचाव किया और दोहरे काले पानी की सजा यानी दोहरे आजीवन कारावास की सजा पायी। तीसरा और सबसे गंभीर आरोप महात्मा गांधी की हत्या का था। सावरकर इस हत्या के अभियुक्त बने और उनपर लाल किले के भीतर मुकदमा चलाया गया। उन्होंने न सिर्फ गांधी की हत्या में किसी प्रकार की लिप्तता से इनकार किया बल्कि नाथूराम गोडसे जैसे अपने प्रिय शिष्य को पहचानने से भी इनकार कर दिया।
गोपाल गोडसे के वकील पीएल इनामदार अपनी प्रसिद्ध पुस्तक `द स्टोरी आफ रेड फोर्ट ट्रायल 1948-49’ में साफ लिखते हैं कि इस पूरी सुनवाई के दौरान सावरकर बेहद भयभीत थे और स्वार्थी हो चले थे। वे इनामदार से पूछते थे कि क्या वे बरी हो जाएंगे। लेकिन उन्हें किसी अन्य अभियुक्त की चिंता नहीं थी। बल्कि उन्होंने नाथूराम गोडसे को पहचानने से इनकार कर दिया।
नाथूराम गोडसे जो उन्हें पूजता था, चाहता था कि कम से कम एक बार सावरकर उसे स्पर्श कर लें। लेकिन भयभीत सावरकर बेहद निष्ठुरता से अपने को बचाने में लगे थे। सावरकर का यह भय उस समय भी दीखा जब 1950 में नेहरू लियाकत अली का समझौता हुआ। उन्होंने वहां भी हलफनामा दिया कि वे इस मामले पर कोई राजनीतिक गतिविधि नहीं करेंगे।
सावरकर ने 1913 से 1920 तक लगातार माफीनामा लिखा और उसी के चलते 1921 में अंडमान निकोबार की सेल्यूलर जेल से छूटे लेकिन अगले तीन साल रत्नागिरि जेल में रहे। उसके बाद 1924 में उन्हें पूरी तरह से रिहा किया गया लेकिन उनकी राजनीतिक गतिविधियां प्रतिबंधित थीं। सावरकर ने 1923 में `हिंदुत्व’ का सिद्धांत लिखा जो कि हिंदूधर्म से एकदम अलग था। उसपर बंगाल के कैथोलिक विद्वान ब्रह्मबांधव उपाध्याय का गहरा प्रभाव था। कहते हैं रवींद्रनाथ टैगोर के गोरा, घरे बायरे और चार अध्याय जैसे उपन्यासों का नायक उसी उपाध्याय से प्रेरित है।
सावरकर एक नास्तिक व्यक्ति थे और उनकी नास्तिकता बौद्ध और जैन धर्म जैसी नहीं थी। अगर गांधी गोरक्षक थे तो सावरकर ऐसी किसी मान्यता को पसंद नहीं करते थे।
वे गांधी के अनशन और चरखे को भी बुरी तरह नापसंद करते थे। वे मानते थे गांधी हिंदू समाज को अहिंसक और नामर्द बना रहे हैं जबकि आज जरूरत हिंदू समाज को हिंसक और क्रूर बनाने की है ताकि वह इतिहास में हुए मुस्लिमों के अत्याचार का बदला ले सके। इसीलिए उन्होंने पितृभूमि को पितृभू में बदल दिया। वास्तव में सावरकर भारत में यूरोपीय तर्ज पर कथित सेक्यूलर और हिंसक राज्य की स्थापना करना चाहते थे जिसकी मंजिल हिटलर और मुसोलिनी थे। यानी ऐसा राज्य जो दमन और हिंसा के माध्यम से एकताबद्ध हिंदू राष्ट्र तैयार करे जिसमें मुसलमान या तो रहें ना या फिर दोयम दर्जे के नागरिक बनकर रहें। क्योंकि उनका मानना था कि भारत में इस्लाम का समन्वय नहीं हो सकता।
हालांकि सावरकर जिन्ना के प्रति एकदम कटु नहीं थे और उनकी मुस्लिम लीग के साथ सिंध और बंगाल प्रांत में मिलकर सरकारें बनाई थीं। इसके ठीक विपरीत गांधी प्रादेशिक राष्ट्रीयता के हिमायती थे जिनका मानना था कि इस भूमि पर जो कोई रह रहा है वह इसका नागरिक है और राष्ट्र का हिस्सा है। गांधी एक सनातनी हिंदू और आस्तिक व्यक्ति थे इसलिए वे धर्मों की मूलभूत एकता को समझते थे और उसे राष्ट्र के निर्माण में कोई बाधा नहीं मानते थे। क्योंकि उनका राष्ट्र दुनिया के आगे धौंस जमाने के लिए नहीं बल्कि दुनिया को नया रास्ता दिखाने और उसे अभय बनाने के लिए था।
मैजिनी से प्रभावित सावरकर का अभीष्ट यूरोप था और वे चाहते थे कि बाकी दुनिया भी यूरोपीय इतिहास से गुजरे। जबकि गांधी के लिए यूरोप का अभीष्ट भी भारतीय सभ्यता थी और वे ऐसे किसी ऐतिहासिक पथ को अपनी नियति नहीं मानते थे। सावरकर राष्ट्र और उसकी व्यवस्था के निर्माण के लिए व्यग्र थे जबकि गांधी व्यक्ति निर्माण और स्वराज पाने के लिए। इसीलिए गांधी अभय थे और सावरकर भयभीत। आज का देश एक भयभीत देश बन रहा है। देखना है कि समाज इसे अभय बनाएगा या भयाक्रांत करेगा। इसी से तय होगा कि हम गांधी के देश में रहेंगे या सावरकर के।
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