झारखंड के आदिवासी-मूलवासी वन अधिकार से वंचित और वन विभाग के आतंक से परेशान

0

22 जुलाई। 21 जुलाई को झारखंड जनाधिकार महासभा (महासभा) ने अपने साथी संगठनों के साथ सत्य भारती, रांची में एक प्रेस वार्ता का आयोजन किया। महासभा करीब 40 जनसंगठनों और कई सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक मंच है जिसका मुख्य उद्देश्य है राज्य में जन अधिकारों और लोकतंत्र पर हो रहे हमलों के विरुद्ध संघर्षों को संगठित और सुदृढ़ करना। जनता के अधिकारों और लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों पर हो रहे लगातार हमले जैसे भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव, भूख से हो रही मौतें, भीड़ द्वारा लोगों की हत्या, सामाजिक कार्यकर्ताओं की प्रताड़ना, सरकार द्वारा प्रायोजित सांप्रदायिकता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुठाराघात आदि की तेजी से बढ़ती घटनाएं 2018 में महासभा के गठन का कारण बनीं।

प्रेस कॉन्फ्रेंस में वनाधिकार मंच से जॉर्ज मोनीपल्ली, आदिवासी विमेंस नेटवर्क से एलिना हाेरो, लातेहार से दो पीड़ित विशेष राणा और कुंदन भुइयां, और खूंटी से फिलिप बारला ने प्रेस वार्ता में कहा कि मुख्यमंत्री के वादों के बावजूद वनाधिकार कानूनों का अनुपालन नहीं हो रहा। झारखंड के आदिवासी-मूलवासी वन अधिकार से वंचित हैं और वन विभाग के आतंक से परेशान हैं।

सत्तारूढ़ दल झामुमो और कांग्रेस ने अपने घोषणापत्रों में वन अधिकार कानून को सही से लागू करने एवं जंगल में रहनेवाले आदिवासी-मूलवासियों को वन पट्टा देने व जंगल पर पूर्ण अधिकार देने का वादा किया था। मुख्यमंत्री ने सरकार बनने के पूर्व और उसके बाद भी कई बार इस विषय में घोषणा की है। लेकिन ज़मीनी स्थिति इन वादों के विपरीत है।

अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 के अंतर्गत वन आश्रित समुदायों के कई अधिकार हैं। उनमें से एक अधिकार है कि जो वन आश्रित लोग 13 दिसंबर 2005 के पहले से वन भूमि पर स्वयं खेती करते रहे हैं और अपनी आजीविका के लिए वनों पर निर्भर हैं, वे उस जमीन (अधिकतम 4 हेक्टेयर) पर मालिकाना अधिकार के लिए पात्र होंगे।

2008 में जब से यह कानून लागू हुआ, वन विभाग लोगों को उनके अधिकार से वंचित करने की कोशिश करता रहा है। कानून के शुरुआती दिनों में विभाग द्वारा आदिवासी-मूलवासियों पर केस मुकदमा और वनरोपण के नाम पर वनभूमि से बेदखल करने के अनेक मामले थे। दुख की बात है कि अभी भी एक तरफ प्रशासन द्वारा आदिवासी-मूलवासियों को वन अधिकार से वंचित रखा जा रहा है और दूसरी ओर वन विभाग द्वारा आतंक मचाया जा रहा है।

हाल में दो मामले सामने आए हैं। लातेहार जिला के बरियातू प्रखंड के गडगोमा गाँव में 25 अन्य परम्परागत वन निवासी व्यक्तिगत वन पट्टों के लिए एवं गाँव समाज की ओर से सामुदायिक वन अधिकार के लिए 2015 में पूर्ण अभिलेख के साथ आवेदन की कानूनी प्रक्रिया को पूरा करके अनुमंडल स्तरीय वन अधिकार समिति को जमा किए थे। लेकिन आज तक न व्यक्तिगत पट्टा मिला और न सामुदायिक।

7 दिसम्बर 2021 को वन विभाग के कर्मी पट्टे के लिए आवेदन किए हुए ज़मीन पर वन रोपण करने पहुंच गए। लोगों द्वारा विरोध करने पर उन्होंने धमकी दी कि केस दर्ज कर जेल भेज देंगे। 2022 में वन विभाग द्वारा जमीनों पर पिट कोड़ना शुरू किया गया। 11 फरवरी 2022 को गाँव की महिलाओं ने कुछ गड्ढों में मिट्टी भर दी।‌ उसी दिन शाम को वन विभाग के अधिकारियों ने पुलिस बल के साथ आकर गाँव के दो युवा पुरुषों – दिनेश राणा, (पिता-प्रवेश राणा) और रंजन राणा, (पिता-अमेरिका राणा) को पकड़ लिया। जब उन्हें थाना से अनुरोध कर छुड़ाने के लिए ग्रामीण पुलिस पिक्केट बरियातू पहुंचे, तो वन विभाग के कर्मियों द्वारा उनके साथ धक्का-मुक्की की गयी। पिट भरने और सरकारी काम में बाधा डालने के आरोप में दोनों युवा व उनके पिताओं पर मामला दर्ज कर दिया गया। युवाओं को जेल भेज दिया गया। वन विभाग द्वारा प्राथमिकी में पिताओं को फरार घोषित कर दिया गया जबकि दोनों थाने में ही उपस्थित थे और उनके साथ बल प्रयोग (धक्का-मुक्की) किया गया। दोनों निर्दोष युवा एक महीने तक जेल में रहे। अब उनके पिताओं को डर है कि पुलिस उन्हें भी पकड़कर ले जाएगी।

वन अधिकार कानून की धारा 4(5) में स्पष्ट उल्लेख है कि “जैसा अन्यथा उपबंधित है, उसके सिवाय किसी वन में रहनेवाली अनुसूचित जनजाति या अन्य परंपरागत वन निवासियों का कोई सदस्य उसके अधिभोगाधीन वन भूमि से तब तक बेदखल नहीं किया जाएगा या हटाया जाएगा जब तक कि मान्यता और सत्यापन प्रक्रिया पूरी नहीं होती है।” यह स्पष्ट है कि वन विभाग खुलेआम कानून का उल्लंघन कर रहा है।

ऐसी ही स्थिति मनिका प्रखंड के बेयांग गाँव की भी है। 40 अन्य परंपरागत वन अधिकार दावेदारों ने 2018 में व्यक्तिगत पट्टे के लिए और सामुदायिक अधिकार के लिए 2021 में दावा जमा किया था। लेकिन अभी तक उन्हें वन पट्टा नहीं मिला।

दिसम्बर 2021 में विभाग ने उन जमीनों पर वनरोपण की तैयारी शुरू कर दी। 4 जनवरी 2022 को ग्रामीणों ने वन प्रमंडल पदाधिकारी (सामाजिक वानिकी) लातेहार को लिखित शिकायत दी कि बिना ग्राम सभा की अनुमति के वनरोपण किया जा रहा है। साथ ही, उनके पारंपरिक कब्ज़े वाली भूमि पर रोपण नहीं करने का अनुरोध किया। कोई सुनवाई नहीं होने पर ग्रामीणों ने दो बार DFO के पास जाकर अनुरोध किया। आश्वासन तो मिला लेकिन गाँव में काम चलते रहा।

अंत में अनुसूचित जाति के एक दावेदार कुंदन कु. भुइयां ने अनुसूचित जाति जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 की सुसंगत धाराओं और IPC की धारा 166 के अंतर्गत वन प्रमंडल पदाधिकारी, अन्य वन पदाधिकारी और गाँव के कुछ दलालों के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज करने के लिए स्थानीय थाने में आवेदन दिया। थाना इंचार्ज ने आवेदन स्वीकार नहीं किया। 20 जनवरी 2022 को आवेदन को पंजीकृत डाक द्वारा थाना को भेजा गया एवं स्थानीय विधायक के दबाव के बाद 23 जनवरी को आवेदन स्वीकार किया गया। इससे संबंधित पुलिस अधीक्षक को भी शिकायत की गयी लेकिन आज तक प्राथमिकी दर्ज नहीं की गयी है।

ऐसे मामले लातेहार जिला के बालुमाथ प्रखंड के शांति गाँव, गुमला के कोयनजारा व चटकपुर, गढ़वा के रमना प्रखंड के बनखेता व सपाही, धुरकी प्रखंड के बिशुनिया, भंडरिया प्रखंड के रामर, महुगाई आदि में भी है। ये केवल चंद उदहारण मात्र हैं जो राज्य में वन अधिकार कानून एवं वनों पर निर्भर आदिवासी-मूलवासियों की स्थिति को दर्शाते हैं। राज्य में लाखों व्यक्तिगत वन अधिकार दावे एवं हजारों एकड़ के सामुदायिक दावे लंबित हैं। मुख्यमंत्री के वादे और प्रशासन-वन विभाग की कार्रवाई  के बीच एक बड़ी खाई दिख रही है।

झारखंड जनाधिकार महासभा राज्य सरकार से निम्न मांग करती है :

●      आदिवासी-मूलवासियों की कब्ज़े वाले वनभूमि पर वनरोपण के नाम पर लोगों को बेदखल करना बंद किया जाए।

●      लंबित वन अधिकार दावों को अविलम्ब निपटाया जाए और वन अधिकार पत्र निर्गत किए जाएं।

●     निर्दोष लोगों पर वन विभाग द्वारा दर्ज सभी केस वापस लिये जाएं। आदिवासी-मूलवासियों के वन अधिकारों व मानवाधिकार के उल्लंघन के जिम्मेवार वन विभाग के दोषी अधिकारियों के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई की जाए।

●     वन अधिकारों को निहित करने की प्रक्रिया में वन विभाग के अधिकारियों की गैरकानूनी दखलंदाजी को बंद किया जाए।

Leave a Comment