— योगेन्द्र यादव —
बात 2017 की है। हम कर्नाटक विधानसभा चुनाव के प्रचार-अभियान से लौट रहे थे। अपनी पार्टी के एक उम्मीदवार से नाखुश और उसपर दी गई सफाई से कुढ़ा बैठा था। मैं उनकी तरफ मुड़ा : “देवानूर सार (ऐसे बोलने पर अंग्रेजी का ‘सर’ कन्नड़ भाषा के संबोधन में बदल जाता है) मामला है क्या? आपको छुपाव-दिखाव की जरूरत नहीं है। अब आप खुलकर सच बोल सकते हैं।” वे कार की अगली सीट पर बैठे थे, उन्होंने गर्दन घुमाई और मुझे भरपूर नजरों से देखते हुए कहा : ‘मैं हमेशा सच बोलता हूं।’ मुझे उनकी बाकी बातें याद नहीं लेकिन उनकी यह बात अभी तक याद रह गई है। यह जुमला नहीं था। ना ही गर्वोक्ति। न ही कोई फटकार थी। वे एक सहज सी बात कह रहे थे : मैं सच बोलता हूं। ठीक वैसे ही जैसे कोई बोले : मैं तड़के उठता हूं।
तो ये हैं हमारे और आपके देवानूर महादेव! कन्नड़ के सुप्रसिद्ध साहित्यकार, एक कद्दावर जन-बुद्धिजीवी और कर्नाटक के सर्वमान्य राजनीतिक कार्यकर्ता! इतने संकोची और गुमनामी पसंद कि आप भी सोचेंगे कि आखिर ये आदमी सार्वजनिक जीवन में है ही क्यों। आप मंच पर नजर घुमाकर देखेंगे कि अभी तो यहीं थे, आखिर वे गए कहां। फिर कोई इशारा करेगा कि कहीं सिगरेट पीने निकले होंगे। देर इतनी लगाएंगे कि मुझ जैसे लेट-लतीफ को भी खीझ होने लगे।
देवानूर महादेव निराले हैं। थोड़े बेढब, हमेशा थोड़े अस्त-व्यस्त। लेकिन यह जतन से ओढ़ी हुई वैसी लापरवाही नहीं है जैसी कि किसी बोहेमियन कवि की होती है। बस उनके जीने की लय कुछ अलग सी है। उनकी प्राथमिकताएं उनकी मशहूरी की मजबूरियों से जरा हटकर हैं।
अरे, मैं यह बताना तो भूल ही गया कि वे दलित हैं। लेकिन ये सुनकर हड़बड़ी में उनपर दलित लेखक या दलित कार्यकर्ता का लेबल चिपकाने की भूल न कीजिएगा। शेखर गुप्ता की बाजार पर अगाध श्रद्धा के चलते हम उन्हें बनिया बुद्धिजीवी तो नहीं कहते ना! आरक्षण और जाति-गणना पर अपने कड़े रुख के बावजूद मुझे ओबीसी बुद्धिजीवी तो नहीं कहा जाता (कम से कम ऐसी आशा रखता हूं)। इसी तरह देवानूर महादेव को दलित बुद्धिजीवी कहने से हमें उनके बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं चलता सिवाय उनकी सामाजिक जड़ों के, उनके रचना संसार के सामाजिक परिवेश के या फिर उनकी सांस्कृतिक खाद-पानी के स्रोत के। देवानूर महादेव अधिकांश दलित कार्यकर्ताओं से अलग हैं। चूंकि उन्हें एंग्री दलित का रोल मंजूर नहीं है। ना ही उन्हें मानवता के एक टुकड़े की चिंता में बंद रहना मंजूर है। उन्हें सच्चाई चाहिए, पूरी सच्चाई! इससे कम कुछ भी नहीं।
इस राह पर चलते हुए उन्होंने बौद्धिक जगत की युगों पुरानी और हमारे आज के समय तक जारी श्रम-विभाजन की स्थापित परिपाटी को तोड़ा है। इस परिपाटी में अवर्ण यानी आधुनिक दलित और ओबीसी के बारे में यह मानकर चला जाता है कि वे महज अपने स्वार्थ की वकालत करेंगे, उनके पास सच का एक टुकड़ा भर होगा। इसके उलट ब्राह्मणों से उम्मीद की जाती है कि वे सत्य के निष्पक्ष पैरोकार और वक्ता बनेंगे। अपने जन्म के संयोग से ऊपर उठकर शूद्रों समेत सबके दर्द को देख और समझ सकने की नैतिक जिम्मेदारी उनके कंधों पर है। देवानूर महादेव को बौद्धिक भूमिकाओं के ऐसे कठघरे में अंटा पाना नामुमकिन है। उनकी लेखनी सबके दुखों को जुबान देती है, अपने लेखन में आनेवाले अगड़ी जाति के किरदार को भी। उनकी राजनीति अपनी बांहों में समूची मानवता को समेटती है। मानवता ही क्यों, पूरी प्रकृति को अपनी चिंता और चिंतन के दायरे में लाती है।
महादेव की आरएसएस की ‘सच्ची’ आलोचना
इन दिनों देवानूर महादेव सुर्खियों में हैं। कन्नड़ के साहित्य-समाज में तो वे किसी परिचय के मुहताज नहीं रहे हैं। इस बार देवानूर महादेव की प्रसिद्धि की धमक दिल्ली के ‘राष्ट्रीय’ मीडिया तक पहुंची है, हिंदी के अखबारों तक भी। उनकी छोटी सी कुल 64 पन्नों की पुस्तिका खूब चर्चा में है।
अपने प्रकाशन के पहले ही महीने में ‘आरएसएस : आला मट्टू अगला’ (आरएसएस : इसकी गहराई और चौड़ाई) की एक लाख से ज्यादा प्रतियां बिक गईं। इसका अंग्रेजी, तेलुगु, तमिल, मलयालम और हिंदी अनुवाद (उम्मीद करें) भी छपने वाला है। (एक खुलासा : मैं इस किताब के हिंदी संस्करण के काम में लगा हूं।) देवानूर महादेव विकेंद्रीकरण में विश्वास करते हैं। इसलिए उन्होंने इस किताब के प्रकाशन के लिए ‘ओपन सोर्स पब्लिकेशन’ का तरीका चुना है। कन्नड़ भाषा के कई प्रकाशकों को इस किताब के प्रकाशन की मंजूरी मिली ताकि वे एक ही साथ किताब को छाप सकें। इस किताब (आरएसएस : आला मट्टू अगला) की अपनी-अपनी प्रति छपवाने के लिए छात्रों और गृहणियों ने पैसे जोड़े हैं।लेखक को पुस्तक की रॉयल्टी नहीं चाहिए।
इस किताब को तुरंत मिली प्रसिद्धि की क्या वजह हैं? मैंने उत्तर जानने के लिए अपने मित्र चंदन गौड़ा से पूछा। वे समाजशास्त्री हैं। कर्नाटक के सांस्कृतिक इतिहास के गहरे अध्येता हैं, खासकर उस धारा के जिसके एक प्रतिनिधि देवानूर महादेव हैं। गौड़ा ने बताया कि किताब के प्रकाशन का समय बहुत अहम है। इस वक्त कर्नाटक के पूरे माहौल में साम्प्रदायिकता का जहर घुल गया है। किताब का विषय भी महत्त्वपूर्ण है : बड़े कम लेखक आरएसएस से सीधी मुठभेड़ को तैयार हैं। यहां तक कि बीजेपी के प्रगतिशील आलोचक तक आरएसएस से सीधा सामना करने से कतरा रहे हैं। एक तरह से चारों ओर चुप्पी का माहौल है। इसी कारण आरएसएस से सीधी भिड़ंत करती इस पुस्तक ने लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचा है।
इस किताब की प्रसिद्धि के पीछे सबसे बड़ी बात उसके लेखक का व्यक्तित्व है, गौड़ा ने मुझे याद दिलाया प्रत्येक कन्नड़भाषी जानता है कि देवानूर महादेव अपने मन-कर्म-वचन के सच्चे हैं। हर कोई जानता है कि उन्होंने 2010 में प्रतिष्ठित नृपतुंगा अवॉर्ड नकार दिया था। यह भी कि 1990 के दशक में उन्होंने राज्यसभा का अपना मनोनयन ठुकराया था। उन्होंने अपना पद्मश्री और साहित्य अकादेमी अवार्ड भी 2015 में वापस कर दिया। वे बहुत नहीं लिखते। उनका साहित्यिक लेखन बस कोई दो सौ पन्नों का है। उनके लेख बड़े छोटे होते हैं, भाषण तो और भी छोटे, सीधे-सपाट तरीके से पढ़ देते हैं। लेकिन कन्नड़ समाज उनके बोले और लिखे हरेक शब्द को ध्यान से सुनता और गुनता है। उनके शब्द बिकाऊ नहीं। आप उन्हें झुका नहीं सकते। आप उन्हें चिकनी-चुपड़ी बातों से बहला नहीं सकते। उनके आलोचक भी उन पर अंगुली नहीं उठाते।
लेकिन देवानूर महादेव का सच किसी इतिहासकार के प्रमाण या आंकड़ों के सच तक सीमित नहीं है। उनकी आरएसएस की आलोचना सेकुलरवादी मुहावरे से बंधी नहीं है। उनके मित्र अंग्रेजी और कन्नड़ साहित्य के अध्येता प्रोफेसर राजेन्द्र चेन्नी ने मुझे बताया कि देवानूर महादेव अपना सच लोककथाओं और जनश्रुतियों, मिथकों और रूपकों के सहारे बुनते हैं। इस तरह वे अधिकांश दलित साहित्य पर ‘यथार्थवाद’ की जकड़ तोड़ डालते हैं।
भारतीय सेकुलरवाद का नया मुहावरा
अपनी किताब (आरएसएस : आला मट्टू अगला) में दरअसल उन्होंने यही काम किया है। वैसे किताब का ज्यादातर हिस्सा नफरत की राजनीति की पोलपट्टी खोलने पर केंद्रित है।लेखक आर्य मूल से उत्पत्ति का मिथक, जातीय प्रभुत्व का छिपा हुआ एजेंडा, संविधान-प्रदत्त अधिकारों, संस्थाओं और संघवाद पर कुठाराघात और चंद पूंजीपतियों के हित में चल रही आर्थिक नीति का पर्दाफाश करते हैं। लेकिन देवानूर महादेव की इस किताब में ये बातें कथाओं के सहारे कही गई हैं। उन्होंने ‘नल्ले बा’ (आज नहीं, कल आना) नाम के टोटके का सहारा लिया है। आपने गौर किया होगा, गांवों में अक्सर लोगबाग किसी ऐसी बला को टालने के लिए जो आपके दरवाजे पर किसी परिजन के स्वर में दस्तक देती है, दीवारों पर कुछ लिख देते हैं, मानो वह भूत भगाने का मंत्र हो। (मुझे ‘नल्ले बा’ से मिलता-जुलता हिन्दी-प्रदेशों का एक चलन यहां याद रहा है। आपने देखा होगा उधार मांगनेवालों से बचने के लिए दुकानदार तख्ती पर लिखकर टांग देते हैं : आज नगद, कल उधार)। देवानूर महादेव की किताब जैसे मुनादी कर रही है कि राक्षस आ चुके हैं, वे हमारी सभ्यता को नष्ट करने पर तुले हैं। इन राक्षसों ने अपने प्राण सात समंदर पार बसी चिड़िया में छिपा रखा है (याद करें वह कथा जिसमें राजा के प्राण तोते में बसे थे)। किताब बताती है कि हमें अपने घरों पर `नल्ले बा` लिख रखना होगा, जैसा कि हमारे पूर्वज किया करते थे।
भारतीय सेकुलरवाद की निस्तेज और निष्प्राण हो चली राजनीति को देवानूर महादेव ने एक नया मुहावरा दिया है, नई गहराई दी है, नया विस्तार दिया है। उनकी किताब रचनात्मक लेखन और राजनीतिक लेखन के बीच की दीवार को तोड़ती है। ठीक उसी तरह जैसे उन्होंने अपनी उपन्यासिका कुसुमाबाले के जरिए गद्य और पद्य की दीवार को तोड़ा। वे प्रतिबद्ध साहित्यकारों से भी अलग हैं। वे अपनी रचनात्मक प्रतिभा का इस्तेमाल सच पर मसाला लगाने के लिए नहीं करते। उनका रचनात्मक लेखन सच की तलाश है।नफरत की राजनीति की काट के लिए वे राजनीतिक सिद्धांत या संविधानवादी शास्त्रीयता की भाषा का सहारा नहीं लेते हैं। वे लोगों से उनकी बोली-बानी में संवाद करते हैं। लोग जिन मिथकों और सांस्कृतिक स्मृतियों के सहारे जीवन जीते हैं, देवानूर महादेव उसी भाषा में लोगों से संवाद साधते हैं। सेकुलर राजनीति के लिए आज यही करना जरूरी है।
मैंने पहली बार देवानूर महादेव का नाम कोई तीन दशक पहले अपने स्वर्गीय मित्र डी.आर. नागराज से सुना था। कन्नड़ के दलित साहित्य की तुलना मराठी और हिंदी के दलित साहित्य से करते हुए उन्होंने उन दिनों मुझसे तनिक शरारत के अंदाज में कहा कि : ‘उनका लेखन साहित्य कम और दलित ज्यादा है, लेकिन हमारे यहां साहित्य पहले आता है, दलित बाद में।’ इस टिप्पणी में अर्थ की कितनी गहरी परतें छिपी हुई हैं, यह वक्त बीतने के साथ मेरे आगे खुलता चला गया। यह सब हुआ देवानूर महादेव से अपनी दोस्ती और राजनीतिक सहधर्मिता के कारण। मैं जान पाया कि `दलित` या `साहित्य` या इन दोनों का जोड़ (यानी दलित साहित्य) देवानूर महादेव की राजनीतिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक यात्रा को ठीक-ठीक अभिव्यक्त नहीं कर सकता।
आज भारत के लिए देवानूर महादेव की पुस्तक के इन शब्दों को पहले से कहीं ज्यादा ध्यान से पढ़ने-समझने की जरूरत है : ‘तोड़-फोड़ राक्षसी काम है, एकजुटता ईश्वरीय है।’
(द प्रिंट से साभार)