— प्रेम सिंह —
सरकारी संस्था ‘गांधी दर्शन एवं स्मृति’ की मासिक पत्रिका ‘अंतिम जन’ के सावरकर विशेषांक को लेकर कुछ गांधी-जन आक्रोश में हैं। साथ ही कुछ पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और पार्टी प्रवक्ताओं/नेताओं ने भी अपना विरोध प्रकट किया है। गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी का भी विशेषांक के विरोध में बयान आया है। ‘गांधी दर्शन एवं स्मृति’ गांधी के जीवन और विचारों से जुड़ी संस्था है। विरोधियों का मानना है कि इस संस्था द्वारा सावरकर पर विशेषांक निकालना मौजूदा सरकार के ‘हिंदुत्ववादी’ एजेंडे का हिस्सा है। वे कहते हैं कि ऐसा करके सरकार ने गांधी के दर्शन को विकृत करने और उनके कद को छोटा करने का प्रयास किया है।
गांधी भारत और विश्व के पटल पर अपने जीवन-काल में अपनी भूमिका और चिंतन के आधार पर स्वीकृत हुए थे। जीवन समाप्त हो जाने के बाद भी वे उसी आसन पर बने रहे हैं, तो उसका कारण उनकी भूमिका और विचार ही हैं।
दरअसल, गांधी का भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के निर्णयकारी दौर का नेतृत्व करना मानव सभ्यता के इतिहास में उनकी भूमिका का एक हिस्सा है। उनकी भूमिका और चिंतन समूची मानव सभ्यता के धरातल पर चरितार्थ होता है। तभी आइंस्टीन ने कहा था कि आनेवाली पीढ़ियों को बड़ी मुश्किल से यह भरोसा होगा कि हाड़-मांस से बना ऐसा कोई व्यक्ति भी धरती पर मौजूद रहा था। ध्यान दें कि गांधी को दुनिया के समस्त नेताओं में सबसे अधिक सूझ-बूझ रखनेवाला नेता माननेवाले महान वैज्ञानिक आइंस्टीन की गांधी से कभी व्यक्तिगत मुलाकात नहीं हुई थी।
मानव सभ्यता का इतिहास असत्य, हिंसा, घृणा, कपट, कायरता, षड्यंत्र, दुरभिसंधि, वैमनस्य, लालच जैसी प्रवृत्तियों का सिलसिला बनकर न रह जाए, इसलिए मानवता को गांधियों की जरूरत होती है–सत्य, अहिंसा और प्रेम को जीवन के केंद्र में बनाए रखने के लिए। अगर सीमित समझ के लोगों के प्रयासों से गांधी का दर्शन विकृत और कद छोटा होने लगे तो मानव सभ्यता के इतिहास में गांधी जैसों के होने की घटना ही निरर्थक हो जाती है।
जो लोग गांधी के चिंतन की विकृति और कद को छोटा करने के प्रयासों से चिंतित हैं, उन्हें ऐसा करनेवालों की समझदारी पर सवाल उठाने से पहले अपने को अच्छा गांधी की समझ वाला बनाना चाहिए। तब गांधी का होना कभी निरर्थक नहीं होगा। गांधी सामने वाले को अपना शत्रु नहीं मानते थे। भले वे अंग्रेजों का साथ देने और स्वतंत्रता आंदोलन का विरोध करनेवाले हों; या भारत पर आधिपत्य जमाने वाले खुद ब्रिटिश। क्योंकि उनके पास मानवता के लिए एक रचनात्मक कार्यभार था।
गांधी को किसी अन्य विभूति की तुलना में खड़ा करके छोटा बताने के प्रयास भारत में पहले भी होते रहे हैं। कोई उन्हें भगतसिंह से तौलता है, कोई आंबेडकर से, कोई जिन्ना से, कोई कार्ल मार्क्स से, कोई माओ से। इस सब के बावजूद गांधी वही रहते हैं, जो अपनी भूमिका और चिंतन के चलते हैं। यही स्थिति उन विभूतियों की है, जिनसे तुलना करके गांधी का कद कम करने की कोशिश की जाती है। मूल बात यह है कि गांधी की भूमिका और चिंतन को किसी भी सरकारी, पार्टीगत या व्यक्तिगत प्रयास से अनकिया नहीं किया जा सकता।
आधुनिक औद्योगिक सभ्यता हिंसा-प्रतिहिंसा और भोगवाद के विषाक्त चक्र में फंस चुकी है। पृथ्वी, समुद्र और अंतरिक्ष–सभी जगह मानव सभ्यता का संकट पसरा है। अतिशय भोग और भूख के बीच प्राणियों और वनस्पतियों की करोड़ों प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं। भारत खुद बुरी तरह इस सभ्यता की चपेट में है। गांधी को खुद, खासकर विभाजन की विभीषिका के बीच, लगा था कि उनके लाख प्रयासों के बावजूद प्रति-मानवीयता बाजी मार ले गई है। लेकिन मानवता में उनका विश्वास डिगा नहीं। उन्होंने स्वीकार किया कि “मैं जब भी निराश होता हूं, मैं याद करता हूं इतिहास में हमेशा सच और प्यार की जीत हुई है। अत्याचारी और हत्यारे हुए और कुछ वक़्त के लिए वो अजेय भी जान पड़े, लेकिन अंत में उनका ख़ात्मा हो ही गया…ये बात हमेशा याद रखिए।” गांधी की चिंता करनेवाले लोग गांधी को लेकर मानव सभ्यता के संकट का समाधान निकालने की सच्ची कोशिश करेंगे, तो गांधी के होने की सार्थकता मिथ्या आख्यानों के बावजूद बनी रहेगी।
यह जरूरी नहीं है कि गांधी की साधारण विराटता को सब समझ लें। लेकिन नहीं समझने वाले लोगों से खफा होने या लड़ने की जरूरत नहीं है। गांधी की जरूरत खुद नेहरू, पटेल और मौलाना को नहीं रह गई थी। लेकिन हम जानते हैं, तब भी गांधी की जरूरत रत्ती-भर कम नहीं हुई थी। उनकी हत्या नहीं हुई होती, तो वे अपनी भूमिका और चिंतन पर अडिग रहते हुए, भारत-पाकिस्तान की जनता के साथ रहते या आजाद भारत और पाकिस्तान की जेलों में!
समस्या यह नहीं है कि आरएसएस गांधी को विकृत करता है। समस्या गांधी के दावेदारों के साथ है। वे बता नहीं पाते कि उन्हें गांधी क्यों चाहिए? क्या आखिरी आदमी के लिए? लेकिन गांधी के आखिरी आदमी को पीछे धकेल कर वे ‘आम आदमी’ को लेकर आ चुके हैं। उनका नेता अपने दोनों तरफ भगतसिंह और आंबेडकर की तस्वीर लगा कर बैठता है। वह जानता है कि उसकी आदर्श पार्टी आरएसस/भाजपा एक दिन गांधी को नीचे गिरा देगी। लेकिन समझने की बात यह है कि उसके बावजूद गांधी का होना खत्म नहीं होगा। गांधी संस्थाओं और सरकारों पर निर्भर नहीं हैं।
भारत को एक शो-पीस गांधी की जरूरत क्यों पड़ी हुई है? गांधी शो-पीस होंगे तो अलग-अलग नेता और सरकारें उन्हें अपने ढंग से सजाएंगी और इस्तेमाल करेंगी। देश में भी, विदेश में भी। कांग्रेस यह काम बखूबी करती रही है। आप सक्रिय गांधी को अपनाइए। तब सावरकरों के पक्ष में या मुकाबले में उनका इस्तेमाल नहीं हो पाएगा। न ही कारपोरेट पूंजीवाद के पक्ष में। जब आप पिछले तीस सालों से ‘गांधी के सपनों का भारत’ बना रहे हैं, तो ‘अंतिम जन’ के विशेषांक से कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ा है!