— नंदकिशोर आचार्य —
तमाम नीतिगत मतभेदों और कहीं-कहीं कांग्रेस के अन्य कुछ नेताओं के प्रति नकारात्मक टिप्पणियों के बावजूद महात्मा गांधी के व्यक्तित्व के प्रति सुभाष बाबू के आदर में कोई कमी नहीं आई और वह इस बात के लिए दुख भी प्रकट करते हैं कि वह भारत के ‘महानतम व्यक्ति’ का विश्वास नहीं अर्जित कर सके। इसी तरह सारे विरोध के चलते हुए भी महात्मा गांधी सुभाष बाबू की बहादुरी और देशभक्ति के गहरे प्रशंसक बने रहे।
महात्मा गांधी के राजनीतिक जीवन की जिन कुछ घटनाओं को लेकर सामान्य लोगों में भारी गलतफहमी रही है, उनमें से एक प्रमुख घटना नेताजी सुभाषचंद्र बोस से उनके मतभेद और उनके द्वारा कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में नेताजी से सहयोग न करना है। इसी कारण सुभाष बाबू को कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देना पड़ा था। सामान्य बातचीत में अक्सर यह मत व्यक्त किया जाता है कि गांधीजी का सुभाष बाबू के प्रति यह रुख अन्यायपूर्ण था और उन्हें सुभाष बाबू के साथ सहयोग करना चाहिए था।
सामान्य तौर पर तो यह बात ठीक ही लगती है और ऐसा महसूस होता है कि संभवतः व्यक्तित्वों की टकराहट ने गांधीजी जैसे सत्ता-निरपेक्ष व्यक्ति को भी प्रभावित कर दिया और इसी कारण उन्होंने पट्टाभि सीतारमैया की हार को अपनी हार घोषित किया तथा कांग्रेस कार्यसमिति के गठन में सुभाष बाबू को सहयोग नहीं दिया। इसी का परिणाम यह हुआ कि अंततः सुभाष बाबू को कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देना पड़ा, क्योंकि कांग्रेस के त्रिपुरी अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया था कि सुभाष बाबू अपनी कार्यसमिति का गठन महात्मा गांधी की इच्छा के अनुसार करेंगे। लेकिन यदि घटनाओं का तथ्यात्मक विश्लेषण किया जाए तो तस्वीर का दूसरा पहलू उभरता है और ऐसा लगता है कि यह बुनियादी नीतिगत मतभेद था जिस पर सारे सद्प्रयत्नों के बावजूद दोनों नेता एकमत नहीं हो सके।
यह उल्लेखनीय है कि उन्नीस सौ अड़तीस में सुभाष बाबू सर्वसम्मति से कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए थे और इसमें गांधीजी का पूरा समर्थन उन्हें प्राप्त था। तब ऐसा क्या हुआ कि एक ही साल में यह आपसी विश्वास नष्ट हो गया और गांधीजी ने सुभाष बाबू के दुबारा कांग्रेस अध्यक्ष बनने के आग्रह को स्वीकार नहीं किया। वे मौलाना आजाद को कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में प्रस्तावित कर रहे थे। लेकिन जब सुभाष बाबू ने फिर भी चुनाव लड़ने की मंशा प्रकट की तो मौलाना ने अपने को चुनाव से अलग कर लिया और ऐसी स्थिति में गांधीजी के समर्थन से चुनाव लड़ने के बावजूद पट्टाभि सीतारमैया चुनाव हार गए। गांधीजी ने पट्टाभि की पराजय को अपनी पराजय बताया और इसी के परिणामस्वरूप प्रसिद्ध पंत प्रस्ताव कांग्रेस के त्रिपुरी अधिवेशन में पारित किया गया जिसमें कांग्रेस द्वारा महात्मा गांधी के नेतृत्व एवं नीतियों में पूर्ण आस्था प्रकट करते हुए सुभाष बाबू से कहा गया कि वह अपनी कार्यसमिति का गठन गांधीजी की राय के अनुसार करेंगे। लेकिन गांधीजी ने इस प्रस्ताव को पसंद नहीं किया। उनका कहना था कि सुबाष बाबू इस प्रस्ताव को अनुचित मानते हैं और केवल राजनीतिक कारणों से इसे मानने को बाध्य महसूस कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में कार्य समिति के गठन में उनका हस्तक्षेप अनैतिक और हिंसात्मक होगा। वह नहीं चाहते कि उनके कारण सुभाष बाबू आत्मदहन करने के लिए विवश हों। उन्होंने सुभाष बाबू को यही सलाह दी कि वह अपनी नीतियों के अनुसार कार्यसमिति का गठन करें और अपना कार्यक्रम कांग्रेस के समक्ष रखें। यदि कांग्रेस उस कार्यक्रम और उनकी कार्यसमिति को स्वीकार कर लेती है तो वह उसके मुताबिक कांग्रेस को चला सकते हैं और यदि कांग्रेस उनके प्रस्तावों को अस्वीकार कर देती है तो उन्हें अध्यक्ष पद से अलग हो जाना चाहिए। सुभाष बाबू यह भली भांति जानते थे कि कांग्रेस उनकी नीतियों और कार्यक्रम को गांधीजी के समर्थन के बिना स्वीकार नहीं करेगी। लेकिन, दूसरी तरफ वह अपने को किसी नीतिगत परिवर्तन के लिए सहमत नहीं पा रहे थे। इसीलिए उन्होंने त्यागपत्र देना ही बेहतर समझा क्योंकि अध्यक्ष का चुनाव जीत जाने के बावजूद वह कांग्रेस को अपने रास्ते पर नहीं ले जा सकते थे। अध्यक्ष का चुनाव तो वह सिर्फ इसलिए जीत पाए कि पट्टाभि का व्यक्तित्व उनके सामने बहुत छोटा था। लेकिन इसके बावजूद कांग्रेस गांधीजी की नीतियों को छोड़कर उनके रास्ते पर चलने के लिए तैयार नहीं थी।
यह नहीं मानना चाहिए कि सुभाष बाबू को कांग्रेस अध्यक्ष के पद से कोई मोह नहीं था। कोई भी पद उनके महान व्यक्तित्व से बहुत छोटा पड़ता था। लेकिन उन्होंने दुबारा अध्यक्ष इसलिए बनना चाहा कि वे कांग्रेस को उन लोगों से मुक्त करवा सकें जिन्हें वे ‘ओल्ड गार्ड्स’ और गांधीवादी कहते थे– और इन ‘ओल्ड गार्ड्स में मौलाना आजाद, सरदार पटेल, राजेंद्र बाबू, राजगोपालाचारी और कुछ अंशों में जवाहरलाल नेहरू भी सम्मिलित थे क्योंकि वे भी मोटे तौर पर गांधीजी के तरीकों से सहमत थे –तथा इसके बाद वह कांग्रेस और आजादी के संघर्ष को अपने दृष्टिकोण के अनुसार संचालित कर सकें।
उनकी इस इच्छा में कुछ भी अनैतिक नहीं था। गांधीजी की नीतियों से उनका मतभेद जगजाहिर था – यद्यपि तब भी वह गांधीजी को महानतम भारतीय कहते थे। लेकिन यदि वह अपनी विचारधारा और कार्यक्रम के अनुसार कांग्रेस और आजादी के संघर्ष को संचालित करना चाहते थे तो ऐसा चाहने का उन्हें पूरा अधिकार था। लेकिन क्या तब गांधीजी एवं अन्य कांग्रेसजन को भी यह अधिकार नहीं था कि वे सुभाष बाबू के कार्यक्रम से असहमति रख सकें और कांग्रेस को अपने रास्ते ले जाने के सुभाष बाबू के प्रयासों का विरोध कर सकें? मुद्दा सुभाष बाबू के अध्यक्ष पद पर रहने-न-रहने तक सीमित नहीं था। सुभाष बाबू चाहते थे कि सरकार को छह महीने का अल्टीमेटम देकर सीधा संघर्ष शुरू कर दिया जाना चाहिए, जबकि गांधीजी और कांग्रेस के अन्य सभी प्रमुख नेता उऩकी इस योजना से सहमत नहीं थे और कोई भी संघर्ष शुरू करने से पहले उसके लिए जनता को तैयार करना और उपयुक्त वातावरण बनाना आवश्यक समझते थे।
यह उल्लेखनीय है कि इन बातों को लेकर गांधीजी और सुभाष बाबू के बीच काफी बातचीत और लंबा पत्र-व्यवहार हुआ था, लेकिन दोनों के बीच बुनियादी मतभेद बराबर बने रहते थे। सुभाष बाबू का कहना था कि यदि कांग्रेस व गांधीजी उनकी योजना को स्वीकार कर लेते हैं, तो वह स्वेच्छा से अध्यक्ष पद छोड़ सकते हैं। उनके लिए सिद्धांत एवं नीतियां अधिक महत्वपूर्ण थीं। लेकिन यही बात दूसरी ओर भी थी। उनके सिद्धांनों एवं नीतियों को स्वीकार करना गांधीजी के लिए भी मुमकिन नहीं था। इस बुनियादी मतभेद के रहते सुभाष बाबू की अध्यक्षता में गांधीजी का कार्यसमिति के गठन में अपनी इच्छा थोपना न नैतिक दृष्टि से उचित था, न ही राजनीतिक दृष्टि से।
गांधीजी के साथ हुए पत्र-व्यवहार में सुभाष बाबू ने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि यदि कार्यसमिति के गठन में उनके प्रस्तावों को शामिल नहीं किया जाता है तो दोनों के रास्ते अलग हो जाने अवश्यंभावी हैं। इन पत्रों से यह ध्वनि भी निकलती है कि यदि उनके अपने प्रस्तावों को स्वीकार नहीं किया जाता है तो कांग्रेस में गृहयुद्ध की-सी स्थिति पैदा हो सकती है। गांधीजी का अहिंसक मन इस प्रकार के दबाव को स्वीकार नहीं कर सकता था। यदि वह ऐसी स्थिति में कार्यसमिति का गठन करते तो यह उनके मनोनुकूल न होता – जैसा कि पंत प्रस्ताव में कहा गया था जबकि, उसका सार्वजनिक संदेश यहीं होता कि कार्यसमिति गांधीजी की इच्छा के अनुसार गठित की गई है। सुभाष बाबू को हिंसक उपायों को अपनाने में भी कोई हिचक नहीं थी, जैसा कि बाद में प्रकट भी हुआ। लेकिन गांधीजी और कांग्रेस की घोषित नीति की इससे सहमति नहीं हो सकती थी।
यह भी उल्लेखनीय है कि अपने एक साल के अध्यक्षीय कार्यकाल के दौरान सुभाष बाबू ने कलकत्ता स्थित जर्मन कांसुलेट के माध्यम से हिटलर से संपर्क साधने तथा आजादी की लड़ाई में उसका समर्थन हासिल करने का प्रयत्न भी किया था, जिसकी कोई जानकारी उन्होंने कांग्रेस कार्यसमिति अथवा गांधीजी को दी थी। लेकिन यह जानकारी ब्रिटिश सरकार को थी और के.एम. मुंशी के माध्यम से गांधीजी को भी। उन्नीस सौ पैंतीस में वे हिटलर से मिले भी थे और उनका विश्वास था कि भारतीय विद्रोह की स्थिति में उन्हें जर्मनी का पूरा समर्थन मिलेगा। कुछ इतिहासकारों ने इन बातों की प्रामाणिकता पर संदेह प्रकट किया है, लेकिन आनेवाली घटनाएं इस संदेह का समर्थन नहीं करतीं।
एक देशभक्त के नाते सुभाष बाबू को यह अधिकार था कि वह अपनी नीति पर चलते, लेकिन यही अधिकार गांधीजी एवं सुभाष बाबू से असहमत कांग्रेस के सरदार पटेल, मौलाना आजाद और राजेंद्र बाबू जैसे नेताओं को भी था। यदि सुभाष बाबू का गांधीजी से सहमत होना आवश्यक नहीं था, तो गांधीजी के लिए यह क्यों आवश्यक समझा जाए कि असहमत होने के बावजूद उन्हें सुभाष बाबू की नीतियों से सहयोग करना चाहिए था? क्या यही मांग स्वयं सुभाष बाबू से नहीं की जानी चाहिए – खासतौर पर तब जबकि कांग्रेस गांधीजी के नेतृत्व को स्वीकार कर रही थी और सुभाष बाबू के अलग हो जाने पर भी कांग्रेस से उनके समर्थन में बाहर आने वालों की संख्या नगण्य ही थी – बंगाल तक में?
लेकिन इस सारे प्रकरण में यह उल्लेखनीय है कि तमाम नीतिगत मतभेदों और कहीं-कहीं कांग्रेस के अन्य कुछ नेताओं के प्रति नकारात्मक टिप्पणियों के बावजूद महात्मा गांधी के व्यक्तित्व के प्रति सुभाष बाबू के आदर में कोई कमी नहीं आई और वह इस बात के लिए दुख भी प्रकट करते हैं कि वह भारत के ‘महानतम व्यक्ति’ का विश्वास नहीं अर्जित कर सके। इसी तरह सारे विरोध के चलते हुए भी महात्मा गांधी सुभाष बाबू की बहादुरी और देशभक्ति के गहरे प्रशंसक बने रहे। जहां नेताजी ने आजाद हिंद फौज के दस्तों का नाम गांधी, नेहरू और आजाद के नाम पर रखा, वहीं एक अवसर पर जयप्रकाश नारायण के बारे में टिप्पणी करते हुए गांधीजी ने कहा कि बहादुरी और देशभक्ति में वह सुभाष बाबू और जवाहरलाल के समान हैं, और उन्हीं की तरह कुछ अधीर भी।