— डॉ. सुरेश खैरनार —
दो हफ्ते बाद आजादी के पचहत्तर साल पूरे होने का जश्न मनाया जाएगा ! मनाया जाना चाहिए ! लेकिन साथ-साथ भारत में रहने वाले हर भारतीय को सुरक्षित और सम्मान से जीने का माहौल बनाने का काम भी होना चाहिए!
यह है लेस्ली फोस्टर ! आज से भारत के मतदाताओं में एक और मतदाता शामिल हो रहा है ! लेस्ली अठारह साल पूरे कर रहा है। सबसे पहले मेरे तरुण दोस्त को जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं !
लेकिन मैं यह सिर्फ उसे जन्मदिन की शुभकामनाएं देने के लिए नहीं लिख रहा हूँ ! आज दो करोड़ से अधिक क्रिश्चियन इस देश में रह रहे हैं, जिनमें एक हैं मेरे अजीज दोस्त श्री. जे.एफ. रिबेरो, जो भारतीय पुलिस सेवा के उन चंद जांबाज़ अफसरों में से एक हैं जिन्होंने अपनी ड्यूटी के लिए जान की बाजी लगा दी, एक नहीं दो बार ! पहली बार खालिस्तानी आतंकवादी हमलों के समय जालंधर के पुलिस मेस में, जब वे पंजाब के पुलिस महानिदेशक थे। और दूसरी बार रोमानिया में राजदूत रहते हुए। और दोनों बार जख्मी हुए हैं ! लेकिन बाल-बाल बच गए !
इस बारे में मैंने उन्हें पूछा था कि “सरदारों को देखते हुए आपको कैसे लगता है?” तो उन्होंने कहा कि “सुरेशभाई मैं भारतीय पुलिस सेवा में उम्र के चालीस साल काम किया हूँ ! अगर मैंने इस तरह किसी एक दो घटनाओं के ऊपर अपनी राय बनायी होती तो मुझे अनगिनत लोगों को अपने एनिमी के कैटेगरी में डालना पड़ा होता। वह मेरी ड्यूटी का हिस्सा था। अब मैं वर्तमान में सामान्य नागरिक हूँ !”
कुछ दिनों पहले, उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस में “मैं आजकल क्रिश्चियन होने के नाते अपने आप को असुरक्षित महसूस कर रहा हूँ!” इस आशय का लेख लिखा है ! मेरे खयाल से जेएफ रिबेरो जैसे अफसर को अगर असुरक्षा महसूस होती है तो मुझे लगता है कि भारत के सभी अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों का यही प्रातिनिधिक उदाहरण है ! क्योंकि आए दिन उनके साथ हो रही हिंसक घटनाओं को देखते हुए ऐसा लगता है !
एक करोड़ से अधिक सिख धर्म के अनुयायी, और मुसलमानों की आबादी शायद तीस करोड़ के आसपास की है ! और बौद्ध तथा जैन, पारसी तथा कुछ यहूदी भी भारत में सदियों से रहते हैं जिन्हें बेनेजू भी कहा जाता है ! तो मोटा-मोटी भारत के सभी अल्पसंख्यक समुदायों को मिलाकर एक चौथाई हिस्सा भारत की कुल जनसंख्या में, अल्पसंख्यकों का है !
और आजादी के पचहत्तरवें वर्ष में, हमारे देश की आबादी में से एक चौथाई हिस्सा असुरक्षित महसूस कर रहा है ! तो क्या यह हमारे देश की आजादी के पचहत्तर साल के सफर की बहुत बड़ी उपलब्धि है?
मुझे तो लगता है कि इस देश के एक भी आदमी या औरत को अगर हमारे देश में असुरक्षा महसूस होती है तो गंभीर बात है ! आजादी के मायने क्या है? इस देश में रहनेवाले हरेक व्यक्ति को हर तरह के शोषण, अन्याय, अत्याचार, असुरक्षा, गैर-बराबरी, अभावों से मुक्ति !
आजकल हैप्पीनेस इंडेक्स की चर्चा चल रही हैं ! बीच में खबर थी कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने हैप्पीनेस मंत्री पद का निर्माण किया था! बहुत ही अच्छी पहल है लेकिन सबसे पहले लोग दुखी क्यों है इस बारे में गौर से देखने की जरूरत है !
उदाहरण के लिए, एक संगठन जिसका संचालन नागपुर से वह पांच-दस साल के बच्चों को अपनी शाखाओं में, गत सौ साल से गीत, बौद्धिक, खेलकूद के द्वारा अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ तैयार कर रहा है। लगातार दुष्प्रचार जिसमें साफ शब्दों में कहा जाता है कि इस देश में अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को बहुसंख्यक समुदाय की सदाशयता के ऊपर रहना होगा ! संघ के सबसे लंबे समय तक सरसंघचालक रहे माधवराव सदाशिव गोलवलकर ने अपनी किताबों में लिखा है कि अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को मताधिकार नहीं होना चाहिए ! और वह आज कुछ हद तक अमल में लाने की शुरुआत हो गयी है।
अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को अपने दल की तरफ से उम्मीदवार बनाने के कितने उदाहरण हैं? शायद गुजरात में एक भी नहीं ! और उत्तर प्रदेश तथा मध्यप्रदेश और कुछ अन्य क्षेत्रों में दावे के साथ कहा जा रहा है कि “देखो हमने एक भी अल्पसंख्यक को उम्मीदवार नहीं बनाया !” यह सीख उस दल का मातृ संगठन आएसएस उन्हें सौ साल से लगातार दे रहा है ! यह सब कुछ हमारे देश के संविधान के खिलाफ है ! और उसके बावजूद यह सब देशभक्ति के नाम पर बदस्तूर जारी है।
उस प्रचार के कारण एक सामान्य नागरिक हो या देश के प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, राष्ट्रपति, राज्यपाल या प्रशासकीय कर्मचारी, न्यायपालिका के साथ जुड़े हुए लोग, मीडिया, या पेशेवर काम करनेवाले लोग, इस तरह के प्रचार-प्रसार के कारण जिस तरह का रेजिमेंटेंशन होता है, उसके कारण वे क्या तटस्थता से अपनी जिंदगी जी सकते हैं?
आज सबसे बड़े न्यायालय के निर्णयों को ही देख लें। हमारे देश के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री एनवी रमना ने हाल ही में एक कार्यक्रम में वर्तमान समय में कंगारू न्यायालय जैसे हमारे मीडिया की भूमिका को लेकर काफी सख्त टिप्पणी करते हुए न्यायप्रणाली में होनेवाले हस्तक्षेप के बारे में भी बोला है ! क्या वर्तमान समय में हमारे न्यायालय जो फैसले दे रहे हैं वे भारत के संविधान के अनुसार दिए जा रहे हैं ? हमारा मीडिया कैसे एकतरफा तथाकथित चर्चा करता है? बहुत सारे चैनलों के एंकर, एंकर कम, वर्तमान सत्ताधारी दल के प्रतिनिधि ज्यादा लगते हैं!
1985-86 के बाद यानी पैंतीस साल के बाद जिस तरह का धार्मिक ध्रुवीकरण हो चुका है, क्या हम अपनी छाती पर हाथ रखकर कह सकते हैं कि हमारे मन में किसी भी व्यक्ति के बारे में उसके जाति-संप्रदाय के कारण कोई भेदभाव नहीं है ? ओड़िशा के कंधमाल जिला, मनोहरपुकुर में, कोढ़ियों की सेवा करनेवाले फादर ग्राहम स्टेन्स और उनके दोनों बच्चों को जीपके अंदर ही जलाकर मार डालने की घटना हो या गुजरात के डांग-अहवा के आदिवासियों के बच्चों के लिए बोर्डिंग स्कूल चलानेवाले फादर या ननों के ऊपर किए गए हमले, या छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, चंडीगढ़, पठानकोट तथा राजधानी दिल्ली में चर्चों के ऊपर किए गए हमले, ये किस बात के परिचायक हैं?
1989 भागलपुर, 2002 गुजरात, 2013 मुजफ्फरनगर, मलियाना, मेरठ, मुंबई, या कम-अधिक प्रमाण में संपूर्ण भारत में जो दंगों की राजनीति प्रारंभ की गई है उसके असली सूत्रधार कौन लोग हैं? क्लीन चिट यह शब्द अब घिस-घिसकर बहुत अर्थहीन हो गया है ! क्योंकि दंगों के प्रत्यक्षदर्शियों ने और उसके अलावा दर्जनों लोगों ने जान की परवाह किए बिना, काफी मेहनत से जो रिपोर्टें लिखी हैं उन्होंने साफ-साफ लिखा है “कि राज्य सरकार की नाकामी की वजह से इतनी बड़ी संख्या में लोग मारे गए ! और हजारों करोड़ रुपये की संपत्ति का नुकसान हुआ है !” और तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने खुद कहा था कि राजधर्म का पालन नहीं किया गया है !
हमारे देश के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीजी के प्रधानमंत्री बनने के पहले मैंने खुद अपनी आंखों से देखा है इनके डिजिटल स्क्रीन के चुनाव के पोस्टरों पर, जो 2013 में राजधानी दिल्ली के हर बस स्टॉप के ऊपर प्रकाशमान थे लिखा था : “सबका साथ सबका विकास”! और किसी पर लिखा था कि “मुझे एक मौका दो!” इस देश के लोगों ने आपकी इन घोषणाओं को देखकर आपको एक नहीं दो बार प्रधानमंत्री बनने का मौका दिया है !
लेकिन आपका “सबका साथ सबका विकास” का नारा सिर्फ नारा ही रहा ! क्योंकि आपके प्रधानमंत्री बनने के बाद मुस्लिम समुदाय के कितने लोगों को मॉब लिंचिग (यह भारत में हिंदुत्ववादियों की तरफ से नया अध्याय शुरू किया गया है !) में मार डाला गया। गोमांस के शक पर ही सौ से अधिक लोग माब लिचिंग में मारे गए हैं! कही रेल के डिब्बे में तो, कहीं रेलवे स्टेशन पर, तो कहीं बीच रास्ते में। और कहीं-कहीं घरों में घुसकर! आज से सौ साल पहले जर्मनी में हिटलर ने अपने एस एस नाम के हरावल दस्ते के द्वारा यहूदियों के साथ किया ! जिसे मॉब लिंचिग बोला जाता है। यह भारत में पहली बार शुरू हुआ है !
मुझे एक सामान्य नागरिक की हैसियत से बार-बार लगता है कि ज्यादातर मॉब लिंचिग की घटनाएं सरेआम लोगों सामने हुई हैं लेकिन एक भी घटना में अन्य राहगीरों की तरफ से हस्तक्षेप नहीं हुआ है ! यह ज्यादा चिंतनीय बात है ! क्योंकि मारनेवाले (आपकी भाषा में गाय के नाम पर गुंडों की गैंग ! ) अपना कुछ उदेश्य लेकर यह हरकत कर रहे हैं ! लेकिन राहगीर जो हमारे देश के सभ्य समाज का महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं वे इन घटनाओं को रोकने के लिए क्यों हस्तक्षेप नहीं कर रहे हैं? क्या उन्हें डर लगता है कि कहीं हमारे ऊपर हमला हो सकता है? या उनकी मूक सहमति है?
और अगर मूक सहमति है तो फिर संपूर्ण देश की संवेदनशीलता के पतन का लक्षण है ! और इस तरह लोगों का मूकदर्शक बन जाना ! देश के समाज-स्वास्थ के लिए चिंता का विषय है ! क्योंकि एक दो मनोरुग्ण या विकृति से बीमार लोग हों तो समझ में आता है ! लेकिन जब संपूर्ण समाज इस तरह का मूकदर्शक बन जाता है तो फिर आजादी भले पचहत्तर साल पूरे कर रही होगी, मुझे तो आजादी खतरे में पड़ी दीखती है ! आज से सौ साल पहले जर्मनी में यही स्थिति पैदा होने के कारण साठ लाख से अधिक यहूदियों को मारने का इतिहास है !
मुझे याद है अस्सी के दशक में मैं कलकत्तावासी था। उस समय बस ट्राम में सफर करने के समय, अगर किसी सड़कछाप रोमियो ने किसी लड़की या महिला को छेड़ा तो उसे जिंदगी भर के लिए याद रहे इस तरह की पिटाई अन्य प्रवासी करते थे ! लेकिन राजधानी दिल्ली में महिलाओं के साथ क्या- क्या नहीं होता है? निर्भया कांड का उदाहरण पर्याप्त है ! मुख्य मुद्दा यह है कि हमसफर लोग क्यों हस्तक्षेप नहीं कर सकते? क्या सभी लोगों की संवेदनशीलता खत्म हो गई? एक तरफ लोकलुभावन नारे देकर मतदाताओं को अपनी तरफ आकर्षित करने की कोशिश और दूसरी तरफ रेवड़ी बांटने की घोषणा करना ठीक नहीं है तो सबका साथ सबका विकास कौन सी कैटेगरी में आता है? यह तो रेवड़ी के कारखाने खोलना हुआ न !
अभी कुछ दिनों पहले, बीजेपी के राष्ट्रीय सम्मेलन में, हैदराबाद में पसमांदा मुस्लिम समुदाय को स्नेह करने की बात को ही लीजिए ! भागलपुर से लेकर भिवंडी तक के दंगों में कौन लोग मारे गए थे? और गुजरात के भी? और मुजफ्फरनगर? सबके सब पसमांदा मुस्लिम ही थे ! आज भारत के हर कोने में रहनेवाले अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को असुरक्षित करके रखनेवाली छप्पन इंची छाती किसकी है? शायद लोग मूर्ख हैं ऐसा आपको लगता है ! और आप जो भी कुछ बोल रहे, या बोले हो वह लोगों की याददाश्त से बाहर हो गया?
दो हफ्ते बाद आजादी के पचहत्तर साल पूरे होने का जश्न मनाया जाएगा ! मनाया जाना चाहिए ! लेकिन साथ-साथ भारत में रहने वाले हर भारतीय को सुरक्षित और सम्मान से जीने का माहौल बनाने का काम भी होना चाहिए!