— डॉ सुरेश खैरनार —
कश्मीर के रीति-रिवाजों को देखकर लगता नहीं कि कौन हिन्दू है और कौन मुसलमान। वहाँ के नाम ही देख लीजिए- ऋषि परवेज, मोहम्मद पंडित, जफर भट ! और ये नाम मैं अपने दोस्तों के दे रहा हूँ! इसके अलावा दर्जनों उदाहरण हैं।
आडवाणी जी ने 6 दिसंबर 1992 के बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद, कश्मीर में 300 से ज्यादा मंदिर तोड़े जाने का आरोप लगाया था। तो इंडिया टुडे पत्रिका ने बाकायदा सर्वेक्षण किया, और छापा कि “एक भी मंदिर की तोड़े जाने की घटना की जानकारी नहीं मिली!” मैं खुद 2006 के मई माह में और दस साल बाद, 2016 के अक्तूबर में बुरहान वानी की हत्या के बाद दो हफ्ते कश्मीर और जम्मू में परिस्थिति का आकलन करने के लिए घूम रहा था। बडगांव नामक गांव में सबेरे के समय कुछ भजन, कीर्तन कान पर आए। तो जिनके पास ठहरा था, उनकी पत्नी को पूछा कि “आपके गाँव में कितने हिन्दू घर हैं?” तो वह बोली पाँच घर हैं लेकिन सभी बंद हैं! क्यों चले गये वो लोग? पता नहीं। वो हमारे रिश्तेदार जैसे ही थे! मैंने पूछा कि फिर यह भजनों की आवाज कहाँ से आ रही है? तो उन्होंने कहा कि “हमारे गाँव में दुर्गादेवी का मंदिर है और अभी नवरात्र का समय है, तो वहाँ जगृता चल रहा है!” मैं दंग रह गया कि एक भी हिन्दू गाँव में है नहीं है, और यह क्या माजरा है?
मैंने पूछा, कहाँ पर मंदिर है? तो उन्होंने इशारा करते हुए बताया कि गाँव के बाहर एक छोटे टीले पर है। मैं शाम को उनके पति के साथ मंदिर में गया। मंदिर परिसर बहुत ही साफ- सुथरा था, और मंदिर में दिया जल रहा था लेकिन पुजारी कहीं दिख नहीं रहा था! कोई सेवादार जैसा साफ-सफाई करने वाले की बाबत पूछा तो जवाब मिला- अजी, पंडित जी कहाँ हैं? तो बोला बगल के गाँव में पूजा करने गये हैं! मैने उस पंडित जी का मोबाइल नंबर पूछा तो उसने बताया। मैंने पंडित जी से बात की। पहले पूछा कि, “आप कहाँ पर हैं? और यहाँ कब तक पहुँचने की संभावना है?” तो उन्होंने बताया कि वे आज जागरण करने के लिए उसी गाँव में रहेंगे! फिर मैंने पूछा कि आपको अकेले यहाँ पर डर नहीं लगता! तो उन्होंने बताया कि आप यह सब क्या पूछ रहे हो? हम बिल्कुल ठीक हैं! पूरे गाँववाले हमारा खयाल रखते हैं!
श्रीनगर के डाउनटाउन एरिया में एक मंदिर वार्ड है। मैं वहाँ भी गया। एक रिटायर्ड प्रो धर (हिन्दू पंडित जी) के घर एक घंटे से ज्यादा समय रुका। काफी बातचीत की। उनकी एक बेटी है जो कॉलेज में पढ़ रही है। मैंने उसे भी पूछा कि “बेटा, आपको यहाँ कोई तकलीफ या डर?” तो उसने बताया कि बिल्कुल नहीं, उलटे जब भी कभी बवाल होता है, तो सभी मोहल्ले वाले हमारी मदद करने के लिए आधी रात को आ जाते हैं! और अभी जून की यात्रा के दौरान भी इन सभी जगहों पर दोबारा गए तो जिन कश्मीरी पंडितों के मुँह से हिन्दू-मुसलिम शब्द नहीं सुना था, अब वे 370 और शिकारा, कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्मों के कारण, मुसलमानों को म्लेच्छ (अस्पृश्य) बोल रहे हैं!
कश्मीर के पंडितों की भाषा में यह बदलाव बीजेपी तथा संघ के प्रचार और इन दोनों फिल्मों के असर से आया है जिनमें अतिरंजित दृश्य, मसाला लगाकर, उकसाने के ही उद्देश्य से दिखाए गए! और इसीलिए प्रधानमंत्री और उनके समस्त मंत्रिमंडल ने इन फिल्मों को प्रमोट करने के लिए टैक्स फ्री कर दिया और खुद भी देखकर उन्हें देखने का माहौल बनाया। इस तरह एकतरफा और तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करने का एकमात्र कारण यह है कि ये फिल्में संपूर्ण देश में मुस्लिम समुदाय के खिलाफ लोगों को और भड़काने का काम करेंगी!
कश्मीर के पंडितों की वापसी का रास्ता हमेशा-हमेशा के लिए बंद कर देने से किसको क्या मिलेगा, पता नहीं, पर भाजपा की मंशा जाहिर है, कश्मीरी पंडितों के नाम पर मतों का ध्रुवीकरण करते रहो! वैसे भी 32 सालों से वे यही करते आ रहे हैं! इस दौरान बीजेपी को दो बार सत्ता में आने का मौका मिला। पहले भी कश्मीरी पंडितों के लिए कुछ नहीं किया था। इस बार अभी आठ साल हो गए। कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्मों के सहारे कश्मीरी पंडितों के मसले को चुनाव प्रचार में इस्तेमाल करने के अलावा बीजेपी को और कुछ सूझता नहीं है!
कश्मीर की फिजां बहुत अलग है जहाँ सांप्रदायिकता की बात दूर दूर तक नजर नहीं आती! जो कुछ लड़ाई चल रही है वह कश्मीरियत की है! जैसे असम आन्दोलन की बात है, असमियत की बात है! पिछले सितंबर में मैं 25 दिन असम में घूमकर यह लिख रहा हूँ।
जब हम कश्मीर के 370 के जैसा ही उत्तर पूर्व के प्रदेशों में 371,372 जैसे विशेष प्रावधान होते हुए पचहत्तर साल की आजादी के जश्न मनाने की तैयारी में हैं, तो उसी परिप्रेक्ष्य में हम कश्मीर के बारे में क्यों नहीं सोचते हैं? आदिवासियों के लिए पाँचवीं और छठी अनुसूची बनाकर उन्हें कुछ विशेष अधिकार दिए गए हैं। बंगाल, असम, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, आंध्र,तमिलनाडु, ओड़िशा, पंजाब, राजस्थान के प्रश्न समझ सकते हैं तो क्यों कश्मीर के क्यों नहीं समझते? उसे एक कोढ़ी के जैसा बनाकर रख दिया है! क्योंकि 90 प्रतिशत आबादी मुसलमान है इसलिए? फिर भारत की मुख्यधारा में लाने के लिए बन्दूक, बख्तरबंद गाड़ियाँ, टैंक, और हर एक परिवार पर सिक्यूरिटी का एक जवान, वह भी हाथ में एके 47 या 56 लेकर!
हमारी आजादी को आनेवाले 15 अगस्त को 75 साल पूरे हो रहे हैं! मैंने देखा कि असम, मणिपुर, नगालैंड, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल और सबसे हैरानी की बात मध्य भारत के छत्तीसगढ़, झारखंड, ओड़िशा के कुछ हिस्से, महाराष्ट्र के गढ़चिरौली, चन्द्रपुर, भण्डारा, गोंदिया, यवतमाल जिले, तेलंगाना के क्षेत्र को मिलाकर, मोटामोटी भारत की एक चौथाई आबादी के लिए, कश्मीर जैसे हालात बने हुए हैं! कारण भले अलग अलग हैं! पर उपाय सुरक्षा बलों की तैनाती, यह आजादी के 75 साल की उपलब्धि है? दुनिया के किसी सिविल एरिया में, इतने बड़े स्तर पर सेना तैनात करने का शायद यह अकेला उदाहरण होगा! इन प्रदेशों में कश्मीर जैसे हालात देखकर मैं यह सब लिख रहा हूँ। भले कहीं नक्सली समस्या है और कहीं पहचान का मसला है! कोई अपनी भाषा, अपनी संस्कृति के ऊपर होनेवाले आक्रमणों की बात कर रहे हैं! और क्यों न करें! क्योंकि आजादी के बाद सभी को अपने अधिकार, अपने सम्मान, और सबसे बड़ी बात गरिमामय ढंग से जीने का अधिकार है!
जब तक लोगों के सवालों को ठीक से समझकर सुलझाने की कोशिश नहीं की जाती तब तक यह असंतोष बकरार रहेगा। सुरक्षा बलों की तैनाती यह कोई समाधान नहीं है!