अमृतकाल में दलितों और आदिवासियों पर हमले बढ़े

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15 अगस्त। देश आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है। पिछले 75 वर्षों से देश में आजादी के उत्सव मनाए जाते हैं, और इसमें देश के सभी नागरिक शामिल होते हैं। वे भी इन उत्सवों को मनाते हैं, जिन्होंने अभी तक आजादी का अमृत नहीं चखा है। देश के करोड़ों गरीब जिनके सिर पर छत नहीं है, जिनके पास कोई सुरक्षित रोजगार नहीं है या जो रोजमर्रा के जीवन में दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष करते हैं। इन लोगों के लिए आजादी का उत्सव मनाने के लिए किसी सरकारी फरमान की जरूरत नहीं है। ये लोग इसलिए भी आजादी का उत्सव मनाते हैं, क्योंकि वे कहीं न कहीं इस उम्मीद में रहते हैं कि कभी तो उनके भी अच्छे दिन आएंगे।

मोदी सरकार ने आजादी की 75वीं वर्षगांठ को मनाने के लिए बड़ी मुहिम छेड़ी हुई है और इसे ‘अमृतकाल’ का नाम दिया है। इसलिए घर-घर तिरंगा का आह्वान किया गया और पूरी की पूरी सरकारी मशीनरी इसे जबरदस्ती लागू करने पर आमादा थी। अमृतकाल से मतलब यह है, कि अब ऐसी व्यवस्था आ गई है जो देश के हर बाशिंदे की जरूरतों का ख्याल रखेगी और देश को तरक्की की तरफ ले जाएगी। लेकिन क्या यह एक हकीकत है? नहीं, यह हकीकत नहीं है। हकीकत यह है, कि पिछले दो साल में दलितों और आदिवासियों के खिलाफ हमले बढ़े हैं और उनके खिलाफ जघन्य अपराधों में काफी बढ़ोत्तरी हुई है। दलितों के खिलाफ सबसे ज्यादा अत्याचार उत्तर प्रदेश और बिहार में बढ़े हैं और आदिवासियों के खिलाफ राजस्थान और मध्य प्रदेश में ऐसे मामलों में बढ़ोतरी हुई है।

मानसून सत्र में संसद में पेश गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में दलितों और आदिवासियों के खिलाफ अपराधों के मामलों में लगातार वृद्धि हो रही है। ये आँकड़े हाल ही में मानसून सत्र के दौरान केंद्र सरकार ने पेश किए हैं। संसद में पेश किए गए इन आँकड़ों के मुताबिक 2018 में दलितों पर अत्याचार के 42,793 मामले सामने आए थे जबकि पिछले दो साल बाद यानी 2020 में यह आँकड़ा बढ़कर 50,000 हो गया है। वहीं अगर आदिवासियों की बात करें तो वर्ष 2018 में उनके खिलाफ अपराधों के 6,528 मामले दर्ज किए गए, जो वर्ष 2020 में बढ़कर 8,272 हो गए हैं। 2019 में प्रस्तुत आँकड़ों के अनुसार, दलितों के खिलाफ 45,961 मामले और 7,570 अपराध दर्ज किए गए थे।

संसद में पेश किए गए आँकड़ों के मुताबिक, उत्तर प्रदेश और बिहार में दलितों का उत्पीड़न सबसे अधिक हुआ है। अकेले उत्तर प्रदेश में 2018 में 11,924 मामले दर्ज किए गए जबकि 2019 में 11,829 मामले दर्ज किए गए, जो वर्ष 2020 में बढ़कर 12,714 हो गए हैं। वहीं बिहार के मामले को देखें तो 2018 में यहाँ 7,061 अपराध दर्ज किए गए थे। 2019 में यह संख्या घटकर 6,544 हो गई, लेकिन वर्ष 2020 में यह आँकड़ा फिर से बढ़कर 7,368 पर पहुँच गया था। आँकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है, कि हिंदी पट्टी में दलितों और आदिवासियों का उत्पीड़न सबसे ज्यादा है। आदिवासियों के खिलाफ अपराध के सबसे ज्यादा मामले मध्य प्रदेश और राजस्थान में दर्ज किए गए हैं। मध्यप्रदेश में साल 2018 में आदिवासियों पर अत्याचार के 1,868 मामले दर्ज हुए थे जो 2019 में घटकर 1,845 हो गए, लेकिन साल 2020 में एक बार फिर बढ़कर 2,401 हो गए हैं। वहीं साल 2018 में राजस्थान में 1,095 मामले दर्ज किए गए थे जो 2019 में बढ़कर 1,797 हो गए, लेकिन साल 2020 में यह आंकड़ा फिर से 1,878 पर पहुँच गया था।

सवाल यह है, कि जब देश की करीब 24 प्रतिशत आबादी, आर्थिक उत्पीड़न के अलावा जातीय उत्पीड़न का शिकार है तो फिर इसे अमृतकाल क्यों कहा जा रहा है। क्या सरकार खुद के आँकड़ों पर गौर नहीं कर पा रही है? या सरकार सबको अंधेरे में रखना चाहती है? इसमें कोई शक नहीं कि कुछ लोगों के लिए यह अमृतकाल है। मोदी युग देश के पूंजीपतियों के लिए अमृतकाल बनकर आया है।

(‘न्यूज क्लिक’ से साभार)

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