— डॉ सुरेश खैरनार —
बिलकिस बानो, 21 साल की उम्र और तीन महीने की गर्भवती के साथ आज से बीस साल पहले के गुजरात के दंगों में बलात्कार करनेवाले लोगों को आजादी के पचहत्तर साल के उपलक्ष्य में मुक्त करने का निर्णय, गुजरात सरकार ने लिया है। मतलब भारतीय जनता पार्टी के हिसाब से, आजादी के पचहत्तर साल के यही मायने हैं! तो श्री माधव राव सदाशिव राव गोलवलकर उर्फ गुरुजी के अनुसार भारत के अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों को बहुसंख्यक समुदाय के लोगों की सदाशयता ऊपर जीना होगा!
और जिस बैरिस्टर विनायक दामोदर सावरकर का नाम प्रधानमंत्री जी ने लालकिले की प्राचीर से लिया है उनके मराठी भाषणों का संग्रह ‘सहा सोनेरी पाने’ (‘छह सुनहरे पन्ने’ सावरकर सदन, मुंबई से प्रकाशित) में साफ साफ लिखा है कि “शत्रुओं की औरतों पर बलात्कार करना चाहिए! छत्रपति शिवाजी महाराज ने कल्याण के सूबेदार की बहू को ससम्मान छोड़कर बहुत बड़ी गलती की है! उन्हें उस औरत की इज्जत लूटकर छोड़ना चाहिए था!” उसी कड़ी में वसई के पेशवा चिमाजी अप्पा ने किसी पुर्तगाली महिला को ससम्मान छोड़ दिया था! तो सावरकर ने दोनों हिंदू राजाओं को कोसने के बाद आगे जाकर लिखा है कि “शत्रुओं की महिला भले ही तरुणी हो या बूढ़ी या बच्ची, बलात्कार करके ही छोडऩा चाहिए।”
इस तरह का विषवमन करनेवाले सावरकर-गोलवलकर जैसे लोगों से शिक्षा-दीक्षा लिये हुए लोगों के द्वारा बिलकिस बानो के बलात्कारियों को आजादी के पचहत्तर साल के कार्यक्रम के अंतर्गत छोड़ने का कृत्य हुआ है! इन बलात्कारियों को आगे चलकर किसी पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा तो कोई अचरज की बात नहीं होगी। जैसे सावरकर को भारत रत्न देने की माँग बार-बार हो रही है और महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का भी महिमामंडन करते हुए, उसके मंदिर से लेकर मूर्तियां बनाने का कृत्य, यह किस मानसिकता का परिचायक है?
बीजेपी के मातृ संगठन आरएसएस की स्थापना 1925 में हुई थी लेकिन आरएसएस ने सोच-समझकर भारत की आजादी के आंदोलन से दूर रहने का फैसला किया था और उसका पूरा-पूरा पालन आरएसएस ने किया! और सबसे हैरानी की बात, 15 अगस्त 1947 को भारत को आजादी मिलने के बाद संघ के मुख्यालय पर भारत का तिरंगा झंडा नहीं फहराया गया। क्या वजह थी! भारत के संविधान और भारत के राष्ट्रीय झंडे को शुरू में ही संघ ने नकारा है! डॉ बाबासाहब आंबेडकर ने 26 नवंबर 1949 के दिन, संविधान को भारत की जनता को अर्पण करने की घोषणा की उसके बाद संघ के अंग्रेजी मुखपत्र ‘आर्गनाइजर’ के 28, 29, 30 नवंबर 1949 के अंक में लिखा गया- “हजारों वर्ष पुराना ‘मनुस्मृति’ जैसा संविधान रहते हुए, इस विदेशों के संविधानों की नकल किए हुए गुदड़ी जैसे (अलग अलग टुकड़े जोड़कर सिले हुए कपड़े के जैसा) संविधान की क्या आवश्यकता है? भारत की हजारों वर्ष पुरानी परंपरा का कहीं भी इस संविधान में समावेश नहीं है! और राष्ट्रध्वज के बारे में लिखा है कि “तीन का अंक अशुभ होता है!” और तीनों रंगों से लेकर अशोकचक्र तक की आलोचना करते हुए लिखा कि “हजारों वर्ष पुराना भगवा झंडा रहते हुए! तिरंगा झंडा को संघ नकारता है।” और 2002 में कोई तीन लोगों ने मिलकर, संघ के नागपुर स्थित रेशमबाग के मुख्यालय पर झंडा फहराने की कोशिश की तो उन्हें पुलिस के हवाले करके उनके ऊपर मुकदमा कर दिया!
शायद उसी बात के प्रायश्चित के तौर पर, स्वतंत्रता के पचहत्तर साल के कार्यक्रम के नाम पर घर-घर झंडा जैसी सस्ती लोकप्रियता के लिए, नारेबाजी करने की आवश्यकता हुईं है! “लेकिन बुंद से गई वह हौद से नहीं आती” कहावत के अनुसार घर-घर झंडा फहराने का कार्यक्रम था! और खादी को खत्म करने की कड़ी में खादी के अलावा और कोई भी झंडा चलेगा का फतवा उसी षड्यंत्र का भाग है !
और प्रधानमंत्री जी ने अपने राष्ट्र के नाम संदेश में, अस्सी मिनट से भी ज्यादा समय के, लाल किले की प्राचीर से दिए गए भाषण में तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई, सावरकर के नाम तो लिये लेकिन जिस बहादुरशाह जफर के नेतृत्व में 1857 की लड़ाई हुई, उनका उल्लेख तक नहीं किया! और उससे भी सौ साल पहले अंग्रेजों के भारत में सत्ता में आने के पहले ही! रोकने की कोशिश करनेवाले, प्लासी की लड़ाई (1756) के हीरो बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला का उल्लेख नहीं किया है! कम-से-कम 135 करोड़ आबादी के देश के प्रधानमंत्री के नाते इस देश के इतिहास के बारे में जानबूझकर इस तरह से बोलना! और वह भी आजादी के पचहत्तर साल के उपलक्ष्य में! कहाँ तक ठीक है?
और इसी मानसिकता की शिकार, गुजरात की वर्तमान सरकार ने बिलकिस बानो के ऊपर अत्यंत जघन्य अत्याचार करनेवाले अपराधियों को रिहा करवा दिया! बिलकिस के तीन बच्चों की और परिवार के अन्य सात सदस्यों की हत्या करनेवाले लोगों को, आजादी के पचहत्तर साल की आड़ में माफ करके! भारत की आजादी का अपमान करने के कृत्य को अमानवीय, सांप्रदायिक कृत्य कहना पड़ रहा है! हमारे आजादी के आंदोलन से निकले हुए मूल्यों का घोर अपमान जानबूझकर किया जा रहा है! अगर आजादी के पचहत्तर साल के बाद भी इस देश में रहनेवाले दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और महिलाओं को सुरक्षा और सम्मान नहीं दिया जाता है तो फिर उस आजादी के क्या मायने हैं? और दिखावे के तौर पर मुस्लिम या आदिवासी राष्ट्रपति बनाने का पाखंड किस काम का?
2002 के गुजरात दंगों के दौरान इक्कीस साल की गर्भवती स्त्री पर अत्याचार करनेवाले और उन्हें मदद करनेवाले लोगों को गुजरात की कोर्ट में न्याय नहीं मिलेगा! इसलिए उस केस को महाराष्ट्र सीबीआई की स्पेशल कोर्ट में स्थानांतरित किया गया था। इन सभी अपराधियों को सजा 2008 में सुनाई गयी थी और मुंबई हाईकोर्ट ने उसपर मुहर लगायी थी। आज हमारे न्यायालयों के निर्णयों को देखते हुए लगता है कि भविष्य में किसी भी पीड़ित को न्याय मिलेगा? क्या हम सौ साल पहले के नाजीवादी जर्मनी की स्थिति में जा रहे हैं? यह हमारी आजादी का अमृत महोत्सव है या विषैला उत्सव है? क्या यही अच्छे दिन हैं?
वर्तमान प्रधानमंत्री उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे। और फिर आज, आजादी के पचहत्तर साल के उपलक्ष्य में माफी देने का निर्णय भारत की न्यायिक व्यवस्था से लेकर सभी तरह के मानवीय मूल्यों का अपमान है! यदि इसी प्रकार हमारे देश के कोर्ट-कचहरी, पुलिस, प्रशासनिक क्षेत्र के निर्णयों को, जकिया जाफरी के मामले से लेकर छत्तीसगढ़ के सत्रह आदिवासियों को मारने की घटना की निष्पक्ष जाँच की माँग करनेवाले हिमांशु कुमार को ही दंडित करने के फैसलों को क्या भारत के आजादी के पचहत्तर साल के उपलक्ष्य में किए जानेवाले कार्यक्रमों का हिस्सा माना जाय? तो फिर इससे बड़ा अपमान हमारी आजादी का और दूसरा हो नहीं सकता!
बिलकिस बानो के प्रति जघन्य अपराध करनेवालों को आजादी के पचहत्तर साल के उपलक्ष्य में मुक्त करने का फैसला समस्त भारतीय महिलाओं का अपमान है! और यह महिला को देवी की उपमा देनेवाले लोगों का पाखंड दर्शाता है! मुझे सबसे बड़ी चिंता, ऐसे-ऐसे निर्णयों को देखते हुए, भारत की न्यायपालिका की स्वतंत्रता को लेकर हो रही है। इन फैसलों ने हमारी न्यायपालिका पर हमारे विश्वास को जबरदस्त धक्का पहुंचाया है!
यह फैसला गुजरात दंगों को जायज ठहराने की साजिश का ही भाग है! जिस तरह से जकिया जाफरी के मामले में, और सोहराबुद्दीन, इशरत जहाँ के मामलों में क्लीन चिट दी गयी वह हमारे देश की आजादी के आंदोलन से निकले हुए मूल्यों का भी अपमान है, और वह भी आजादी के पचहत्तर साल के जश्न की आड़ में! इसका मतलब हमारी आजादी को आजादी के पचहत्तरवें साल में खतरे में ले जाने का घोर षड्यंत्र है! हम सभी लोगों को सचेत होकर, आजादी को और हमारे संविधान को बचाने के लिए कमर कसकर एकजुट होना होगा। अन्यथा भारत नए ढंग की गुलामी में फँस जाएगा।