कृष्ण बहुत अधिक हिन्दुस्तान के साथ जुड़ा हुआ है। हिन्दुस्तान के ज्यादातर देव और अवतार अपनी मिट्टी के साथ सने हुए हैं। मिट्टी से अलग करने पर वे बहुत कुछ निष्प्राण हो जाते हैं। त्रेता का राम हिन्दुस्तान की उत्तर-दक्षिण एकता का देव है। द्वापर का कृष्ण देश की पूर्व-पश्चिम एकता का देव है। राम उत्तर-दक्षिण और कृष्ण पूर्व-पश्चिम धुरी पर घूमे। कभी-कभी तो ऐसा लगता कि देश को उत्तर-दक्षिण और पूर्व-पश्चिम एक करना ही राम और कृष्ण का धर्म था। यों सभी धर्मों की उत्पत्ति राजनीति से है, बिखरे हुए स्वजनों को इकट्ठा करना, कलह मिटाना, सुलह कराना और हो सके तो अपनी और सब की सीमा को ढहाना। साथ-साथ जीवन को कुछ ऊँचा उठाना, सदाचार की दृष्टि से और आत्म-चिंतन की भी।
देश की एकता और समाज की शुद्धि संबंधी कारणों और आवश्यकताओं से संसार के सभी महान् धर्मों की उत्पत्ति हुई है। अलबत्ता, धर्म इन आवश्यकताओं से ऊपर उठकर, मनुष्य को पूर्ण करने की भी चेष्टा करता है। किन्तु भारतीय धर्म इन आवश्यकताओं से जितना ओत-प्रोत है, उतना और कोई धर्म नहीं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि राम और कृष्ण के किस्से तो मनगढ़न्त गाथाएँ हैं, जिनमें एक अद्वितीय उद्देश्य हासिल करना था, इतने बड़े देश के उत्तर-दक्षिण और पूर्व-पश्चिम को एक रूप में बाँधना था। इस विलक्षण उद्देश्य के अनुरूप ही ये विलक्षण किस्से बने। मेरा मतलब यह नहीं कि सबके सब किस्से झूठे हैं। गोवर्धन पर्वत का किस्सा जिस रूप में प्रचलित है उस रूप में झूठा तो है ही, साथ-साथ न जाने कितने और किस्से, जो कितने और आदमियों के रहे हों एक कृष्ण अथवा राम के साथ जुड़ गये हैं। जोड़ने वालों को कमाल हासिल हुआ। यह भी हो सकता है कि कोई न कोई चमत्कारिक पुरुष राम और कृष्ण के नाम पर हुए हों। चमत्कार भी उनका संसार के इतिहास में अनहोना रहा हो। लेकिन उन गाथाकारों का यह कम अनहोना चमत्कार नहीं है, जिन्होंने राम और कृष्ण के जीवन की घटनाओं को इस सिलसिले और तफसील में बाँधा है कि इतिहास भी उसके सामने लजा गया है। आज के हिन्दुस्तानी राम और कृष्ण की गाथाओं की एक-एक तफसील को चाव से और सप्रमाण जानते हैं, जब कि ऐतिहासिक बुद्ध और अशोक उनके लिए धुँधली स्मृति मात्र रह गये हैं।
महाभारत हिन्दुस्तान की पूर्व-पश्चिम यात्रा है, जिस तरह रामायण उत्तर-दक्षिण यात्रा है। पूर्व-पश्चिम यात्रा का नायक कृष्ण है, जिस तरह उत्तर-दक्षिण यात्रा का नायक राम है। मणिपुर से द्वारका तक कृष्ण या उसके सहचरों का पराक्रम हुआ है, जैसे जनकपुर से श्रीलंका तक राम या उसके सहचरों का। राम का काम अपेक्षाकृत सहज था। कम से कम उस काम में एकरसता अधिक थी। राम का मुकाबला या दोस्ती हुई भील, किरात, किन्नर, राक्षस इत्यादि से, जो उसकी अपनी सभ्यता से अलग थे। राम का काम था इनको अपने में शामिल करना और उनको अपनी सभ्यता में ढाल देना, चाहे हराये बिना या हराने के बाद।
कृष्ण को वास्ता पड़ा अपने ही लोगों से। एक ही सभ्यता को दो अंगों में से एक को लेकर भारत की पूर्व-पश्चिम एकता कृष्ण को स्थापित करनी पड़ी। इस काम में पेच ज्यादा थे। तरह-तरह की संधि और विग्रह का क्रम चला। न जाने कितनी चालाकियाँ और धूर्तताएँ भी हुईं। राजनीति का निचोड़ भी सामने आया- ऐसा छनकर जैसा फिर और न हुआ। अनेकों ऊँचाइयाँ भी छुई गयीं। दिलचस्प किस्से भी खूब हुए। जैसे पूर्व-पश्चिम राजनीति जटिल थी, वैसे ही मनुष्यों के आपसी संबंध भी, खासकर मर्द औरत के। अर्जुन की मणिपुर वाली चित्रांगदा, भीम की हिडिम्बा, और पांचाली का तो कहना ही क्या। कृष्ण की बुआ कुन्ती का एक बेटा था अर्जुन, दूसरा कर्ण, दोनों अलग-अलग बापों से और कृष्ण ने अर्जुन को कर्ण का छल-वध करने को उकसाया। फिर भी, क्यों जीवन का निचोड़ छनकर आया। क्योंकि कृष्ण जैसा निस्व मनुष्य न कभी हुआ और उससे बढ़कर तो कभी होना ही असंभव है। राम उत्तर-दक्षिण एकता का न सिर्फ नायक बना, राजा हुआ। कृष्ण तो अपनी मुरली बजाता रहा। महाभारत की नायिका द्रौपदी से महाभारत के नायक कृष्ण ने कभी कुछ लिया नहीं, दिया ही।
पूर्व-पश्चिम एकता की दो धुरियाँ स्पष्ट ही कृष्ण-काल में थीं। एक पटना-गया की मगधपुरी और दूसरी हस्तिनापुर-इन्द्रप्रस्थ की कुरु-धुरी। मगध-धुरी का भी फैलाव स्वयं कृष्ण की मथुरा तक था जहाँ मगध-नरेश जरासंध का दामाद कंस राज्य करता था। बीच में शिशुपाल आदि मगध के आश्रित-मित्र थे। मगध-धुरी के खिलाफ कुरु-धुरी का सशक्त निर्माता कृष्ण था। कितना बड़ा फैलाव किया कृष्ण ने इस धुरी का। पूर्व में मणिपुर से लेकर पश्चिम में द्वारका तक इस कुरु-धुरी में समावेश किया। देश की दोनों सीमाओं, पूर्व की पहाड़ी सीमा और पश्चिम की समुद्री सीमा को फाँसा और बाँधा, इस धुरी को कायम और शक्तिशाली करने के लिए कृष्ण को कितनी मेहनत और कितने पराक्रम करने पड़े, और कितनी लंबी सूझ सोचनी पड़ी। उसने पहला वार अपने ही घर मथुरा में मगधराज के दामाद पर किया। उस समय सारे हिन्दुस्तान में यह वार गूँजा होगा। कृष्ण की यह पहली ललकार थी, वाणी द्वारा नहीं। उसने कर्म द्वारा रण-भेरी बजायी। कौन अनसुनी कर सकता था। सबको निमंत्रण हो गया यह सोचने के लिए कि मगध राजा को अथवा जिसे कृष्ण कहे उसे सम्राट के रूप में चुनो। अंतिम चुनाव भी कृष्ण ने बड़े छली रूप में रखा। कुरु-वंश में ही न्याय-अन्याय के आधार पर दो टुकड़े हुए और उनमें अन्यायी टुकड़ी के साथ मगध-धुरी को जुड़वा दिया। संसार ने सोचा होगा कि वह तो कुरु वंश का अंदरूनी और आपसी झगड़ा है। कृष्ण जानता था कि वह तो इन्द्रप्रस्थ हस्तिनापुर की कुरु-धुरी और राजगिरि की मगध-धुरी का झगड़ा है।
राजगिरि राज्य कंस-वध पर तिलमिला उठा होगा। कृष्ण ने पहले ही वार में मगध की पश्चिमी को खतम-सा कर दिया। लेकिन अभी तो ताकत बहुत ज्यादा बटोरनी और बढ़ानी थी। यह तो सिर्फ आरंभ था। आरंभ अच्छा हुआ। सारे संसार को मालूम हो गया। लेकिन कृष्ण कोई बुद्धू थोड़े ही था जो आरंभ की लड़ाई का अंत की बना देता। उसके पास अभी इतनी ताकत तो थी नहीं जो कंस के ससुर और उसकी पूरे हिन्दुस्तान की शक्ति से जूझ बैठता। वार करके, संसार को डंका सुना के कृष्ण भाग गया। भागा भी बड़ी दूर, द्वारका में। तभी से उसका नाम रणछोड़दास पड़ा। गुजरात में आज भी हजारों लोग, शायद एक लाख से भी अधिक लोग होंगे, जिनका नाम रणछोड़दास है। पहले मैं इस नाम पर हँसा करता था, मुसकाना तो कभी नहीं छोडूंगा। यों, हिन्दुस्तान में और भी देवता हैं जिन्होंने अपना पराक्रम भागकर दिखाया जैसे ज्ञानवापी के शिव ने। यह पुराना देश है। लड़ते-लड़ते थकी हड्डियों को भगाने का अवसर मिलना चाहिए। लेकिन कृष्ण थकी पिण्डलियों के कारण नहीं भागा। वह भागा जवानी की बढ़ती हड्डियों के कारण। अभी हड्डियों को बढ़ाने और फैलाने का मौका चाहिए था। कृष्ण की पहली लड़ाई तो आजकल की छापामार लड़ाई की तरह थी, वार करो और भागो। अफसोस यही है कि कुछ भक्त लोग भगाने में ही मजा लेते हैं।
(जारी)