आर्थिक वृद्धि के मॉडल में करने होंगे बदलाव

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— सुनीता नारायण —

म जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन हमारे अस्तित्व पर खतरा है। लेकिन, हम इससे लगातार इनकार कर रहे हैं कि हमें उत्सर्जन में कटौती करनी चाहिए और वह भी ऐसी दुनिया में जहां अब भी लाखों लोगों को विकास का अधिकार देने की जरूरत है।

भारत में, पहले से ही हाशिये पर जी रहे गरीब तबके पर चरम मौसमी गतिविधियों का बहुत बुरा असर पड़ा है।

वे जलवायु परिवर्तन के पहले पीड़ित हैं और हमें याद रखना चाहिए कि आबोहवा में ग्रीनहाउस गैस का जो पहाड़ है, उसमें इन गरीबों का कोई योगदान नहीं है।

अतः जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने की दिशा में आगे बढ़ते हुए हमें जलवायु न्याय की अनिवार्यता की पहचान करनी चाहिए। इसकी वजहें असुविधाजनक लेकिन बहुत आसान हैं।

आबोहवा में कार्बन डाईऑक्साइड की मौजूदगी लम्बे समय तक रहती है, इसलिए पूर्व में हमने वायुमंडल में जितना भी कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन किया है, वो अब भी मौजूद है, जो तापमान को बढ़ाएगा। इसके साथ ही, जिस तरह दुनिया की अर्थव्यवस्था चल रही है, कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन में उसकी भी भूमिका है।

जीवाश्म ईंधन (कोयला या गैस) ही अब भी विकास का पैमाना है। सबसे जरूरी बात यह कि लाखों लोग अब भी आर्थिक विकास यानी किफायती ऊर्जा का लाभ लेने का इंतजार कर रहे हैं। और यह ऐसे समय में है जब दुनिया में विकास की अपनी जरूरत पूरी करने के लिए ही कार्बन स्पेस (तापमान में बढ़ोतरी को 2 डिग्री सेल्सियस पर रखने के लिए जितना कार्बन उत्सर्जन किया जाना है) खत्म हो गया है।

ऐसे में सवाल यह है कि नई उभरी हुई यह दुनिया क्या करेगी? उनकी वृद्धि और इसके लिए जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल, उस खतरे को और बढ़ाएगा, जो हमारा इंतजार कर रहा है। किस तरह इस वृद्धि की पुनः खोज की जा सकती है जिसमें कार्बन का उत्सर्जन कम, दीर्घकालिक और किफायती हो? दुनिया के उभरते मुल्कों को सक्रिय करने के लिए उन्हें गालियां देना और धमकाना पर्याप्त नहीं है।

जलवायु परिवर्तन पर बातचीत में लम्बे समय तक दुनिया ने जलवायु समानता (क्लाइमेट इक्विटी) को कम करने या खत्म करने के लिए काफी काम किया है। साल 2015 का पेरिस समझौता, जिसे खूब सराहा गया, को ऐतिहासिक उत्सर्जन की अवधारणा से छूट दे दी गई; जलवायु न्याय को परिशिष्ट में भेज दिया गया।

इतना ही नहीं, इसमें जलवायु परिवर्तन के चलते होने वाले नुकसान की ‘भरपाई’ का विचार भी हटा दिया गया। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि समझौते में जलवायु कार्रवाई को लेकर एक कमजोर और अर्थहीन रूपरेखा तैयार की गई, जो सिर्फ इस पर निर्भर होगी कि एक मुल्क क्या कर सकता है; न कि इस पर कि कार्बन उत्सर्जन में भागीदारी के अनुसार एक देश से कितनी कार्रवाई की उम्मीद की जाए।

हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि राष्ट्रीय न्यूनीकरण भागीदारी जिसे संयुक्त राष्ट्र में नेशनली डिटरमाइंड कंट्रीब्यूशंस (एनडीसी) कहा जाता है, से दुनिया के तापमान में कम से कम 3 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक का इजाफा होगा।

दुनिया को साल 2050 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन लक्ष्य हासिल कर लेने के खोखले वादों में वक्त जाया नहीं करना चाहिए। बल्कि इस पर विमर्श किया जाना चाहिए कि साल 2030 तक किस तरह उत्सर्जन में कमी लाई जाएगी।

पहले से औद्योगीकृत देशों और नए-नए औद्योगीकृत हुए चीन ने मिलकर साल 2019 तक कार्बन स्पेस के 73 प्रतिशत हिस्से का इस्तेमाल कर लिया है। अगर उत्सर्जन कम करने के लक्ष्य की घोषणा हो भी जाए, तो साल 2030 तक कार्बन स्पेस के 70 प्रतिशत हिस्से पर इन देशों का कब्जा होगा। इसलिए भविष्य में की जाने वाली कार्रवाइयों में जलवायु समानता की सच्चाई को स्वीकार कर इसे आर्थिक वृद्धि में इस्तेमाल करना चाहिए।

अगर हम ऐसा करते हैं तो अवसर खुलेंगे। अगर हम आज गरीब अर्थव्यवस्थाओं में निवेश करते हैं तो वे बिना प्रदूषण फैलाए विकसित हो सकती हैं।

मसलन, दुनिया के गरीबों के लिए ऊर्जा की जरूरतों में निवेश। लाखों महिलाएं अब भी खाना पकाने के लिए बायोमास का इस्तेमाल करती हैं, जो उन्हें बीमार करता है क्योंकि ये स्टोव बड़े स्तर पर प्रदूषण फैलाते हैं।

आगे का रास्ता यह होगा कि अब भी जीवाश्म ईंधन ऊर्जा व्यवस्था से दूर इस आबादी की घरेलू जरूरतों के लिए बायोमास की जगह स्वच्छ अक्षय ऊर्जा का इस्तेमाल किया जाए। लेकिन अक्षय ऊर्जा खर्चीली और इन लोगों के बजट के बाहर है।

अतः दुनिया को ऊर्जा संक्रमण की जरूरत पर भाषणबाजी करने के बजाय संक्रमण प्रक्रिया के लिए खर्च करना चाहिए और आज खर्च करना चाहिए।

यहीं से बाजार पर विमर्श और पेरिस समझौते के अनुच्छेद 6 को काम में लगाना चाहिए। मौजूदा प्रयास बाजार के उपकरण तैयार करने के लिए स्मार्ट व सस्ते तरीके की खोज करना है, जो विकासशील देशों से कार्बन खरीद पर खर्च को कम करेगा।

पेचीदा, जटिल व सस्ता क्लीन डेवलपमेंट मकैनिजम (सीडीएम) के दोहराव की इजाजत नहीं मिलनी चाहिए। बल्कि इसकी जगह बाजार के उपकरण का इस्तेमाल परिवर्तनकारी कार्रवाइयों के लिए किया जाना चाहिए, ताकि उन परियोजनाओं को इस बाजार उपकरण के माध्यम से भुगतान किया जाए, जो कार्बन उत्सर्जन को भारी स्तर पर कम करेंगे।

मसलन गरीब देशों के लिए लाखों मिनी-ग्रिड के जरिए स्वच्छ ऊर्जा का प्रावधान। इस तरीके से बाजार जन नीति व नेक इरादों पर केंद्रित होगा, न कि इसे कार्बन ऑफसेट के नाम पर नये घोटालों की तलाश करने के लिए छोड़ दिया जाएगा।

और यहीं से प्रकृति आधारित समाधानों पर गहराई से विमर्श होना चाहिए। हमें सिर्फ पेड़ों के लिए वनों को याद नहीं करना चाहिए। इस मामले में तो अक्षरशः यही होना चाहिए।

कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए गरीब देशों व समुदायों के पारिस्थितिक संस्थानों के इस्तेमाल का एक अवसर है, क्योंकि पेड़ और प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र कार्बन डाईऑक्साइड को सोखते हैं।

हालांकि, पेड़ों को सिर्फ कार्बन सोखने के माध्यम के रूप में नहीं, बल्कि गरीबों के लिए आजीविका के साधन और आर्थिक सेहत में सुधार के माध्यम के रूप में देखा जाना चाहिए। इसे ध्यान में रखते हुए वनों के लिए कार्बन ऑफसेट के नियमों को विचारपूर्वक विकसित किया जाना चाहिए।

सच तो यह है कि हमने ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन को कम से कम घटाने के लिए स्मार्ट तरीके खोजने में बेहद कीमती समय गंवा दिया और अब समय आ गया है कि इसे रोका जाए।

हमें यह समझना होगा कि हम एक दूसरे पर आश्रित दुनिया में रह रहे हैं, जहां एक दूसरे का सहयोग बहुत जरूरी है और यह सुनिश्चित करने के लिए निष्पक्षता और न्याय की जरूरत है। इसे ध्यान में रखते हुए ही हमें नीतियां तैयार करने की आवश्यकता है।

(डाउन टु अर्थ से साभार)

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